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"मैं पल पल"(गीत)

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फूल नहीं, हूँ खार लिये मैं दिल में तपता प्यार लिये मैं काया की सुंदर नैया औ' यौवन की पतवार लिये मैं साँसों के तारों से अपना मृत्युजाल बुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । कैसा मूरख भरमाया मैं जाने कहाँ चला आया मैं धूप यहाँ झुलसे देती है अगणित पेड़ों की छाया में भट्ठी के तपते बालू में मक्की सा भुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । जब सारा मंजर बदल गया और अस्थि पिंजर बदल गया तो मित्रों का व्यवहार उलट हाथों में खंजर बदल गया  पुष्पों की अभिलाषा लेकर कांटे ही चुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । गीदड़ बना रहे हैं सरहद पर्वत भूल रहे अपना कद कांटेदार झाड़ियों में क्यों छाया ढूंढ़ रहा है बरगद भारत की नियति-नीति पर सर अपना धुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मनहरण घनाक्षरी"(कवित्त)

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कैसा ये अजीब रोग,कैसे मतिमारे लोग। पौष्टिक आहार भोग,ढूंढ़ रहे गैया में। मुस्कुरा के मंद-मंद,गढ़ रहे व्यर्थ छंद। खोज रहे मकरंद, ग़ैर की लुगैया में। रहा नहीं दया-धर्म, बेच खाई हया-शर्म। डूबने के हेतु कर्म,पोखरी-तलैया में। आफ़तों से खेल रहे, मुसीबतें झेल रहे। ख़ुद को धकेल रहे, शनि जी की ढैया में। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'