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Showing posts from March, 2021

"कशिश तेरे प्यार की"(कविता)

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 ख़ामोश अधरों की कहानी आंखें बयां करती रही, दर्दे  जिगर का   इंतहा नीर  छलकाती रही । हर बूंद पर दस्तक  दे रहा था एक शक्स, भूल कर सारा जहां मै लिपट गई देख उसका अश्क। लबों की सुर्ख़ियत पर नाम था उस श्ख्स का , लहराते हर केशों पर  इल्ज़ाम था उस शख्स का। सांसों के सरगम में तरंग थी उसके प्यार की, धड़कने बता रही थी  कहानी बीते बहार की। प्यार का मेरी वफ़ा का वो एक हसीन अहसास था, कैद दिल में हर वो लम्हा जब वो मेरे पास था। जानती हूं मै कभी हमें न भूल पाओगे, कशिश है मेरे प्यार कि तुम  लौट कर फिर आओगे।। Written by  मंजू भारद्वाज

"एक थी समीरा"(लघु कहानी)

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आज एफबी खोलते ही समीरा की हंसती मुस्कुराती एक पुरानी तस्वीर जिस पर पचास हजार लाइक एवं एक हजार कमेंट  आए थे, दिखाई दी, करीब आठ महीने बाद समीरा पुनः प्रकट हो गई ? न जाने कहाँ गायब हो गई थी ये लड़की... चलो वापस तो आई ... बेहद खूबसूरत ,चुलबुली ,बेबाक लड़की जिंदगी से भरी.. बीस इक्कीस वर्ष की होगी हम सभी फेसबुक सहेलियों को दीदी कहती .. .. करीब पन्द्रह सोलह महिलाओं के बीच वह सबसे छोटी सबसे जीवंत लड़की थी. .. लेखनी बेहद प्रखर जिस विषय पर क़लम चला दे वही सुपर हिट... रिकॉर्ड तोड़ लाईक कमेंट आते उसकी प्रत्यैक पोस्ट पर .. हम सबकी बेहद लाड़ली ... होते हुए भी कभी -कभी उससे जलन हो जाती थी .. जब भी कोई पुस्तक प्रकाशित होती तुरंत शेयर करती .. कई काव्य संग्रह, एवं कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे .. गद्य पद्य दोनो पर धारदार लेखनी का कमाल ... देखने मिलता । फिर एक दिन अचानक गायब हो गई... जैसे अचानक आई थी वैसे ही .. बहुत दिन हमने इंतजार किया था .. फिर भूल गये तो नहीं कह सकते हाँ याद करना बंद कर दिया .. उसके विषय में एक दूसरे से पूछना बंद कर दिया .. और आज फिर यह सामने है... क्या लिखी है पढ़ने की अदम्य इच्छा

"आध्यात्मिक-गजल"

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हमें  हकीकत  से रूबरू होना होगा जो पाया है यहां से,यही खोना होगा क्यों परहेज हैं तुम्हें मिट्टी को छूने से एक  दिन इसी  मिट्टी में  सोना होगा सब  जानते हैं  फिर भी हाहाकार हैं बस  इसी  बात   का  तो रोना  होगा सोच  लो, समझ लो, जान  लो  सब अभी  वक्त  हैं, फिर  पछताना  होगा मिला मानव तन तो मुक्ति पालो वर्ना कई  योनियों  में  आना  जाना  होगा तलाक  के लिए क्यों  जलील होते हो थामा है हाथ उसका तो निभाना होगा वक्त निकल  रहा है कुछ तो सोच बंदे कब इस मिट्टी  का कर्ज़ चुकाना होगा बढ़ गए हैं पाप बेतहाशा इस धरा पर फिर किसी अवतारी को बुलाना होगा Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट)

"चिहुँकती चिट्ठी"(कविता)

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बर्फ़ का कोहरिया साड़ी ठंड का देह ढंक लहरा रही है लहरों-सी स्मृतियों के डार पर हिमालय की हवा नदी में चलती नाव का घाव सहलाती हुई होंठ चूमती है चुपचाप क्षितिज वासना के वैश्विक वृक्ष पर वसंत का वस्त्र हटाता हुआ देखता है बात बात में चेतन से निकलती है चेतना की भाप पत्तियाँ गिरती हैं नीचे रूह काँपने लगती है खड़खड़ाहट खत रचती है सूर्योदयी सरसराहट के नाम समुद्री तट पर एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है संसद की ओर गिद्ध-चील ऊपर ही छिनना चाहते हैं खून का खत मंत्री बाज का कहना है गरुड़ का आदेश आकाश में विष्णु का आदेश है आकाशीय प्रजा सह रही है शिकारी पक्षियों का अत्याचार चिड़िया का गला काट दिया राजा रक्त के छींटे गिर रहे हैं रेगिस्तानी धरा पर अन्य खुश हैं विष्णु के आदेश सुन कर मौसम कोई भी हो कमजोर.... सदैव कराहते हैं कर्ज के चोट से इससे मुक्ति का एक ही उपाय है अपने एक वोट से बदल दो लोकतंत्र का राजा शिक्षित शिक्षा से शर्मनाक व्यवस्था पर वास्तव में आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है चिट्ठी चिहुँक रही है चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह मैं क्या करूँ? Written by  गोलेन्द्र पटेल

"बेढ़ंगी"(ग़ज़ल)

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क्या बतलाऊँ हाल दोस्तो जीना हुआ मुहाल दोस्तो रोज़ी रोटी के चक्कर में दिनचर्या भूचाल दोस्तो अहर्निशी अब माप रहा हूँ धरती नभ पाताल दोस्तो ठाठ देखकर जनसेवक के मन में उठे सवाल दोस्तो कल तक जो था भूखा नंगा किस विधि मालामाल दोस्तो औरों की टोपी उछाल कर करता बहुत धमाल दोस्तो अपने सिर शहतीर न देखे मेरी अँखियन बाल दोस्तो पड़ोसियों के घर में क्या है वो करता पड़ताल दोस्तो अपने घर की ढाँप रहा है हर बेढ़ंगी चाल दोस्तो धरने पर बैठे सहकर्मी पीट रहे करताल दोस्तो डब्बा पहुँचा प्रधान के घर ख़त्म हुई हड़ताल दोस्तो छोटा सा घोटाला कर के घर बैठी दो साल दोस्तो अधिकारी घर रुका रात तो सुबह हुई बहाल दोस्तो Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"उम्मीद की उपज"(कविता)

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उठो वत्स! भोर से ही जिंदगी का बोझ ढोना किसान होने की पहली शर्त है धान उगा प्राण उगा मुस्कान उगी पहचान उगी और उग रही उम्मीद की किरण सुबह सुबह हमारे छोटे हो रहे खेत से….! Written by  गोलेन्द्र पटेल

"माँ"(कविता)

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इस संसार, मैं लाई  हमें  माँ  पीड़ा, सहकर।   माँ तेरी गोदसे बढकर दुसरा कोई नही चमन, हाथ पकफड़,  कर चलना  सीखाया माँ तुने, सही और गलत,  का  फर्क समझाया।  मूझे।    माँ तू मेरा, आधार तुझ बीन जीवन निराधार,  तू है  ईश्वर, का रूप माँ तूझे शत  शत नमन।  तेरे पाँव,में  है जन्नत,  करती।  पूरी तू  मन्नत, मरी हर  एक खुशि मेरा त्योहार। हो  तुम माँ। घुटने रेंगते न जाने कब मैं  बड़ा हो गया तेरी। ममतामय छाव मैं तेरे आशिष से में जीवन मैं,   सफलहो गया तेरे आंचल में पूरी सृष्टि समाई। साये की तर्ह हर एक कदम पर  साथ हो तुम, तेरी करूणा। के आगे  सागर भी रति समान। माँ तू शिवशक्ति, तेरी हर रोज करू  में भक्ति, इस जीवन मे तेरा कोई नही मोल तू अनमोल। Written by  नीक राजपूत

"तराजू"(कविता)

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जिस्मानी हया और रूठी  राहें , रातें तो फैला दी बाहें । अंधेरा नहीं होता कभी गाहेबगाहे , फिर भी जिंदा हीं चाहें । फरियादी क्या कभी गवाहें , अमरता की क्या है तन्ख्वाहें ? यादों की तराजू तक आहें , बाजारू नहीं  माना था शहंशाहें । जनता की  खरीदारी की गुनाहें , क्या समंदर में डूबे बेगुनाहें ? दिलों तक गायें और चारागाहें , गुलाबों की ख्वाहिशों में माहें । कांटों से यारी पे निगाहें , भीतरखानें का दिया क्या थाहें ? चुराया गया न हमेशा ख्वाबगाहें , चंदा से सूरज तक  क्या बेपरवाहें ? जुगनू ,चिड़यां और किसकी परवाहें , हरी घासों पे कीचड़ें छांहें ! तौबा -तौबा करते बढे गुमराहें , आग लगने से मिटा लाहें । शिकारी को क्यूं हमसे दाहें , क्या युक्तियां  बचाने की सलाहें ? विपत्ति को अब भी ढाहें , यूं मौतों के हैं बहानें ! भेड़ियों को ले चले चरवाहें , मिला मंदिर -मस्जिदों तक  कोताही उत्साहें !! मिट्टी का जला  दीया कब्रगाहें , हवा के हिलोरा से न अफवाहें !!! Written by विजय शंकर प्रसाद

"हाईकू"

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मन ये चाहे इकतारा सा बजे   कुछ न पाये    मानी बंदिशें स्वप्न हुऐ खंडित    न अविश्वास      पूजे पत्थर धागे बांधे मन्नत के    तुम न माने    अधूरे स्वप्न रिश्तों के श्रंगार   अब हैं झूठे    उड़ी सुगंध सूखे मन के पुष्प    मै  पथभ्रष्ट Written by  अनुपमा सोलंकी

"पुनरावृति"(कविता)

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  ठहरा हुआ  सफर है , क्यूं है आदमी  जंगी ? ये कैसा जहर है , तस्वीरें क्यूं थीं नंगी ? कैसे - कैसे जमा कबूतर हैं , क्यूँ है आखिर तंगी ? अंधेरी दुनिया कसर है , फंसे हैं क्यूं भुजंगी ? कागजों पे तेवर है , महफिल क्यूं हैं बहुरंगी ? डूबाता क्या समंदर है , अतीतें पुनरावृति पाते  फिरंगी ! मौनता तक घर है , इश्क क्या है बदरंगी ? ये कैसा लहर है , नकाबों में क्यूं सतसंगी ? जिंदगी को डर है , कहां जमीरें हैं संगी ? छलिया नजरिया भ्रमर है , परछाइयां भी अलबत्ता उमंंगी । गोपियाँ अक्षरशः यायावर हैं , कलयुगी पीड़ा क्या नारंगी ? नयन  बरसातें  अम्बर हैं , न कहें - नदियाँ बेढंगी !! मछलियां तक स्तर है , रानी सदाबहार और ढंगी । पेड़ों पे बंदर हैं , कलियां तक क्या -क्या मंहगी ? अभिसारिका चंदा  प्रश्नोंत्तर है , रूपैया से क्या - क्या गूंगी ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"क्यों ??"(कविता)

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बेबस नही लाचार नहीं सदियों से व्यभिचारियों का शिकार हूँ मैं क्यों?? क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! महिला दिवस मनाये जाते हैं क्यों?? जब पुरुष मानसिकता का शिकार हूँ मै क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! माँ हूँ, बहन हूँ, बेटी हूँ तब क्यों बंधनों, परंपराओं में जकड़ी हूँ मै क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! मुझे उड़ना है उन्मुक्त आसमान में, रोकते हो क्यों ?? रौंदते हो क्यों ?? क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! उन्मुक्त उड़ान को हर काल में तरसती हूँ.. क्यों ? ? क्योंकि स्त्री हूँ मै!!! क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! Written by  अनुपमा सोलंकी

"हाईकू"

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रिश्ते नाते अनबूझ पहेली अब लगते है मृगतृष्णा नहीं कोई अपना बीता जीवन मोह के धागे अब लगे टूटने चटके मन लागी लगन तोड़ा मोह बंधन मन संगम आर या पार  नैया बीच भँवर  बंसी की धुन राग से विराग उड़ चला है मन न कोई आस Written by  अनुपमा सोलंकी

"लकड़हारिन"(कविता)

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तवा तटस्थ है चूल्हा उदास पटरियों पर बिखर गया है भात कूड़ादान में रोती है रोटी भूख नोचती है आँत पेट ताक रहा है गैर का पैर खैर जनतंत्र के जंगल में  एक लड़की बिन रही है लकड़ी जहाँ अक्सर भूखे होते हैं  हिंसक और खूँखार जानवर यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी    हवा तेज चलती है पत्तियाँ गिरती हैं नीचे जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी मैं डर जाता हूँ...! Written by  गोलेन्द्र पटेल

"क्षत्राणी"(कविता)

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 एक क्षत्राणी की सर्वोच्च राष्ट्र भक्ति की ऐतिहासिक कथा इतिहास भरा क्षत्रिय वीरों से रणबांकुरे रणधीरो से। राजस्थान वीरों की धरती प्रणाम सारी दुनिया करती। क्षत्रियों से कम नहीं क्षत्राणीया अजब इनकी बलिदानी कहानियां। क्षत्रियों की हैं मुकुट मणि  पन्ना हाडी  पद्ममनि। इनसे बढ़ कर एक क्षत्राणी आज सुनेगें उसकी कहानी। नाम था उसका हीरादे थे उसके अटल ईरादे। शूरवीर था उसका सैया नाम था उसका वीका दहिया। वह वीर था जांबाज था साहसी था राजा कान्हदेव का विश्वासी था । जालौर सोनगरो बात थी काली अमावस्या रात थी। अपने घर में बैठी हीरादे पति प्रेम की लेकर मिठृठी यादें पाई थी उसने क्षत्रिय धर्म की शिक्षा भोजन पर थी प्रियतम की प्रतीक्षा।  सशंक चाल से वो आया साथ भारी गठरी लाया। किया दरवाजा बंद सांकल चढ़ा दी गठरी प्रियतमा के आगे बढ़ा दी। खनक से उसे अंदेशा आया सोचा इतना धन कहां से लाया। पति की चोर निगाहें भांप गई धन की हकीकत जान कांप गई। अब विका दहिया बोला था गठरी का राज खोला था। छाये युद्ध के बादल काले आगे दुर्दिन आने वाले। खिलजी सेनापति आया था ये गठरी साथ में लाया था। हम भी वक्त के सताए हैं किले के कुछ राज बताए

"ऊख"(कविता)

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 (१) प्रजा को प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से रस नहीं रक्त निकलता है साहब रस तो हड्डियों को तोड़ने नसों को निचोड़ने से प्राप्त होता है (२) बार बार कई बार बंजर को जोतने-कोड़ने से ज़मीन हो जाती है उर्वर मिट्टी में धँसी जड़ें श्रम की गंध सोखती हैं खेत में उम्मीदें उपजाती हैं ऊख (३) कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान तब खाँड़ खाती है दुनिया और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़! Written by  गोलेन्द्र पटेल

"अमर प्रेम"(कविता)

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खुद से ज़्यादा तो हमें तुम पहचानती,     हो। तुम रचनाकार, हो  कलाकार हो। कलमकार हो शब्दों का तुम खेल हो।     एक  सुंदर,  लेखिका,  हो।  इसीलिए, हमनें,  तुमसे  प्यार  किया  चेहरे को।     नही  बल्कि  तुम्हारी   कल्पना,  ओ।  दुनिया  को  पसंद,  किया।  एक तुम,     ही  तो   हो। जो  हमें, अजय,  अमर। बना   सकती  हो।  अपनी  कविताए,     नज़्म,  गजलो,  मैं हमेंशा।  के  लिए, तुम  ही तो हो। जो  हमारा  दर्द  तुम।     काग़ज़ पर  उतार, सकती  हो बिना। पढ़े चेहरा  लफ्ज़ो  में पिरोह सकती,     हो  धुन, बन सकती हो  खामोशियो। की आवाज बन सकती हो इसीलिए,      तो  हमने तुमसे  प्यार   किया।  हमें। ज़िन्दगी   भर   तुम्हारे  लफ्ज़ो,   मैं।     ज़िन्दा, रहना है। तुम्हारे,   होठों  पर, हमें  अमर, रहना  हैं। हर कदम  पर,     साथ चलना है। मुश्किल कितनी भी, आये,बिना  डरे मुश्किलों, से लड़ना।     है। हमें सात  समंदर, पार  करना है। तुम्हारे एहसासों,  में अमर रहना है। Written by  नीक राजपूत

"सराब (मृगमरीचिका) रखता हूँ" (ग़ज़ल)

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कई चेहरे जनाब रखता हूँ हर एक पे नक़ाब रखता हूँ सवालों के जवाब तो हैं पर गुल्लकों में जवाब रखता हूँ किसिम किसिम की हैं रातें मेरी बीसियों माहताब रखता हूँ बूढ़े माता-पिता के हिस्से की हर दवा का हिसाब रखता हूँ बीवी-बच्चों के नाम से बेशक़ बैंकों की किताब रखता हूँ घर में आ जाए जब कभी साली उसके खातिर गुलाब रखता हूँ भाई भाभी कभी आ जाएँ इधर पेशे-ख़िदमत  सराब  रखता हूँ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बेटियाँ"(कविता)

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मानवीय  वनों में खर पतवार नहीं होती हैं बेटियां न ही होती हैं छुईमुई या बेहया न होती हैं कुकुरमुत्ता  न ही बेल लता या सरपुतिया न ही उगती हैं किसी  जंगल में बेहिसाब बिना उगाए न ही ईंट गारे पत्थर से  बनाई जाती हैं वे भी पैदा होती हैं उसी तरह  जिस तरह पैदा होता है घर का चिराग  बेटियों के पैदा होने में भी लगता है मां का  हृदय हड्डी रक्त और मांस वो भी लेती हैं अपना समय कोख में जितना लेता है घर का चिराग बेटियां ही लाती हैं घर में रोशनी  जो नहीं ला पाता बिना बाती  का चिराग Written by  भारती संजीव श्रीवास्तव

"होली कैसे खेलूँ"(कविता)

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मेरा मनवा बड़ा उदास, होली कैसे खेलूँ भैया, नीरव ललित माल्या मेहुल नित्य करें अय्याशी, किन्तु अन्न उगाने वाले लटक रहे है फांसी, खाँसी रोक रही उल्लास, होली कैसे खेलूँ भैया।  हम अपने-अपने घर-आँगन खेल रहे है होली, उधर प्रहरी सीमाओं पर झेल रहे है गोली, बोली इक विधवा की सास, होली कैसे खेलूँ भैया।  घोर गरीबी लगा रही है गाँव-खेत के फेरे, रूखे-सूखे सारे चेहरे चिंताओं ने घेरे, मेरे औंधे पड़े हुलास, होली कैसे खेलूँ भैया।  आशंका सी जाने कैसी पनप रही है जन-जन में, आक्रोश, संकोच और है उद्वेलन तन-मन में, वन में फुले नहीं पलास, होली कैसे खेलूँ भैया।  हाथ दराँती खेत जा रही बालक लिये बगल मा, पशुओं का चारा लाएगी दुबली-पतली सलमा, बलमा खेल रहा है ताश, होली कैसे खेलूँ भैया।  Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बुद्ध के रंग में रंगें हम"

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अकुशल द्वेष ईर्ष्या  घृणा गर्व है गोली, त्याग चतुष्टय-दोष,  बोलो मीठी बोली बुद्ध वचन से भरे,  तुम्हारी ज्ञान-झोली संग रंगमंच पर  झूमी-झूमी नाचे टोली भक्तिरस में भींगी,  करें हँसी-ठिठोली उमंग-तरंग और  रंगों का पर्व है होली। Written by  गोलेन्द्र पटेल

"राजनीति"(कविता)

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राजनीति में कभी इधर कभी उधर  हो रहे हैं, चुनाव  आये  हैं  नेता  इधर  उधर  हो  रहे  हैं । कैसे   सिद्धांत, कैसी   पार्टी, कैसी   नैतिकता, इधर  नहीं   मिला  टिकट  तो  उधर  हो रहे हैं । पता ही नहीं चल रहा है कौन किस पार्टी में है, सुबह किधर,दोपहर इधर,शाम उधर हो रहे हैं । जब तक उधर थे भ्रष्ट, इधर आए तो सर्वश्रेष्ठ, दल  बदलूओं  के चरित्र  इधर  उधर हो रहे हैं । अब  भेड़ चाल भी चलने  लगे हैं ये नेता सारे, एक   चला  जिधर   सभी   उधर   हो  रहे  हैं । मुद्दे, प्रतिबद्धता, सिद्धांत  सभी  गौण हो गए, जिधर   दिखे   मलाईदार पद, उधर हो  रहे हैं । देश विकास  की किसको पड़ी, भाड़  में जाए, जो  करें व्यक्ति  विकास, सभी उधर हो रहे हैं । कांग्रेस,भाजपा,बसपा,सपा, माकपा,टीएमसी, एनसीपी और आप  सबमें इधर उधर हो रहे हैं । Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट)

"मूर्तिकारिन"(कविता)

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राजमंदिरों के महात्माओं मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ । समय की छेनी-हथौड़ी से स्वयं को गढ़ रही हूँ । चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी! सूरज को लगा है गरहन लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं । चारो ओर अंधेरा है कहर रहे हैं हर शहर समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव दीये बुझ रहे हैं तेजी से मणि निगल रहे हैं साँप और आम चीख चली -दिल्ली! Written by  गोलेन्द्र पटेल

"मनमोहिनी"(कविता)

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रंगों के खजाने से चोरी , पर्दे यहां रचा  है कबूतर । विजेता होने हेतु हैं मुंहजोरी , बढा नजारा और हावी सफर । कहीं काली और कहीं गोरी , चला पत्थरों  तक भावी  लहर । कृष्णा संग राधा की डोरी , यमुना तीरे है इश्क समंदर । मनमोहिनी  जर्रा -जर्रा  तक की थ्योरी , अंगों के तेवरो में न जहर । राहें गंतव्यों तक अभिसारिका मोड़ी , मस्ती में झील और घर -घर  । नयनों से सुधा को निचोड़ी , नीचे धरा पे लायी अम्बर । बातें रसीली की मछलियां थोड़ी , पहाड़ों तक हो गुदगुदाये तेवर । अब न ख्वाबगाहें हैं लोरी , लम्हें फागुनी और कहाँ पतझड़ ? खुशबू और खुशियां न कोरी , वीरों की मर्दानगी पे भ्रमर । Written by विजय शंकर प्रसाद

"उपवन"(कविता)

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  आज  नभ, में  प्यारी लाली छाई, सूरज, ने अपनी   किरणें, फेलाई तेज़  धूप,  ने ली  बड़ी   अंगड़ाई, बागोंहै कलिया खिली तितलियां। बड़ी  मुस्कुराई  कोकिल  अपनी।  मधुर,  आवाज। से  कोई    गीत। सुनाई, चो  तरफ उपवन में जैसे। हरियाली छाई मीठी मीठी डाली। से  सूखे  पत्तों,  की  खुश्बू, आई, प्रकुति   की   चुनरियां,   लहराई। Written by  नीक राजपूत

"ईर्ष्या की खेती"(कविता)

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मिट्टी के मिठास को सोख जिद के ज़मीन पर उगी है इच्छाओं के ईख खेत में चुपचाप चेफा छिल रही है चरित्र और चुह रही है ईर्ष्या छिलके पर   मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और द्वेष देख रहा है मचान से दूर बहुत दूर चरती हुई निंदा की नीलगाय ! Written by  गोलेन्द्र पटेल