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"पिता"(कविता)

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घर का मुखिया  होता है पिता।  घर परिवार का होता है रचयिता।। ये घर के बोझ को कम  करते है सारा दुख  के समय में ढाल  बनके परिवार  को देते हैं सहारा।। ये बाहर  से लगते  हैं  सख्त  लेकिन  अंदर  से हैं नरम।  अपने बच्चों पे जब मुसीबत  आती है तो सबसे पहले लगाते हैं मरहम। । अपने घर परिवार के खातिर खुद  की  इच्छाओं  को करते है कुर्बान।  कम है जीवन  मे इनकी जितना भी करे गुणगान। । मां देती है संस्कार।  तो पिता  सिखाते हैं क्या है जीवन  का आधार। । ये घर-परिवार  के प्रति  रहते हैं ईमानदार।  हर पल दुआ  करते हैं सदा हरा रहे मेरा परिवार। । ये जीवन  के बगिया की रक्षा करते हैं बनके माली। ये अपने बच्चों  के जीवन  में लाते हैं  सदा खुशहाली। ।  पिता अपने बच्चों के जीवन  को करते हैं  रोशन।  पिता की आशीर्वाद  से ही बच्चों का सफल  होता है जीवन। । बच्चों को ये देते हैं जीवन मे ज्ञान। परिवार  की रखते है सदा मान।। पिता ईमानदारी से करते हैं अपना काम  पिता के चरणों  मे मेरा सत् सत्  प्रणाम। । Written by  यज्ञसेनी साहू

"पिता कि शान"(कविता)

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ज़िन्दगी के हर हिस्से से पहचान बहुत  है। पिता  से जीवन में शान और सम्मान  बहुत है। -------------------------------------------------- पीता हर आपदाओं से पहले पहचान जाता है। वक्त के हर घटनाओं से प्रभावित  है, इस लिए  जान जाता है। ------------------------------------------------------ पिता ओ कोहिनूर हीरा है,हर पल ऊजाला देता है अंधेरा तो इर्द-गिर्द  भटकता नहीं हर संकटों को  सम्भाल लेता है। ------------------------------------------------------- कभी  अंगुली  को पकड़ें कर चलना सिखाया।  कभी  आपनी डांट फटकार से सही  रास्ता  दिखाया। --------------------------------------------------------- कभी टूटते हौसले के नया हौसला दिया । कभी बड़ी से बड़ी गलतियों  को माफ कर दिया।  --------------------------------------------------------- धूप गर्मी  बरसात से लड़ता  रहा परिवार के लिए।  परिवार से ही परिवार के लिए दूर चला गया परिवार के लिए।  ------------------------------------------------------- पिता की अहमियत कभी  भी कम नही  होता । दर्द  को झेलते  हुए भी आखें  नम नहीं  होता। -----------------------------------

"पिता बच्चों के सामने मुस्कुराता है"(कविता)

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 जिम्मेदारियों की भट्टी में  सुलगते हुए भी , पिता सदा बच्चों के सामने मुस्कुराता है  हर मोड़ पर दिल पर  पत्थर रख, अपनी ख्वाहिशों को  दफन करके भी  बच्चों के सामने मुस्कुराता है।  खुद चाहे अनपढ़ हो  बच्चों की तालीम के वास्ते  तपती धूप में भी मुस्कुराता है।  चाहे जितना भी टूट जाए मगर  परिवार के लिए बरगद सा निडर  सदा ठंडी छांव देता हुआ  भी मुस्कुराता है। रातों की नींद को तिलांजलि देकर अपने आंसुओं को पोछ लेता है। पिता अपने बच्चों के खातिर हर सुबह हिमालय सा खड़ा होकर बच्चों के सपनों को  नए पंख देता है। स्वयं फटे हाल कपड़े और जूतों में सुलगती सड़कों पर चलता है। सांझ ढले बच्चों के लिए नए कपड़े और जूतों की  सौगात देता है। कभी नीम से कड़वा बन गलत राह पर जाने से रोकता है। पिता अपनी सारी उम्र बच्चों के नाम कर देता है । Written by  कमल  राठौर साहिल

"पिता - एक समर्पित देव मानव"(कविता)

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"सभी पिताजन को समर्पित" विष पीकर सदा अमृत ही बांटा है सुख देखकर सभी का दु:ख छांटा है उफ़ कभी होठों पर ना आने दिया पग में जब भी चुभता रहा कांटा है द्रव्य की आपूर्ति हो तुम्हीं केवल प्रेम की प्रतिमूर्ति हो तुम्हीं केवल रास्ते में पड़ा कांटा है चुन लिया पथ-प्रदर्शक बने हो तुम्हीं केवल जब भी धूप ने मन व्याकुल किया शज़र बनकर छाँह है तुमने दिया खुशियों से भर दिया दामन हमारा दिल से आशीष जब भी तुमने दिया भार कितना भी सब सहे  कंधे तुम्हारे ख़्वाब हैं पूरे हुए हाथ से सारे तुम्हारे स्वयं के बदन पर न हो भले एक कुर्ता पर हमारे सूट ख़ातिर ज़ेब अपनी न निहारे कुछ कह रहीं हैं झुर्रियां चेहरे पर कहानी वक्त से पहले ही देखी घट गई सारी रवानी बस यही आशा खुशहाल हो जीवन हमारा आ गया उनका बुढ़ापा खो गई सारी जवानी कितने खुदगर्ज़ बुढ़ापे में न बन पाते सहारा रहे मशगूल शान-ए-शौक़त वक्त को न निहारा धिक्कार हम पर थोड़ा सुख हम दे न पाते जिसने किया सारा समर्पण उसी से करते किनारा Written by ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"फादर्स डे"(कविता)

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साहित्य सागर के गहरे तल में उतरने के बाद कुछ शब्द मिले ,जो सिर्फ मेरे आदरणीय पिता जी की यादों में समर्पित कर रही हूँ। 💐💐💐💐💐💐💐💐 वट तरु सम दृढ़ पूज्य पिताजी अनमोल और बहुमूल्य पिताजी सब कुछ खुद ही तन्हा सहते नहीं बताते कुछ भी पिताजी स्वयं धूप में खड़े अडिग और हमको बनते छांव पिताजी बच्चों की हर मांग पूर्ण कर खुद अभाव को सहते पिताजी जीवन के भंवरों में फंसे हम कुशल नाखुदा बने पिताजी जीवन के हर विकट वार से घाव का मरहम बने पिताजी उनका है स्थान उच्चतम मगर बहुत ही विनम्र पिताजी सदा सत्य पर अटल और मिथ्या से लड़ते सतत पिताजी हो शरीर में या हो मन में हर पीड़ा हर लेते पिताजी भुला न पाऊंगी इस जन्म में आपका मैं उपकार पिताजी द्रवित लोह सम अनुशासन में बद्ध आपका प्यार पिताजी आपके द्वारा रोपित पौधों से आज चमन बन गये पिता जी Written by  वीना उपाध्याय

" 'पापा' तुम भी इंसान हो"(कविता)

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तुम कहते क्यों नहीं  अपनी व्यथा बताते क्यों नहीं  अंतस मन की ज्वालामुखी को दबाते क्यों हो  खुद को उस अग्नि में जलाते क्यों हो  माना की तुम मर्द हो मगर क्या तुम्हें दर्द नहीं होता ? होता है दर्द , कराहते हो , तड़पते हो और भीतर भीतर खोखले होते हो तुम  भले ही इल्म नहीं है इस बात का  मगर मुझे पता है तुम पीड़ित हो  ये कैसा दंभ है या वहम है कि तुम मर्द हो  तो सहज सरल इंसान नहीं हो सकते  मर्द से पहले एक जीव हो हाड़ मांस का पूतला हो  बिल्कुल हमारी तरह  बस बाहरी संरचना मुझसे भिन्न है  मगर तुम मेरे जैसे ही हो  वो तमाम भावनाएं और संवेदनाएं हूबहू वैसे ही महसूस करते हो  मैं तुम्हारे कंधे पर सर रखकर उतार लेती हूं  तुम भी अपनी परेशानी कह दो ना  मुझमें अधिक है सहनशक्ति  यकीन मानो  तुम्हारे मन का बोझ सहन कर सकती हूं  वहन कर सकती हूं  तुम्हारी ऊर्जा लेकर पली बढ़ी हूं  तुमसे ही सीखा है जंग जीतना  ज़ख्म सहकर मुस्कुराना  और मुस्कुरा कर गम को हवा में उड़ाना ...... बांट लो ना थोड़ा थोड़ा  मेरे हिस्से का दर्द चुराने वाले  थोड़ी तकलीफ़ दे दो ना मुझे  कद तुम्हारा छोटा नहीं होगा  सर मेरा कुछ हल्का होगा  वो मुस्क