बारिशें ख्वाहिशें दे तरसें , रातों में कितने हादशें ? सबेरे भी वहीं फंसें , प्रियतमा ! अब कितना धंसें ? कहाँ नहीं अब नशें , किससे इश्क की गुजारिशें ? ढूंढा धरा की कशिशें , बेमौसमी चुपके से हंसें । प्यासी नदी किसे कसें , अंगों को क्या डंसें ? भूखें भी यहीं बसें , किससे करें कवि सिफारिशें ? जिंदगी ,किताब़ और नक्शें - मौतों पे क्या तपिशें ? क्या निचोड़ेगी कामिनी रसें , बेवफाओं की अलबत्ता मजलिसें ? स़च़ में महँगी परवरिशें , यही तो आपबीती किस्सें । वादा तो था अर्से , परछाइयाँ से रूबरू फर्शें । कहाँ गिरे कितने शीशें , मिथ्या क्यों परोसा गुस्सें ? अंगारों से हैं झुलसे , कहाँ मछलियां सही से ? गुलाब़ हेतु चले फरसें , शूलों को कैसे घसें ? कहाँ किसकी है वशें , आखिर चुनौती क्यों अपयशें ? पाना मुश्किल क्यों यशें , साहिलों पे क्यों विषें ? खुदा की लौटाओं फीसें , नियति भी क्या-क्या फरमाइशें ? हवा में क्या बंदिशें , कंजूसी में क्या नुमाईशें ? चर्चा में हीं घूसें , बादशाहतें भी हमें चूसें । दिमागों में क्यों भूसें, खोटे सिक्कें क्या लालसें ? मधुशाला तक चाहा जिसे , खारा समंदर मिला उसे । अदालतों में भी