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"पहले मुझे लगता था……पर अब लगता है"(लेख)

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  पहले मुझे लगता था……पर अब लगता है ……………………………………………………             समय परिवर्तनशील है,इसके साथ सम्यक् जीवन यात्रा में अनेकों प्रकार के रास्तों से दो चार होना पडता है। सफर करने के दौरान  मोड,तिराहे और चौराहे भी मिलते है जिनको पार कर गंतव्य तक पहुंचना होता है।एक ओर दुर्दिन के गहराते अंधेरी रात की साया में सहयात्री न होने पर कभी कभी अज्ञात भय ,कभी अपने पैरों को पीछे खींचने के लिए मजबूर करता है तो दूसरी ओर अभीष्ट और आनन्दमयी लक्ष्य मिलने की लालसा लिए हमारी आत्मा,धैर्य बधाॅती हुए भय को निर्भयता से चीरते चले जाते हैं।यह अडिगता कोई साधारण वस्तु नहीं,बहुत विरले लोगों में ही पाई जाती है।अदम्य साहसी व्यक्ति ही दुर्दांत झंझावातों को पार कर अक्षुण्ण अन्वेषक "कर्मवीर" की उपाधि प्राप्त करते हैं ।शाश्वत और सनातन सिद्धान्त ही इनसे संघर्ष करने की प्रेरणा के साथ साथ जीवटता का आनन्द देता है ।यह उत्तेजक परिदृश्य ही अंत में "पहले मुझे लगता था……अब मुझे लगता है" के बीच का अंतर महसूस कराता है और एक ओर प्रारम्भ की अल्प या बिना अनुभव का जीवन और दूसरी ओर अन्तिम छोर पर बृहद और पर्याप्त अनुभव

"यादें पीछा करती हैं"(लेख)

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  यादें पीछा करती हैं  ………………………… "याद" शब्द मस्तिष्क के भीतर उपस्थित स्मृति कोष में विद्यमान होता है। "स्मृति" के साथ "विस्मृति" भी जुडा होता है जिसके कोष में बहुत सी मनुष्य के जीवन में हो चुकी घटनाओं व दुर्घटनाओं के कथानक दफन होते हैं, जो तर्क वितर्क के अवसर पर उद्दीपन स्वरूप स्मृति कोष में स्वतः आकर इतिहास को जागृत करते है ।जो घटनाएँ समाज पर दूरगामी प्रभाव डालती हैं वे "यादों"के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं । ऐसी यादें समाज को चुभन या प्रेरणा के रूप में विद्यमान रहती हैं । हमारा मानना है कि हर व्यक्ति के विगत जीवन की घटनाओं का अपना एक इतिहास होता है जो समय समय पर उकेरे जाने पर प्रस्फुटित होता है।जिन जिन परिस्थितियों से वह अपने जीवन को गुजारता है वो पल पल की परिस्थितियाँ ,यादों के रूप में पीछा करती हैं और अपने साये उसको पीछे खींच ले जाती हैं।बचपन में आनन्द के मीठे फल, यौवन में अस्तित्व के लिए संघर्ष, अधिकार और कर्तव्य के दायरे में रहकर समाज में उचित अनुचित क्रिया प्रतिक्रिया का स्वरूप हमेशा यादों के रूप में विद्यमान रहता है यही

"कांटे भी,बाग की शान"(लेख)

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 कांटे भी,बाग की शान …………………………… "कांटे को काँटा निकालता है,फूल नहीं"। यह कहावत स्वतः ही कांटों के महत्व का बखान करता है।यह सही है जिस फूलों या फलों वाले पेड में कांटे होते हैं वे कम जल सिंचन कर जीवित रहते हैं और उनमें फूल व फल अधिक सुरक्षित होते हैं। चिडियाँ घोसले व मधुमक्खियाँ शहद के छत्ते अधिक लगाते हैं,ऐसे में इन पेडों के महत्व बढ जाते हैं।बाग में घुसते ही इन पेडों पर लगे रंग बिरंगे फूल अपनी अलग शान- बान बनाते हैं ।इन सबके पीछे तर्क यह है कि काँटे अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं । बाग भी वही सुरक्षित अधिक होते है जिनकी बाउंड्री कांटे वाली बेलों या पौधों से युक्त होती है। हमारे जीवन दर्शन में भी यह बात परिलक्षित है कि सुख शब्द ,कष्ट या दुःख के कारण ही सार्थक है।हमारे समझ से विषम परिस्थितियाँ ,व्यक्ति के मस्तिष्क और शरीर को अधिक सक्रियता और सहनशीलता प्रदान करती है जिससे वह अपने जीवन में अधिक परिपक्व और धैर्यवान होता है जो दुख व विषम परिस्थितियों को झेलता है।एक तरफ सुख जीवन को परमानंद से भरते हैं तो दूसरी ओर दुख जीवन की कडुवी सच्चाई और हकीकत के धरातल का अहसास कराते है।हम जब एक

"योग दिवस"(लेख)

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 योग दिवस(लेख) *** कल पितृ दिवस था,आज योग दिवस हर दिन कोई न कोई दिवस ही है। चलिए आज बात करते हैं, योग दिवस की।आज समाज बहुत सजग है,जगह-जगह आज के दिन योग करते लोग मिल  जायेंगे।विभिन्न संस्थान भी  अपनी-अपनी तरह से इस दिवस को मनाते हैं। योग आज के युग में लोगो के मन मस्तिष्क तक पहुँच रहा है।मनुष्य ने न केवल योग सीखा है, ब्लकि  योग को अपने जीवन की दैनिक चर्या शामिल किया है, जो उचित भी है योग के माध्यम से हमारा शरीर स्वस्थ एवं हष्ट-पुष्ट रहता है। निरन्तर योग करते रहने से असाध्य रोगों से छुटकारा भी मिल जाता है।इस भागम-भाग भरें जीवन में सभी क्रियाएँ जटिल हो गई है, जिसका एक कारण मनुष्य का भौतिकता की ओर उन्मुख होना है।सभी भाग-भाग कर अपना काम करते हैं और जल्दी काम निपटाने के लिए वे मशीनों पर निर्भर हो गए हैं।ऐसे में अपने स्वास्थ्य के लिए योग की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक है। आज हम जो योग कर रहे हैं, पूर्व समय में यह दैनिक जीवन की सहज क्रियाएँ थी,जैसे-साईकिल चलाना, सुबह-सुबह स्त्रियों द्वारा चाकी चलाना, दही बिलोना ,मीलों तक पैदल चलना।अब यही सारी क्रियाएँ हम योग में करते हैं, कुछ व्यायाम में आर्थिक खर

"नजरिया बदलिए, जनाब"(लेख)

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 नजरिया बदलिए, जनाब व्यक्तिगत रूप से जहाँ तक हमें  ऐसा महसूस होता है कि इस दुनियाँ को यथेष्ट से समझ पाना आसान नहीं है।कारण देश,काल,परिस्थति के गति अनुसार दुनियाँ में परिवर्तन परिलक्षित होना स्वाभाविक है।अतः एक क्षण हमारे द्वारा दी गई प्रतिक्रिया अनुकूल नजर आती है तो वही दूसरे क्षण उसी कारण के लिए प्रतिकूल हो जाती है।अतः अपने अनुभव का प्रयोग कर अपने नजरिये में बदलाव आवश्यक है।ये दुनियाँ पर्यावरण की दृष्टि से जितनी सुन्दर और सौम्य है उतनी ही परिस्थितिजन्य दुर्गम और असाधारण है।कालान्तर से यदि विचार करें तो हमें इसमें आमूल परिवर्तन दिखाई देता है,यह बहुत असाधारण है।जहाँ तक हमारी समझ है कि हम सरल मानवीय दर्शन को अपना लें तो एक हद तक आनन्द की प्राप्ति से नहीं रोका जा सकता।जैसे : जो नसीब में है,वो चलकर आयेगा।जो नहीं है वो आकर चला जायेगा; अगर जिन्दगी इतनी अच्छी होती तो रोते न आते,अगर बुरी होती तो लोगों को रुलाकर न जाते;भव्य जीवन जीना बुरा नहीं है;पर सावधान,जरूरतें पूरी हो सकती हैं, तृष्णा नहीं ;कभी गुरूर आये तो असलियत जानने कब्रिस्तान का चक्कर लगा लेना,क्योकि वहां कई बेहतर इंसान मिट्टी में दफन

"भगवान श्रीविष्णु की प्रार्थना"(लेख)

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हे भगवान विष्णु आपके नियम इतने कठोर है,जिसका पालन हमारी सहनशक्ति के अंदर नहीं!! हे कमलनयन हमें सहनशक्ति प्रदान करे,सदा सत्य का सहारा लेते रहे हे कमल नयन ऐसी सहनशक्ति प्रदान करे!! सत्य से कभी विश्वास न टूटे,हे विष्णु भगवान हमें ऐसी प्रबल संकल्प शक्ति प्रदान करे!! सदा योगमार्ग पर चलते रहे,हे नारायण ऐसी कला के प्रभाव की शक्ति प्रदान करें!! सदा लोक कल्याण करते रहे,हे गोविन्द हमें प्रबल शक्ति प्रदान करें!! लोक कल्याण से विचलित ना हो,हे गोविन्द हमें ऐसी शक्ति प्रदान करें!! आपने कर्मो के बल पर उपलब्धियों के शिखर पर पहुँचते रहे,श्री कृष्ण हमें ऐसी ज्ञान शक्ति प्रदान करें!!  भगवान श्री विष्णु को हमारी ऒर से प्रणाम और आप हमें आपनी कृपा दृष्टि प्रदान करें!! Written by  सोनू सीनू शर्मा

"घना अंधेरा"(लेख)

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घना अंधेरा भाई की एक आवाज पर,भाई आकर खड़ा हो जाय,उसे भाई कहते हैं और बिना कुछ कहे मित्र समझ जाय,उसे मित्र कहते हैं।जिनके पास ऐसे भाई और मित्र हैं,उन्हें कोई शत्रु घेर नहीं सकता,परेशानी परेशान नहीं कर सकती,गरीबी,मुसीबत सता नहीं सकती।         छणिक लाभ के लिये,अपने भाई को छोड़ना नहीं चाहिये,सम्बन्ध खराब नहीं करने चाहिये।भाई गरीब हो या अमीर,छोटा हो या बड़ा,पढ़ा लिखा हो या गैर पढा लिखा।इस संसार में दूसरा भाई नहीं हो सकता।        मित्रता,गरीबी अमीरी देख के नहीं होती,जाति धर्म के आधार पर नहीं होती।सब मित्र हो भी नहीं सकते,मित्र बनाने की वस्तु नहीं है।मित्र की मित्रता को शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता।मित्र के अभाव में कैसी जीवन यात्रा,कैसा सुख।     आइए,भाई और मित्र को,हमेशा अपनी साँस समझें,जीवन नौका की पतवार समझें,अपना समझें,इनके बिना प्रकाश होते हुए भी जीवन में घना अंधेरा है। Written by  मयंक किशोर शुक्ल वरिष्ठ कवि लेखक साहित्य सम्पादक

"सुपंथ पर चलें"(लेख)

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सुपंथ पर चलें सुपंथ पर चलने के लिये,परोपकारी कार्य सम्पादित करने के लिये,ज्ञानमयी वातावरण बनाने के लिये,एकता अखण्डता को मजबूती देने के लिये,परस्पर प्रेम बढाने के लिये,नयी पीढ़ी को साथ लेकर चलें,उन्हें आगे रखें,खुले मन से अवसर दें।ऐसा करने से घर,परिवार,समाज,देश की तस्वीर बदल जाएगी। अकण्टक जीवन बनाने के लिये,हम सबको अपनी सहन शक्ति और समझ शक्ति को मजबूत करना चाहिये।इसके लिये  हमें अपनी मन इंद्रियों को नियंत्रित करना होगा।द्वेष,ईर्ष्या,स्वार्थ,लोभ का त्याग करना होगा।सोलह कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिये ,आचार्य गुरू के सानिध्य में साधना करना होगा।तभी हम सब अज्ञान रूपी तम को मिटा सकेंगे,परस्पर प्रेम के दीप घर,घर,द्वार,द्वार,मार्ग में जला सकेंगे,लोक मंगल के गीत गा सकेंगे,दूसरों के दुख बाँट सकेंगे,प्रकृति की मोहक सुंदरता की कथाएँ,कहानियाँ, नयी पीढ़ी को सुना सकेंगे। आइये, घ्रणा,हिंसा को अतिदूर कर,अपनी मधुर वाणी से,सद्व्यवहार से,पारदर्शी चरित्र से,घर,परिवार,समाज को नया रूप दें। मानव जीवन में रूठना और मनाना एक क्रम है।कभी बच्चे रूठते हैं,भाई,कभी बहिन,कभी माता पिता,कभी रिश्तेदार और कभी मित्र । ज

"अदृश्य शक्ति"(लेख)

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अदृश्य शक्ति जिसके पास सद् विचारों की पूंजी है।अपने सत्कर्म पर विश्वास है।अदृश्य शक्ति से अटूट रिश्ता रखता है,प्रेम करता है और उसके बताये रास्ते पर चलता है।उससे बड़ा सौभाग्यशाली,और कौन हो सकता है। सच्चे प्रेम के रिश्ते शक्ति देते हैं,साहस देते हैं,सुदृष्टि देते हैं,ज्ञान देते हैं,सुख,समृद्ध,संतोष देते हैं।  इसलिये रिश्तों का मोती,अगर अपनेपन के माले से टूट कर गिर जाये, तो उसे झुक कर उठा लेना चाहिये।उसे साफ करके पुनः माले में पिरो लेना ही समझदारी है। नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी,यह सोना,हीरा,मोती,माणिक हैं और आप सिर्फ एक धागा।अगर आप सबको जोड़कर माला बना लेते हैं,तो आपकी कीमत,उन्ही के बराबर आँकी जाएगी,और अगर आप अपने को उनसे दूर रखते हैं,तो आपका अस्तित्व,मूल्य,पहचान शून्य से न्यून रहेगी।हमें अपने सद् विचारों से नूतन समाज का निर्माण करना है। भारत माता का लाल,अगर शीश झुकाता है,तो अपने माता पिता,बुजुर्ग,गुरुदेव के श्री चरणों में ,राष्ट्रध्वज सम्मान में या देव भूमि के वंदन,अभिनन्दन में।       भारत का बच्चा बच्चा शीश उठा कर जीता है,राष्ट्रहित में जीता है,राष्ट्र के लिये जीता है। आइये,हम सब गर्व से कहे

"ससुर जी"(व्यंग्यात्मक लेख)

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ससुर जी ससुर शब्द सुनने में ही एक अजीब, बेकार शब्द प्रतीत होता है ।पर यही बेकाबू शब्द ससुराल पूजनीय हैं।यह ससुर जब घर में प्रवेश करते हैं तो  प्रधानाचार्य जी से भी बड़ा उनका पद होता है।प्रधानाचार्य जी अपने सीट पर बैठने की इजाजत दे देते हैं, पर ससुर जी के आने पर अपनी सीट पर ही नहीं बैठना है, अजी सम्मान करना है न । इज्ज़त के साथ साथ ससुर जी को एक और ख्याति प्राप्त है ।जीहाँ उन्हें घर के सभी सदस्य वैसे ही समझते हैं, जैसे रद्दी कापी, अब रद्दी पर सभी बिषयों का काम किया जाता है उसी प्रकार ससुर जी भी घर का सारा काम करें और जिसकी इच्छा हो उन्हें बुरा-भला सुना जाये,किसी की नजरों में उनकी इज्ज़त केवल कोल्हू के बैल के समान है। अपने परिवार के लिए जो दिन-रात खटता रहता है।जिसके रहते परिवार अनेक प्रकार की समस्याओं से मुक्त रहता है, परिवार उसको निर्जीव प्राणी समझ लेता है। दोस्तों दुनिया के समस्त ससुर पिता के समान ही होते हैं, वे कभी भी अपने बेटों को, बहुओं को ,पोते को अपनी परेशानी नहीं बताते।यह वही प्राणी है, जो दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह चलता रहता है और शाम को अपने परिवार को ताजा खाना खिलाने हेतु, स्व

"कच्ची डोर तू संभाल"(लेख)

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कच्ची डोर तू संभाल "रिश्ते "ये  शब्द हम सब के जीवन में बड़ा हम हैं मगर उन रिश्तो की डोर कच्ची होती जा रही है शायद चाइना की बनती जा रही है जो  सुंदर है मगर मजबूत नहीं कोई गारंटी नहीं कुछ दिनों पहले आई सगाई की मिठाई भी खत्म ही नहीं हुई कि सुनने में आया सगाई टूट गई कारण जो भी हो आजकल लोगों ने रिश्तो का मजाक बना दिया है हम सब के आसपास न जाने कितने रिश्ते हमने टूटते देखे और सुने होंगे सोशल मीडिया में बातें इतनी आम होने लगी है कि लोग कहते हैं हमें तो FB में देखा कि सगाई हुई या बच्चा हुआ क्योंकि लोग आपस में मिलते ही नहीं सिर्फ फोन से ही रिश्ते चल रहे हैं और फोन के कारण  रिश्ते टूट भी रहे हैं कुछ ऐसा ही रितु के साथ हुआ उसकी सगाई अरविंद से हुई और रितु की स्कूल फ्रेंड कंचन अरविंद के शहर की थी उसने रितु की फोटो जब FB में देखी तो बधाई दी मगर कुछ दिन बाद उसने रितु को अरविंद के स्कूल अफेयर के बारे में बताया  लेकिन अरविंद स्कूल के बाद पढ़ाई के लिए बाहर चला गया था और एक बैंक मैनेजर व समझदार लड़का था लेकिन रितु को जब से पता चला और बात बात मे उसे कहती जबकि अरविंद बताता कि मैं सालों से उससे कोई

"हिंदी भाषा का व्यावहारिक ज्ञान"(लेख)

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हिंदी भाषा का व्यावहारिक ज्ञान हिंदी हमारी पहचान है हिंदी हमारी जान है मान है स्वाभिमान है हर ख्वाइश अरमान है *******आइये कुछ मूल ज्ञान  की ओर चलें। ******* वर्ण: हिंदी भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि होती है। इसी ध्वनि को ही वर्ण कहा जाता है। वर्णमाला: वर्णों के व्यवस्थित समूह को वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है जिसमे 52 वर्ण हैं और इन वर्णों को व्याकरण में दो भागों में विभक्त किया गया है: स्वर और व्यंजन।  स्वर जिन वर्णों को स्वतंत्र रूप से बोला जा सके उन्हें स्वर कहते हैं। इन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस कंठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का ‘न्’, संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर – कृष्ण का ‘ष्’) उसे वर्ण नहीं माना जाता। उच्चारण के आधार पर 10 स्वर होते हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ लेखन के आधार पर 13 स्वर होते हैं, जिनमें 3 अतिरिक्त स्वर होते हैं: अनुस्वार अं, विसर्ग अ: और ऋ व्यंजन जो वर्ण स्वरों की सहायता से बोले जाते हैं उन्हें व्यंजन कहते हैं। हर व्यंजन के उच्चारण में अ स्वर लगा होता है,

"आओ घर - घर ऑक्सीजन लगाएँ"(लेख)

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आओ घर - घर ऑक्सीजन लगाएँ आज चारों ओर अफरा-तफरी है , ऑक्सीजन की कमी  के कारण मौत का तांडव चल रहा है । हर इन्सान अपने शरीर के ऑक्सीजन स्तर की नियमित जाँच कर रहा है, कहीं कमी तो नहीं? यह दोषारोपण का वक्त नहीं बल्कि सबक लेने और संकल्प उठाने का वक्त है । बातें सिर्फ किस्से - कहानी और किताबी ज्ञान तक सीमित न होकर वास्तविकता में होना जरूरी है । कर्मों का फल ही वापस लौटकर आता है यह हम सभी जानते हैं, तो विचार क्यों नहीं करते कि आज कुछ ऐसे कर्म करें जिससे आने वाला कल सुरक्षित हो जाए । बच्चों को अब किताबी नहीं व्यवहारिक ज्ञान हर घर में अपने परिजनों से प्राप्त होना चाहिए जो है 'बागवानी ' की शिक्षा । आइए संकल्प लें घर-घर में बगिया का स्थान बनाएँगे । इससे बिल्कुल फर्क नहीं पड़ता कि आपका घर कितना बड़ा है या कितना छोटा । आपका इरादा कितना बड़ा है यह विचारणीय है । अब तो बस यह अनिवार्य हो कि पौधे तो लगाने हैं हर हाल में । पेड़ - पौधों को अपने परिवार का हिस्सा बनाइए, इनकी देखभाल कीजिए । इसी तरह आप प्रकृति माँ की सेवा कर सकते हैं अन्य कोई मार्ग नहीं ।  ध्यान रहे प्रकृति बरसों से हमें  प्राणवायु मुफ

"निरंकुश न बने"(लेख)

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निरंकुश न बने वर्तमान में,जाने अनजाने जो लोग नशा में,जुएं में,अपराध में,पाप में,कुसंगति में,व्यर्थ खर्च में,परनारी प्रेम में,लोभ में स्वार्थ में,दिखावे में लिप्त हैं।जिससे उनका जीवन नष्ट हो रहा है,परिवार छिन्न भिन्न हो रहा है।        इसका मूल कारण है,कि वे निरंकुश हैं,अपने आगे किसी को मानते नहीं,उनके मित्र,उन्हें सुधरने देना नहीं चाहते।      ऐसे बिगड़े इंसान,जब कभी घण्टे,दो घण्टे या दो चार दिन के लिये,आचार्य,गुरू, पथ प्रदर्शक,सन्त महात्मा के सम्पर्क में आ जाते हैं,तो वे उन्हें स्वच्छता से,प्रेम से,अपने ज्ञान से साहित्य,संगीत,कला,परोपकार,सत्कर्म करने का मार्ग दिखाते हैं।पर नारियों का सम्मान करना,शुद्ध अल्प भोजन,जीवन के नियम संयम में ढालते हैं,योग,व्यायाम,ध्यान का आंतरिक आनन्द रस पिलाते हैं।जो इस कसौटी में खरे उतर जाते हैं,वह सुधर जाते हैं,उनके परिवार में सुख,शांति,यश,वैभव,लक्ष्मी, फिर से वास करने लगतीं हैं।          अवगुण को त्यागने के लिये,महापुरुषों के सानिध्य में,उनकी शरण में,उनकी सेवा में,रहना चाहिये। Written by  मयंक किशोर शुक्ल वरिष्ठ कवि लेखक साहित्य सम्पादक

"राष्ट्रभक्त"(लेख)

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राष्ट्रभक्त चंदन के टुकड़े को,सूर्य की तेज गर्मी में रखा जाय,किन्तु चंदन न तो अपना स्वाभाविक रंग बदलता है और न शीतलता का त्याग करता है।          चंदन के चाहे लाख टुकड़े कर दिये जायें,चाहे पीस दिया जाय,फिर भी वह अपनी शीतलता को नष्ट नहीं होने देता।          ठीक उसी प्रकार भारत का गौरवशाली राष्ट्रभक्त,राष्ट्र रक्षक जवान,सच्चा राष्ट्रप्रेमी के समक्ष चाहे जैसी विषम स्थितियाँ आ जायें, उसे किसी कारणवश अनगिन यातनायें मिलें,चाहे दीवारों में चुनवा दिया जाय,चाहे स्वर्ण मुद्राओं का लालच दिया जाय,किन्तु वह अपने राष्ट्र का,कभी विरोधी होगा,न गद्दार होगा,न अपने राष्ट्र का अहित की सोंचेगा, न राष्ट्र के विरोध में हिंसक बनेगा।         उसके रग रग में राष्ट्र सर्वोपरि है,राष्ट्रप्रेम है,उसका जीवन अपने राष्ट्र के लिये है,राष्ट्र की सुख,समृद्धि,सम्पन्नता को देखने के लिये है,राष्ट्र की विचार धारा को क्रमशः बढ़ाने के लिये है,राष्ट्र को सुसम्पन्न हित नयी पीढ़ी को जगाने के लिये है,राष्ट्र रक्षा हित शहीद हुए अमर क्रांतिकारियों की गाथा गाने के लिये है।         हजारों में सच्चा एक राष्ट्र भक्त होता है और राष्ट्र प्रेमी

"जीवन रूपी कमरे को प्यार से सजायें"(लेख)

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 जीवन रूपी कमरे को प्यार से सजायें यह मानव जीवन जितना सुन्दरतम,आनन्दमय और नियति द्वारा प्रदत्त सर्वोत्कृष्ट उपहार है उतना ही जगन्नियंता ने जटिल भी बनाया है।नाशवान शरीर के साथ भावी वश घटने वाली  हानि, लाभ, जीवन, मरण,यश और अपयश को विधानवश अपने पास रखा है और नौ विकारों(काम,क्रोध,मद,लोभ,मोह,ईर्ष्या आदि दुर्बलताओं) को प्रत्येक के जीवन के साथ छोड दिया है।उसने अदृश्य रूप में ,पर खोजने से परमदर्शनीय  सर्वव्यापकता से अभूतपूर्व,अवर्णनीय आनन्द को सर्वत्र बिखेरा है, इसलिए कि मानव को अनुपम बुद्धि प्रदान कर जीव शिरोमणि बनाया और वह सार्थक प्रयास कर खोजे।अब हमें अपने जीवन रूपी कमरे को प्यार से सजाकर धन्य बनाना है।क्यों न हम इस जीवन रूपी कमरे के दीवारों को छोटे बच्चे के मुस्कुराते हुये चेहरे से भर दें,संवेदना दें दीवारों को,जिनपर कोई मुँह सटाये तुम्हारे न आने तक कोई इंतजार करता है,साथ में पलट कर उन दीवारों को उन उम्मीदों से,जिनसे छूट गई थी"चलता हूँ, कहने की आदत।कमरे की दीवार पर वो थाप देनी होगी जो उस हर टकटकी को आत्मसात कर ले और वे लम्हे और अहसास संजोना होंगे जो कदम कदम पर जिन्दगी के हर आहट को उमं

"रात,तुम कहाँ से आती हो"(लेख)

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रात,तुम कहाँ से आती हो समय तो मुट्ठी में भरी रेत की तरह फिसलती जाती है,तेली के बैल के जीवन जैसी दिनचर्या । बस इस शरीर में जब तक चेतना रहती है,पता नहीं किस मंजिल को पाने बेतहासा दौडता रहता है,पता नहीं कैसा लक्ष्य जिसका अन्त ही समझ में नही आता।अपने से कुछ भी पूछने की फुर्सत नहीं कि मैं कौन हूँ, मेरे इस जीवन का परम उददेश्य क्या है? आखिर परमशक्तिवान ईश्वर ने इस संसार में क्यूॅ भेजा,कुछ तो विशेष बात तो रही होगी।बस। रोज प्रभात होते ही दौडना शुरू कर देता है और जब तक रात नहीं होती,समाप्ति का नाम नहीं होता।सच में निशा !तुम कितनी सहृदय,ममतामयी,शीतल वात्सल्य से पूर्ण हो । श्वेत सितारों से युक्त यह जीनी आसमानी ओढनी से जब तुम सूर्य की तपिश से बचने के लिए अपने सिर पर डालती हो,हे रजनी! उस समय खुद तो लालित्य से पूर्ण लगती हो और उस ललित और निश्छल ममत्व से हमको भी अपने गोद में लेकर इतना मदहोश कर देती हो कि मैं अपनी सारी सुधबुध भूल जाता हूँ, दिनभर क्या हुआ?,कहाँ आहत हुआ? किस ने इस शरीर और आत्मा को शान्ति और किसने अपने पशुता से छलनी किया ?अरी विभावरी ! तुम जब इस नीले सौम्य से गगन में प्रशान्त होकर अपने गो

"दुःख: मानव जीवन का अभिन्न भाग"(लेख)

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 दुःख: मानव जीवन का अभिन्न भाग प्रायः हम सभी के सम्पूर्ण  जीवन का सफर ऐसे मार्ग से गुजरता है जिसके प्रत्येक कण और प्रत्येक क्षण की घटनायें अप्रत्याशित और रहस्य से युक्त होती है,वास्तव में ये सारा जगत दो विपरीत शब्दों से युक्त है जैसे सुख-दुख; लाभ-हानि;यश- अपयश,चोटी-घाटी,प्रकाश-अंधकार इत्यादि । अतः चाहे अनचाहे रूप से ये सभी हर किसी के जीवन का अंग अवश्य बनते है।रही बात,इनके महत्व की, सो दोनों पक्षों का स्थिति समान है, यह ठीक वैसे ही है जैसे दिन का महत्व रात पर और रात का महत्व दिन पर आधारित है,हम लोगों ने भले ही अपनी मनःस्थिति के अनुसार अनुलोम,विलोम से जोड रखा हो।पर इतना तो तय है कि दुःख भी हम सभी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है।                हमारी धार्मिक आस्थायें,दर्शन और प्रेरणादायक गीत और रचनायें सदैव यह शिक्षा देते है कि यदि समय हमारी विचार इच्छा और कार्य के तदनुसार अनुकूल परिणाम न दें तो भी हम सबको अधीर नहीं होना है, बल्कि संयमित रहकर उस कठिन घडी की परीक्षा में खरा उतरना है क्योंकि इसी कालखण्ड में  मनुष्य के चरित्र और पौरुष में निखार आता है,दुख ही सच्चा साथी बनकर हमारी सभी प्रकार की क

"हिन्दी कविता में दलित विमर्श"(लेख)

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 हिन्दी कविता में दलित विमर्श  प्रारंभ से ही दलितों की असीम पीड़ा, संत्रास, छटपटाहट, विवशता हाशिये पर रही है| पग - पग पर उनके साथ अमानुषिक व्यवहार, उनके जीवन का तिरस्कार, सवर्ण सामाजिक खोल में उनको अभद्र गालियाँ एवं दुर्व्यवहार की पारंपरिक अनुबंधित दृश्य समाज की जड़ों में सदियों से फलते फूलते रहे है| यही प्रतिध्वनित संवेदनाएं साहित्य की विभिन्न विधाओं ( कविता, आत्मकथा, उपन्यास आदि) में प्रत्यक्षतः और परोक्षतः अभिव्यक्त हुयी है, परंतु यहाँ भी साहित्य के तल में दलितों की अस्मिता दोलन गति में झूलती प्रतीत होती है| "दलितों द्वारा रचित साहित्य" जिसमें वेदना,स्वानुभूति विद्रोह, मुक्ति और अस्मिता परक रचनाएँ, प्रेम, प्रकृति, सौंदर्यपरक रचनाओं का गुट है तो दूसरी और "गैर दलितों" द्वारा रचित सहानुभूति परक साहित्य ( विद्रोह, वेदना, मुक्ति और ब्राह्मणवादी संस्कार विरोधी रचनाओं ) का गुट है , इन दोनों ही गुटों के मध्य बहुत ही लाजमी व बडा़ अंतर है| "देवेंद्र दीपक" इस प्रकार लिखते हैं कि, " अस्पृश्यता एक अंधा कुआँ है, कुएँ में गिरे आदमी को लेकर चिंता के दो स्तर है| एक