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"मिलने आना"(कविता)

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आख़री  बार   मिलने   आना। लाल जोड़ा  पहन  कर आना। हमारे   दिए  हुए  तौफे  लिखें हुए   खत    साथ   ले  आना।  गले   लगाकर  आखरी   बार  तुम   आँसू  पोछने तो आना। हाथों   की  लकीरों    से  तुम अपना    नाम  मिटाने  आना। दिल   में  तुम   सुलगती   हुई  आग  को  ठंडा  करनें  आना। आखरी   बार  हक  जता कर  हमें   अलविदा  कहने  आना। आज मौका है मिलने का कल तुम कब्र पर फूल चढ़ाने आना। Written by  नीक राजपूत

"छोड़ दिया"(कविता)

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ज़िंदगी  को   अलविदा    कह    दिया। शहर गली मोहल्ले को मेनें छोड़ दिया।   खुशियों ने मुँह मोड़  लिया हालातों के   बदल ते सभी ने साथ देना छोड़ दिया। उम्मीदो  के  रास्तों  पर  मिली  ठोकरें  तबसे हमनें घुट  कर रोना छोड़  दिया।   शहद  के नाम  पर  जहर मिला तबसे   किसी  पर  भरोसा करना  छोड़ दिया। चाहा तो  बस खुद  को  चाहा  ज़िंदगी से शिकायतें  करना  मेनें  छोड़  दिया।   निकल पड़ा सफ़र में चलते चलते पैरों   ने मंज़िल का पता पूछ ना छोड़ दिया। Written by  नीक राजपूत

"चाहता हूँ"(कविता)

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मैं  ख़ुद  को  लिखना  चाहता  हूँ। गुनाह  क़बूल  करना  चाहता   हूँ। एक  बार  ऐ  ज़िंदगी   हमें  मौका तो दे मैं  फिर से  जीना चाहता हूँ। अपनी  गलतियों, को  सुधार  कर मैं अच्छा इंसान  बनना चाहता हूँ। नफ़रतों का दौर भुलाकर मैं  प्यार  अपनापन,   जताना   चाहता   हूँ। टूटे रिस्तो को  वापिस  जॉड  कर  मैं एक  नया  परिवार। चाहता  हूं। खुद  को  लूटा  कर  मैं  सभी  के दिलों पर  राज  करना  चाहता हूँ। थक गया ख़ुदको लिखतें हुए अब मैं सभी को  याद आना चाहता हूँ। Written by  नीक राजपूत

"आचरण ही जीवन मर्म"(कविता)

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आचरण ही जीवन का समझाता है मर्म,  बिना आचरण न होवे जीवन कर्म। आचरण------- निर्मल आचरण से मनुष्य पूजा जाता देव समान। बुरे आचरण से समझा जाता पशु समान। आचरण------- पर नारी, परधन का जो मान रखें, सदा बड़े, बूढ़ो का ध्यान रखें। नित्य मंगल हो, उसका। आशीषों का ढेर लगे। आचरण------- कभी न अकाल मृत्यु का  ग्रास बने। सौ बर्ष की उम्र को वो पार करें। आचरण-------  आचारवन श्री राम थे, महिमा अब भी गायी जाती है। शिवाजी भी मातृभक्त थे, अब भी जाने जाते हैं। आचरण------- अनुसूइया,सावित्री भी आचरण से ही महान है। नित कर्म से अपना भाग्य बदला है। आचरण----- इतिहास उठा लो,या आज भी देखो अपनाकर।  आचरण वान श्रेष्ठ थे,श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ रहेंगे। Written by  कुमकुम गंगवार

"खुशी की चाहत में"(कहानी)

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गरीब धनपतराय अपने झोपड़ी में बैठे कुछ सोच रहे हैं। उनकी पत्नी विमला पास में चावल साफ कर रही है। बारिश को हुये तीन दिन बीत गए हैं पर आज भी बादल आसमान को ढक रहे हैं, धनपतराय को कोई काम नहीं मिला जिसके चलते बच्चे भूखे हैं। कावेरी उन की यह हालत देखती है और चावल बनाने लगती है।चावल बनाकर वह सबको खिला देती है और फिर काम में जुट जाती है। कावेरी धनपतराय की बड़ी बेटी है, घर में वह सामान्य बोलचाल तथा मेहनती लड़की है। लगातार आठ दिनों की बारिश से घर की हालत बिगड़ती जा रही थी, कावेरी को अत्यधिक निराशाजनक स्थिति की सूचना मिल चुकी थी,उसे जिन्दगी का करीब से एहसास हो चुका था। आज कई दिनों बाद वह काम की तलाश में निकली थी क्योंकि कावेरी समझ चुकी थी कि घर पर रहकर घर की स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला।क ई दिन भटकने के बाद पास के ही विद्यालय में ही प्राईवेट में जाँब मिल गई और वह वहाँ तीन हजार रुपये मासिक में कार्य करने लगी। यह सूचना उसने अपनी परिवार में देदी। तो पिता कहने लगे-"तु नौकरी करन जाहे।" कावेरी ने संक्षिप्त"हाँ"में उत्तर दिया। पिता -"पर बिटिया तोहे नौकरी करन कीका जरूरत, ई गाँ

"पहले मुझे लगता था……पर अब लगता है"(लेख)

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  पहले मुझे लगता था……पर अब लगता है ……………………………………………………             समय परिवर्तनशील है,इसके साथ सम्यक् जीवन यात्रा में अनेकों प्रकार के रास्तों से दो चार होना पडता है। सफर करने के दौरान  मोड,तिराहे और चौराहे भी मिलते है जिनको पार कर गंतव्य तक पहुंचना होता है।एक ओर दुर्दिन के गहराते अंधेरी रात की साया में सहयात्री न होने पर कभी कभी अज्ञात भय ,कभी अपने पैरों को पीछे खींचने के लिए मजबूर करता है तो दूसरी ओर अभीष्ट और आनन्दमयी लक्ष्य मिलने की लालसा लिए हमारी आत्मा,धैर्य बधाॅती हुए भय को निर्भयता से चीरते चले जाते हैं।यह अडिगता कोई साधारण वस्तु नहीं,बहुत विरले लोगों में ही पाई जाती है।अदम्य साहसी व्यक्ति ही दुर्दांत झंझावातों को पार कर अक्षुण्ण अन्वेषक "कर्मवीर" की उपाधि प्राप्त करते हैं ।शाश्वत और सनातन सिद्धान्त ही इनसे संघर्ष करने की प्रेरणा के साथ साथ जीवटता का आनन्द देता है ।यह उत्तेजक परिदृश्य ही अंत में "पहले मुझे लगता था……अब मुझे लगता है" के बीच का अंतर महसूस कराता है और एक ओर प्रारम्भ की अल्प या बिना अनुभव का जीवन और दूसरी ओर अन्तिम छोर पर बृहद और पर्याप्त अनुभव

"यादें पीछा करती हैं"(लेख)

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  यादें पीछा करती हैं  ………………………… "याद" शब्द मस्तिष्क के भीतर उपस्थित स्मृति कोष में विद्यमान होता है। "स्मृति" के साथ "विस्मृति" भी जुडा होता है जिसके कोष में बहुत सी मनुष्य के जीवन में हो चुकी घटनाओं व दुर्घटनाओं के कथानक दफन होते हैं, जो तर्क वितर्क के अवसर पर उद्दीपन स्वरूप स्मृति कोष में स्वतः आकर इतिहास को जागृत करते है ।जो घटनाएँ समाज पर दूरगामी प्रभाव डालती हैं वे "यादों"के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं । ऐसी यादें समाज को चुभन या प्रेरणा के रूप में विद्यमान रहती हैं । हमारा मानना है कि हर व्यक्ति के विगत जीवन की घटनाओं का अपना एक इतिहास होता है जो समय समय पर उकेरे जाने पर प्रस्फुटित होता है।जिन जिन परिस्थितियों से वह अपने जीवन को गुजारता है वो पल पल की परिस्थितियाँ ,यादों के रूप में पीछा करती हैं और अपने साये उसको पीछे खींच ले जाती हैं।बचपन में आनन्द के मीठे फल, यौवन में अस्तित्व के लिए संघर्ष, अधिकार और कर्तव्य के दायरे में रहकर समाज में उचित अनुचित क्रिया प्रतिक्रिया का स्वरूप हमेशा यादों के रूप में विद्यमान रहता है यही

"कांटे भी,बाग की शान"(लेख)

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 कांटे भी,बाग की शान …………………………… "कांटे को काँटा निकालता है,फूल नहीं"। यह कहावत स्वतः ही कांटों के महत्व का बखान करता है।यह सही है जिस फूलों या फलों वाले पेड में कांटे होते हैं वे कम जल सिंचन कर जीवित रहते हैं और उनमें फूल व फल अधिक सुरक्षित होते हैं। चिडियाँ घोसले व मधुमक्खियाँ शहद के छत्ते अधिक लगाते हैं,ऐसे में इन पेडों के महत्व बढ जाते हैं।बाग में घुसते ही इन पेडों पर लगे रंग बिरंगे फूल अपनी अलग शान- बान बनाते हैं ।इन सबके पीछे तर्क यह है कि काँटे अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं । बाग भी वही सुरक्षित अधिक होते है जिनकी बाउंड्री कांटे वाली बेलों या पौधों से युक्त होती है। हमारे जीवन दर्शन में भी यह बात परिलक्षित है कि सुख शब्द ,कष्ट या दुःख के कारण ही सार्थक है।हमारे समझ से विषम परिस्थितियाँ ,व्यक्ति के मस्तिष्क और शरीर को अधिक सक्रियता और सहनशीलता प्रदान करती है जिससे वह अपने जीवन में अधिक परिपक्व और धैर्यवान होता है जो दुख व विषम परिस्थितियों को झेलता है।एक तरफ सुख जीवन को परमानंद से भरते हैं तो दूसरी ओर दुख जीवन की कडुवी सच्चाई और हकीकत के धरातल का अहसास कराते है।हम जब एक

"चिडिया चूँ चूँ करती है"(कविता)

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 चिडिया चूँ चूँ करती है,  जब वो सोकर उठती है।  चिडिया चूँ चूँ करती है  जब वो कुल्ला करती है।  चिडिया चूँ चूँ करती है  जब वो मुह को धोती है।  चिडिया चूँ चूँ करती है,  जब वो रोज नहाती है।  चिड़िया चूँ चूँ करती है  जब वो दाना चुगती है।  चिड़िया चूँ चूँ करती है  जब वो पढने जाती है।  चिड़िया चूँ चूँ करती है  जब उसके बच्चे रोते हैं। चिड़िया चूँ चूँ करती है  जब वो गाना गाती है। Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"सोंचो अगर हम पंक्षी होते"(कविता)

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 सोंचो अगर हम पंक्षी होते,  फुर्र-फुर्र करके हम उड जाते। पेड़ों में अपना घर होता,  मीठे-मीठे फल सब खाते।  दूर गगन तक आना जाना  चाँद सितारों को ले आते।  बुध शुक्र पृथ्वी मंगल बृहस्पति  शनि अरुण वरुण को गीत सुनाते।  बादल के पीछे छिप जाते  बच्चे हमको ढूंढ न पाते।  नदी तालाब पोखर झरने मे  फुदक फुदक कर खूब नहाते। Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"मखमली रिश्ते"(कविता)

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मखमली  रिश्ते मतलबी  हो गए कल तक जो गुंडे थे,नबी हो गए मेरे खास थे, उन्हें सच कह दिया एक  पल में वो  अजनबी हो गए तेरे  गेसूओं के साये  में क्या लेटे सब भूल, आराम तलबी  हो गए वो बसंत  बनके आए  जिंदगी  में सपने  मेरे  लाल, गुलाबी  हो गए मैं  बताऊं, क्यों पीते  हैं वे  इतना इश्क में  ठुकराए, शराबी  हो गए महफिलें   क्या  बंद  कर  दी मैंने मेरे  सारे  दोस्त   फरेबी  हो  गए हमसे जरा सी खता क्या  हो गई वो मेरे दुश्मनों के करीबी हो  गए Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट )

"योग से निरोग जीवन"(कविता)

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रोज सुबह जो ये काम हो जायेगा। योग से निरोग जीवन हो जायेगा।। मात्र कल्पना की उड़ान मत भरना। तोड़ी मेहनत करना तो हो जायेगा।। योग हमसे,दुनिया भर में योग हो जायेगा। इतिहास के पन्नो में योग लिखा जायेगा।। न बी पी न सुगर त्वचा में निखार आ जायेगा। योग ही वो दवा है जो काम आ जायेगा।। विश्व को योग दिया भारत ने। विश्व मे गुड़गान गाया जाएगा।। गुरु और ज्ञान दिया भारत ने। सफल विश्व का मार्ग हो जायेगा।। खुशियों की सुगन्ध बयार बहायेगा। स्वस्थ हो जीवन जो योग अपनायेगा।। मूल मंत्र जीवन का हो जायेगा। योग जो जीवन मे अपनायेगा।। 21,जून को योग दिवस मनाया जायेगा। क्या नेता,क्याअभिनेता,  वो भी योग करता पाया जायेगा।। योग से हर रोग संतुलित हो जायेगा। हर मनुष्य स्वस्थ हो जायेगा।। Written by  कवि महराज शैलेश

"बतकही"(कविता)

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बड़े लोगों की सुनों बातें , कालिखें नहीं कहीं भी पुतवाते । गुरू पे बतकही हीं सुनाते , क्यों ये रूतबा हैं पाते ? सीना चौड़ा किये आते -जाते , अकेले दानी क्या हैं कहलाते ? गरिमा की ये कथा सुनाते , वित्तवासना में हांलाकि अज्ञानी समाते । क्या कहूँ  जनता के नाते , शबरी को प्रभु हैं भाते ! तौहिनी करना हैं ये सिखाते , स़़च़ के सारथी स्वयं को बताते । शिक्षा पे सवालें हैं उठाते , जैसे हो अलबत्ता अंधेरी रातें । बातूनी तो थे सदा इतराते , उपमा दे किसे दोषी ठहराते ? ज्यादा कहने से वही घबराते , जो पसीना जरा भी बहाते । सीता को थे कौन डराते , झूठी पीड़ा क्या रंग जमाते ? Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"बेमौसमी"(कविता)

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बारिशें ख्वाहिशें दे तरसें , रातों में कितने हादशें ? सबेरे भी वहीं फंसें , प्रियतमा ! अब कितना धंसें ? कहाँ नहीं अब नशें , किससे  इश्क की गुजारिशें ? ढूंढा धरा की कशिशें , बेमौसमी चुपके से हंसें । प्यासी नदी किसे कसें , अंगों को क्या डंसें ? भूखें भी यहीं बसें , किससे करें कवि सिफारिशें ? जिंदगी ,किताब़ और नक्शें - मौतों पे क्या तपिशें ? क्या निचोड़ेगी कामिनी रसें , बेवफाओं की अलबत्ता मजलिसें ? स़च़ में महँगी परवरिशें , यही तो आपबीती किस्सें । वादा तो था अर्से , परछाइयाँ से रूबरू फर्शें । कहाँ गिरे कितने शीशें , मिथ्या क्यों परोसा  गुस्सें ? अंगारों से हैं झुलसे , कहाँ मछलियां सही से ? गुलाब़ हेतु चले फरसें , शूलों को कैसे घसें ? कहाँ किसकी है वशें , आखिर चुनौती क्यों अपयशें ? पाना मुश्किल क्यों यशें , साहिलों पे क्यों विषें ? खुदा की लौटाओं फीसें , नियति भी क्या-क्या फरमाइशें ? हवा में क्या बंदिशें , कंजूसी में  क्या नुमाईशें ? चर्चा में हीं घूसें , बादशाहतें भी हमें चूसें । दिमागों में क्यों भूसें, खोटे सिक्कें क्या लालसें ? मधुशाला तक चाहा जिसे , खारा समंदर मिला उसे । अदालतों में भी

"पिता ही परमेश्वर"(कविता)

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पिता की छाँव में जो सुकून है।। कभी एहसास नही मिल पाया है।। या रब, तूने भेद मेरे साथ क्यो दिखाया है।। सुना है पिता हर दर्द छुपा लेता है।। अपने अश्कों को दबा लेता है।। या रब,तूने पिता को ऐसे क्यो बनाया है।। ईस्वर तू तो सब जानता है।। तू ही तो सब का विधाता है।। या रब, संसार ये फिर समझ क्यो नही पाया है।। पिता है तो संसार की हर खशी है।। पिता है तो सब बाजार भरे है।। या रब,मुझे वो बाजार क्यो नही दिखाया है।। पिता है तो हौसला बरकरार है।। पिता है तो दुनिया की हर दौलत है।। या रब,ये दौलत मुझे क्यो नही दिखाया।। पिता से घर,पिता से माँ, पिता ही भगवान है।। पिता से छाँव,पिता से छत,पिता ही आसमान है।। या रब,फिर मुझे ये छत,छाँव क्यो नही दिखाया है।। हे भगवान तू ने ये कैसा इंसाफ दिखाया है।। इन बच्चों के सर से पिता का हाथ हटाया है।। या रब,तू ने ये कैसा जुल्म हम पर ढाया है।। या रब, तू ने ये कैसा जुल्म हम पर ढाया है।। Written by  कवि महराज शैलेश

"आओ ना पापा"(कविता)

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याद तो करता हूं मिलने को फरियाद भी करता हूं क्यों हो इतना मुझसे दूर अब कोई नहीं करता तुम जैसा प्यार मुझे पापा रोना चाहता हूं रो नहीं पता हूं मैं पापा इतनी जिमेदारी डाल दी मुझ पर ही मेरे पापा क्यू हो तुम हम सब से इतना दूर चाह कर भी गले से नही लगते मेरे पापा मैं खुद से रूठता हूं खुद मैं ही खुद को मानता हूं आप जैसा प्यार नहीं मिलता मेरे पापा बोझ सी लगती है जिंदगी मेरी अभी तो संग तुम्हारे खेलना चाहता हूं आ जाओ ना संग मेरे पापा मिलना चाहता हूं आओ ना मेरे पापा गले से लगा लो न मेरे पापा Written by  लेखिका पूजा सिंह

"जीवन नव किसलय हुआ नहीं"(कविता)

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 जीवन नव किसलय हुआ नहीं  मन भ्रमित हुआ है अंधकार में  रश्मिया कहीं पर दिखीं नहीं  मद मस्त रहा मानव खुद में  फिर पंखुड़ियाँ कभी खिलीं नहीं  जीवन नव किसलय हुआ नहीं  जिन शाखाओं पें अभिमान हमें  उस फल के हम हकदार नहीं  जो जड़ चेतन से अलग हुआ  उसका पुनः निर्माण नहीं  जीवन नव किसलय हुआ नहीं Written by  प्रभात गौर

"मेरा पिता"(कविता)

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 पिता दिवस पर समर्पित कविता अतुलनीय है ब्रह्मांड का बहुमूल्य रत्न  पित्र तात जनक बाबा संबोधनों से जिसे जाना गया है।  संसार में संतान हित जो करे संघर्ष नित ऐसी प्रेम विश्वास की साकार मूर्ति को पिता माना गया है।। पिता जिसका अस्तित्व आकाश से ऊंचा है    एक तन संतान को निज रक्त से सींचा है । निस्वार्थ है प्रेम जिसका संतान के प्रति  लड़ जाता है हर तूफान से वह पिता है ।। मेरी पहचान और स्वाभिमान पिता है।  आशीष छत्रछाया में आसमान पिता है । स्नेह  का धरातल  पिता है मेरा तो भगवान पिता है ।। Written by आशीष बाजपेयी

"तेरे हुस्न के कसीदे पढ़ता हूं मैं"(कविता)

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जो अनगिनत है वही गिनता हूं मैं  तेरे हुस्न के कसीदे पढ़ता हूं मैं।  जी भर कर भर लो बाहों में अपने  तू जिसे ढूंढता था वह रहनुमा हूं मैं।  तेरा शहर जो इबारत पढ़ ना पाया गजलों का वही उर्दू अल्फाज हूं मैं।  मेरे शहर की बात ही निराली है  तुझसे जुदा होकर भी जिंदा हूं मैं। चूम ले आज की रात पेशानी मेरी  कल अनकहा सा ख्वाब हू में। Written by  कमल  राठौर साहिल

"योग दिवस"(लेख)

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 योग दिवस(लेख) *** कल पितृ दिवस था,आज योग दिवस हर दिन कोई न कोई दिवस ही है। चलिए आज बात करते हैं, योग दिवस की।आज समाज बहुत सजग है,जगह-जगह आज के दिन योग करते लोग मिल  जायेंगे।विभिन्न संस्थान भी  अपनी-अपनी तरह से इस दिवस को मनाते हैं। योग आज के युग में लोगो के मन मस्तिष्क तक पहुँच रहा है।मनुष्य ने न केवल योग सीखा है, ब्लकि  योग को अपने जीवन की दैनिक चर्या शामिल किया है, जो उचित भी है योग के माध्यम से हमारा शरीर स्वस्थ एवं हष्ट-पुष्ट रहता है। निरन्तर योग करते रहने से असाध्य रोगों से छुटकारा भी मिल जाता है।इस भागम-भाग भरें जीवन में सभी क्रियाएँ जटिल हो गई है, जिसका एक कारण मनुष्य का भौतिकता की ओर उन्मुख होना है।सभी भाग-भाग कर अपना काम करते हैं और जल्दी काम निपटाने के लिए वे मशीनों पर निर्भर हो गए हैं।ऐसे में अपने स्वास्थ्य के लिए योग की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक है। आज हम जो योग कर रहे हैं, पूर्व समय में यह दैनिक जीवन की सहज क्रियाएँ थी,जैसे-साईकिल चलाना, सुबह-सुबह स्त्रियों द्वारा चाकी चलाना, दही बिलोना ,मीलों तक पैदल चलना।अब यही सारी क्रियाएँ हम योग में करते हैं, कुछ व्यायाम में आर्थिक खर

"सपना की बारात भाग-2"(कहानी)

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सपना की बारात भाग-2 आपने पढ़ा कि एक बार शादी टूटने के बाद सपना का पुनः विवाह तय होता है।अब आगे-------- बारात दरवाजे पर आती है, उसका स्वागत किया जाता है।ईधर सपना भी तैयार होतीहै। ईधर सपना तैयार होही रही है कि उधर जयमाल के समय मुखिया ने अपनी माँग बढ़ा दी। सुखराम ने जब अपनी असमर्थता जताई तो मुखिया ने शादी से इन्कार कर दिया।शिवा ने भी अपने पिता को समझाने का पूरा प्रयास किया पर मुखिया निर्मम बने रहे। यह बात घर के अन्दर जाते-जाते सपना तक पहुँच जाती है, गुस्से और दुख से भरी वह वहाँ पहुँच जाती है जहाँ शिवा और उसके पिता दोनों ही मुखिया से अनुनय-विनय कर रहे हैं, पर वह पत्थर की भाँति अपने जिद् पर टिके हुए हैं।उन्हें केवल अपनी जिद् ही प्यारी है। ऐसे में जब सपना वहाँ पहुँचती है तो सब उसे देखने लगते हैं।सपना अपने पिता के पास जब उँची आवाज में चिल्लाती है तो सब चुप हो जाते हैं--- सपना अपने पिता से सम्बोधित होकर कहती है कि---"पिताजी बस कीजिए कहाँ तक आप इनकी विनती करेंगे और कब तक इनकी माँग पूरी करेंगे।खिलौना समझ रखा है इन्होंने जब चाहा खिलौना ले लिया, जब चाहा फेंक दिया तो ऐसा करना यह भूल जाये क्योंकि

"विरह-गीत"(बरखा-गीत)

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 झमाझम बरसै बदरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया । लह-लह लहरै डगरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। पवन झकोरै जौ सिहरनि लागै सगरी देहियां म भलु पीरा जागै रहि- रहि भभकै सेजरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै----- यादु सतावै यैसि चिहुँकु जायि छाती  केहिका बिसूरै जिया हौ बहु कलपाती  सहमि-सहमि जायि निंदरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------ जुगनूँ राह-डगरि चमकावैयिं  दादुर-झींगुर बहु शोर मचावैयिं छमाछम बाजतु पयलिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------- लरिकनु छपाछपि अंगना म खेलैयिं  कगजे कै नैइया भलु पनिया मेलैयिं  लुकाछिपी खेलतु नजरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------- भूलि गयिनि सबै  सजना-संवरना  कबु लौटि अउब्या अहै ईहै झंखुना  तकि-तकि हारीं नजरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------- झमाझम बरसै बदरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया । लह-लह लहरै डगरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"हक़ीक़त"(कविता)

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अब कहां मौज़-ए- सब़ा आती है रोज़-रोज़ अब बाग़-ए-वफ़ा में बुलबुल कहां गाती है रोज़-रोज़ सरकार यूं ही  कितना मिलते रहोगे सबसे वो भी कहां आ पाएंगे इनायत को रोज़-रोज़ जलेबी की चाशनी में सीझी  मीठी सी उलझनें चिपकी हुईं हैं ख़्वाब से कहां सुलझ पातीं हैं रोज़-रोज़ देखो ज़रा ग़ौर से सड़कों पे चलते हुज़ूम को समझाये इन्हे कौन इमदाद नहीं बंटती है रोज़-रोज़ कर्फ़्यू  लगा हो चाहे या फौज़ खड़ी हो मानती कहां है भूख लग जाती है रोज़-रोज़ अब देखना है कितना साथ देता है मुकद्दर कुछ भी न मिले तब भी दुआ लोग मांगते हैं रोज़-रोज़  हद भी है इक बंधन जानते हैं सभी फिर भी ख़ुद की ज़द किसको नज़र आती है रोज़-रोज़ विपरीत हालात में भी खुशनुमां मंज़र सज़ाना होगा कोशिशें करते रहो खुशगवार मौसम कहां आता है रोज़-रोज़ Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"सावन-कजरी"(गीत)

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 सावनु बरसैयि जिया बहु उरझैयि सखि मोरु सजनवां आयिनि ना ।  हमरौउ मरदा भयिसि बेदरदा ई कैसि करमवां पायिनि ना ।। बैरनि कोयिलरि न सबरि धरैइया  कुहू-कुहू निगोड़ी बोलयि अमरैइया  लागिनु येहुकै बोलु कटारी कबौ सुखनिंदिया सोयिनि ना ।। हमरौउ  आंगनु म गौउरैइया चहकैयि  मनवा मोरा रहि-रहि बहकैयि  आंखिनु बहतु पनारो यैइसों केउसों दरदिया मोयिनि ना ।। हमरौउ  संगु कैयि गोतीनिनु नीमीं झूला डरावैयिं  केउ गावैयिं कजरी मल्हारि केऊ गावैयिं  साजनु मोरा भयिसि विदेसिया केऊ झुलनवा झुलायिनि ना ।। हमरौउ सावनु बरसैयि जिया बहु उरझैयि सखि मोरु सजनवां आयिनि ना ।। हमरौउ मरदा भयिसि बेदरदा ई कैसि करमवां पायिनि ना ।। Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"मूकता या मुखरता : हो यथेष्ट"(कविता)

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 बात के विरोध या समर्थन का क्यूँ न हो, सिर्फ मुखरित होना ही जबाब नहीं होता। चलते ऑधी में उखड रहे बिरवे क्यूॅ न हों, धरा पे जमीं घास भी माकूल जबाब देता। शान्त का मतलब लोग सहन से क्यूॅ न लें, चुप ज्वालामुखी का धधकना कम होता। ।।1।। मानव स्वच्छंद बने ,नियति मूक क्यूँ न हो, वक्त के सटीक उत्तर का,जबाब नहीं होता। उत्पीडन से निकल रही आह,गूँगी क्यूँ न हो, नियति से पडी लाठी का जबाब नहीं होता। बने माहौल में अर्ध सत्य भटकता क्यूँ न हो, ऐसे में चुप होने का कोई प्रभाव नहीं होता। ।।2।। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0