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Showing posts with the label विजय शंकर प्रसाद

"बतकही"(कविता)

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बड़े लोगों की सुनों बातें , कालिखें नहीं कहीं भी पुतवाते । गुरू पे बतकही हीं सुनाते , क्यों ये रूतबा हैं पाते ? सीना चौड़ा किये आते -जाते , अकेले दानी क्या हैं कहलाते ? गरिमा की ये कथा सुनाते , वित्तवासना में हांलाकि अज्ञानी समाते । क्या कहूँ  जनता के नाते , शबरी को प्रभु हैं भाते ! तौहिनी करना हैं ये सिखाते , स़़च़ के सारथी स्वयं को बताते । शिक्षा पे सवालें हैं उठाते , जैसे हो अलबत्ता अंधेरी रातें । बातूनी तो थे सदा इतराते , उपमा दे किसे दोषी ठहराते ? ज्यादा कहने से वही घबराते , जो पसीना जरा भी बहाते । सीता को थे कौन डराते , झूठी पीड़ा क्या रंग जमाते ? Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"बेमौसमी"(कविता)

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बारिशें ख्वाहिशें दे तरसें , रातों में कितने हादशें ? सबेरे भी वहीं फंसें , प्रियतमा ! अब कितना धंसें ? कहाँ नहीं अब नशें , किससे  इश्क की गुजारिशें ? ढूंढा धरा की कशिशें , बेमौसमी चुपके से हंसें । प्यासी नदी किसे कसें , अंगों को क्या डंसें ? भूखें भी यहीं बसें , किससे करें कवि सिफारिशें ? जिंदगी ,किताब़ और नक्शें - मौतों पे क्या तपिशें ? क्या निचोड़ेगी कामिनी रसें , बेवफाओं की अलबत्ता मजलिसें ? स़च़ में महँगी परवरिशें , यही तो आपबीती किस्सें । वादा तो था अर्से , परछाइयाँ से रूबरू फर्शें । कहाँ गिरे कितने शीशें , मिथ्या क्यों परोसा  गुस्सें ? अंगारों से हैं झुलसे , कहाँ मछलियां सही से ? गुलाब़ हेतु चले फरसें , शूलों को कैसे घसें ? कहाँ किसकी है वशें , आखिर चुनौती क्यों अपयशें ? पाना मुश्किल क्यों यशें , साहिलों पे क्यों विषें ? खुदा की लौटाओं फीसें , नियति भी क्या-क्या फरमाइशें ? हवा में क्या बंदिशें , कंजूसी में  क्या नुमाईशें ? चर्चा में हीं घूसें , बादशाहतें भी हमें चूसें । दिमागों में क्यों भूसें, खोटे सिक्कें क्या लालसें ? मधुशाला तक चाहा जिसे , खारा समंदर मिला उसे । अदालतों में भी

"प्रपंची"(कविता)

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 अब तो जारी बारिशें बेमौसमी , खिड़की से झांकती है लड़की । अदा ख्वाब़ में कैदी वहमी , बिना चुल्हा-चौका के कैसे रोटियां पकी ? महंगाइयों में नहीं होती कमी , कुत्तें भी लगाये हैं टकटकी । लौटने दो सूरज की बेशर्मी, चेहरा पे पसीना से धकधकी । रातों की बातें -अंधेरा बेरहमी , हवायें भी दी हमें घुड़की । खिलौना से खेला बचपना अहमी , आग यहीं और चिड़िया चहकी । घोसला से पिंजर तक मौसमी , डरती बहेलिया से हो हक्कीबक्की । चौतरफा साजिशें और  प्रियतमा सहमी , परछाइयाँ भी सखी हेतु रूकी। गुजारिशें सांसों की कहाँ  रस्मी , प्रपंची से विषकन्या  क्या थकी ? कब्रों पे अकेले कहाँ आदमी , फिर भी अलविदा हीं पक्की ! Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"सिलवटें"(कविता)

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देवों द्वारा रचा गया होगा सुहागरातें , फिर आदमी तक आया ये बातें । दुनिया में फिर भी क्यों बहुबातें , सौंदर्यों के पीछे फिसलना ज्ञातें । उमंगों के रंगों को क्या सहलाते , सेजों पे सिलवटें क्यों हैं भाते ? इश्क और वासना पे क्यों सकुचाते , पृच्छा भी क्यों कवि के नाते ? सिक्कों से क्या ये हैं तौलाते , अंधेरा में जिस्म़ पे क्या हालातें ? ज्यों दिलों पे लहरें दरबाजें खटखटाते , फिर आग को कहाँ तक बुझाते ? चंदा की दिशा से  क्या लाते, बादलों के ओटों में  गुमशुदगी पाते। सितारों हेतु गंतव्यता पे हैं सवालाते , जागना नियति तो ख्वाब़ क्या मुस्काते ? अश्कें मिटाने में शब्दों तक जज्बातें , फूलों की पंखुड़ियों को कहाँ गिराते ? प्रियतमा ! तेरी अदा से क्या टकराते , स़़च़ को कहाँ -कहाँ दीवारें हीं झूठलाते ? आखिरी ख्वाहिश़ क्यों नदी में बहाते , समंदर को कैसे पीठें लम्हें दिखाते ? प्यासी मछलियां और पानी की ठाते ,  क्या नहीं तितलियां संग  भौरें   कतराते ? Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"सिसकियां"(कविता)

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आग और अंगराइयाँ में महफिल , सहलाना और पिघलाना क्या खता ? दरबाजा खुला रखा था दिल , सीढियां पे चढके आना-जाना पता । मखमली सेजें और नयना कातिल , नशीली रातों में क्या - क्या आहिस्ता ? अंधेरे में चहलकदमी भी हासिल , कहाँ तक रसपानें और कहाँ तीव्रता ? सिलवटें निशानी तथा फिसला चील़ , गुजरते लम्हों पे क्या - क्या थिरकता ? नोचते जिस्म़ पे सिसकियां साहिल, सुधि कहाँ और क्या लापता ? पर्दा डाला और ठोका कील़ , आईना  स़च़ पे है मरता । प्रियतमा की ख्वाहिश़ कहाँ काबिल , जवानी का सफर कितना अड़ता ? तेरी रागिनी में मैं मंजिल , कांटा पे बढा जुगनू गिरता -पड़ता । जहरों की बू बनाया गाफिल़ , सुधा हेतु तकदीर कहाँ पसरता ? गुजारिशें और बारिशें भी तंद्रिल़ , जिंदा लाशें कौन स्वीकार करता ? लूटना-लुटाना तक छाया आखिर बोझिल , सबेरे सूरज कैसे इश्क भरता ? Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"नजरिया"(कविता)

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किसानी तो नहीं आसानी , गायों की कैसे चोरी ? पकड़ाने पे क्यों आनाकानी , रक्षकों से क्यों सीनाजोरी ? क्या समझा गया पशु -वाणी , कानूनी नजरिया क्या कोढी ? अन्यायी ढोंगी करें मेजबानी , इश्क में काया गोरी । अंधेरी रातें नहीं अनजानी ,  माँ न कभी भगोड़ी । प्यासी चिड़िया क्या अकानी , कहाँ चंदा और चकोरी ? कर्णधारें हैं कितने दानी , किसके हाथों में कटोरी ? अकारण देशद्रोही बताना कहानी , कहाँ खादी कालाबाजारी बोरी -बोरी ? लम्हों की क्या मेहरबानी - शिशुओं के लिये लोरी ! जनता कभी न बेपानी , रोटियाँ हीं कल्पना कोरी । कहाँ अब सही पानी , रानी हेतु क्या घोड़ी ? कुर्सी की जिज्ञासा खानदानी , न कुआँ  तथा डोरी । Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"बाकी"(कविता)

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महंगी होती है रोटियां , थका दिया है जीना । गुलाब़ फेंका हीं गोटियां , फिर फंसी सीधी हसीना । आदमी की भी बोटियाँ , कांंटों ने खुशियां छीना । इश्क की कहाँ टोटियां , चेहरे पे क्यों पसीना ? तवज्जों पहाड़ों की चोटियाँ , जहर बाकी कितना पीना ? सहयात्री बूरका और लंगोटिया , लापता मधुशाला का सीना । अश्कें पीके क्या किया , क्या खाया हरा पुदीना ? झोपड़ी में टूटी खटिया , महबूबा हेतु कहाँ मक्का-मदीना ? खवाब़ में जुदा चिड़िया - आखिर अकेले है हिना ? चंदा देखने में मछलियां , किताबी बातें किसने गिना ? हमारी जिंदगी क्यों पहेलियाँ , मृगतृष्णामयी अंगूठी में नगीना । आग में जली बेटियाँ , भरमाया हमें रखा टीना । ढोंगियों की नहीं कुटिया , संसर्गी कहाँ है कुलीना ? भौकने लगी है कुत्तिया , दुनिया नहीं बलात्कारी  बिना । चूहिया से स्वाहा जूतियाँ , संचिका में लिखाया मीना । दीवारों पे खुट्टी हस्तियां , वहीं पे तो आईना । समंदर में कहाँ कश्तियाँ , साहिलों पे कितना कमीना ? लहरों की क्या अठखेलियाँ , मांझी कहाँ बजाया वीणा ? चिंता में अब गड़ेरिया ,  बढने लगा है तख़मीना । क्या कहें आगे भेड़िया , कौन खरीदारी करेगा पश्मीना ? Written

"स्त्रियां"(कविता)

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कलयुगी माया की झलकियाँ - द्रौपदी पे क्या - क्या बारिकियां ? क्यूँ दी अक्षरशः झिड़कियां , सुधा या जहर कौन -कौन पीया ? कितनी है अब छतरियां , क्या बाँटा या लिया ? पक्षपाती है क्या खिड़कियां , कौन सम्भाला था चुनरियाँ ? माँ हेतु नहीं हिचकियाँ , राजघराना में अपवादें हस्तियां । पात्रता हेतु ही अर्जियां , इतिश्री हेतु भी स्त्रियाँ । पुरूषों में क्या खामियां , बड़बोले हैं अलबत्ता भेदिया ! गंदगी कहाँ नहीं घटिया , लूटने -लूटाने में नदियां । गुलाब़ खिलने की बारियां , तभी तोड़ा आदमी कलियां । कहीं खामोशियाँ या गुस्ताखियाँ , खलनायिका क्या अनुभवी मछलियां ? साहिलों पे न कश्तियाँ , जनता की क्या सिद्धियां ? गर्दिशों में वही चिड़ियाँ , जो जहाजों पे शर्तिया । धरती पे हरी-पीली पत्तियाँ , हवा से बुझा दीया । समंदर तक क्या त्योरियां , बहुरूपिया तस्वीरें कितनी जोड़ियां ? महफिलों में क्या चित्रकारियां , परछाइयों से क्या यारियां ? वादा और इरादा चोरियाँ , कहाँ है प्रियतमा बोरियां ? अपेक्षा और उपेक्षा इश्किया , विवादों में क्यों बस्तियां ? आग फैलना तो सुर्खियां , घृणा भी आखिर भर्तियां । मैदानों में कहाँ घोड़ियां , न्यायी

"फफोला"(कविता)

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जुगनू पे  है दीदा , समीक्षा हेतु अकेले रमा । मर्दों ने क्या खरीदा , रोटियों पे क्या -क्या उपमा ? गुलाब़ की जिद्दी निविदा , मरे ख्वाब़ पे क्षमा । जवानी को किया पोशीदा , चंदा की दूरी पे सहमा । नन्हें तारों पे फिदा , अनुभवों को सहेजें मोहतरमा । इश्क पे नहीं कसीदा , आंसू भी नहीं कमा । अभिव्यक्ति दिलों में संजीदा , फफोला है न थमा । किरदारों से कैसे अलविदा , पता कहाँ है शमां ? कितना आग- धुआं और संविदा - परवानों पे क्या जमा ? बेवफा तो नहीं खुदा , स़च़ पे न तमतमा । बेपानी हो क्या बदा , हरियाली का कहाँ तगमा ? कवि या कविता अलहदा , कहाँ फूलों पे नगमा ? आरोपों पे भौरा- तितली  सजदा ,  कहीं कंपकंपी या ऊष्मा । बोझा आईना तक लदा , कश्तियाँ डूबाने हेतु चकमा । मीरा-राधा कहाँ कायदा , नामों पे कहाँ सुधि सुषमा ? सबेरा तक क्या यदा-कदा , अजनबियों तक क्या सदमा ? दिनचर्या पे क्या बेकायदा , परिंदों तक क्या करिश्मा ? सूरज कहता किसे उम्दा , बंदा का गिरा चश्मा ! मजदूरी में क्या फायदा , बादशाहों तक कैदी हाजमा !! नशा में क्या - क्या अदा , लीपापोती से कौन खुशनुमा ? बदनुमा निशानी न गुमशुदा , पौधा लगाने हैं अम्मा । देना

"कीमतें -2"(कविता)

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पृच्छा किया अजनबी क्यूँ कीमतें , सरोवर में कितना पानी है ? जिंदगी में ठहरें कितने रास्तें , आगे बता कि कौन बेघर है ? बाजारों में कैसे फटा खतें , मछलियों में क्या जहर है ? कहाँ से आखिर आयेंगे फरिश्तें , कमलों को क्या डर है ? कितना रंग हैं यारों बदलते , इश्क और वासना सफर है ? हुस्नों पे क्यूँ  आईना रमते , आग और जिस्म़ समंदर है ! लम्हें क्यूँ नहीं सहमते , क्या खिलौना अम्बर है ? जुल्फों पे कहानियां कसरतें , कीचड़ों में तभी लहर है । परतों पे कितने परतें , ममतामयी आंखों पे कसर है !! अपेक्षा पे क्या सुमरते , उपेक्षा की नाचें घर-घर है !!! Written by विजय शंकर प्रसाद

"माया"(कविता)

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शीलापटों पे शब्दों की मर्माहती काया , न स्त्री और न शापग्रस्तता की निशानी । पता चला कि जुदा कवि की माया , राजनीति तक तो उसकी यद्यपि कहानी । अकेले रहा तो किसकी थी छत्रछाया , कैसा था बुढापा और कैसी उसकी जवानी ? न उसकी प्रेयसी और औरों जिंदगी जायां , न गुलाब़ और न किताब़ में प्राणी । औपचारिकता में बारिशें और छाता लगाया , दया से यशस्वी और कुमारी रातें ज्ञानी । ये कैसा नजरिया और क्यूँ विडंबना समाया , अकेली चंदा और सूरज भी क्या अज्ञानी ? मरी सारी कवितायें और किसने क्या पाया , न राहें खता तो अशेषें क्या अब रूहानी ? परदेशी ही रहा और था आखिर में छटपटाया , मनचलों की महफिल में क्या तौब़ा मनमानी ? बेशर्मी पे आईना  था तो शरमाया , किसे कहूँ मैं राजा की थी रानी ? योगी पे था जो कभी इठलाया , सदा हेतु कहाँ अदा उसकी शैतानी ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"नजारा"(कविता)

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शिकवा नहीं तो कैसी छाया , कहाँ पे फैसला पे फैसला ? खिलौनों से खेली थी कभी , टूटा था तो रोने लगी । जिस्म़ को क्या हो गया , दिल भी कितना है जलील़ ? खाल़ी तेरी यादों की गगरी , इस्त्री भी  निर्दोषता का नमूना । कपड़ा फटता क्या नहीं  है , जरा फटा तो क्या हुआ ? लघुता की चित्रकारी में कौन - क्या प्रभुता से तौब़ा करूँ ? आईना तो नहीं है मिथ्या , नश्वरता पे स़च़ की विवेचना। कीमतों पे नहीं सूची देना , अच्छे दिनों की प्रतीक्षा है । भिखारिनों ने ख्वाब़ को पाया , कहीं पे थी नहीं विषकन्या । सिगरेटों को पीने की अभिलाषा , बीड़ी तो सिलसिला हीं जनाब़ । इसे छोड़ने का वादा था , नदी में मछलियां औरों प्यासी । महफिलों का नजारा महलों में , कुत्ता भौंकने लगा है जागते - जागते । नशा में है स्वामी छलिया , चोरी और सीनाजोरी उसका पेशा । सोना तो पापों की ग्रंथियां , परीक्षा की घड़ियां कैसे नकारता ? अंधेरी रातें बंदीगृहों के जैसे , खिड़की को पर्दा था जकड़ा । दरबाजा भी दीवारों के जैसे , गुलामी और मक्कारी भी वहां । फिर हवा का झोंका आया , बेपर्दगी पे तो झूठी मुस्कानें । आखिर बातें सड़कों पे पसरा , गवाही तो पहले सो गया । उठता तो स

"कीमतें"(कविता)

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चाहता क्या लाशों पे फकीरा , अब क्यों बेपानी कीमतें कबीरा ? जवानी पे किसे दूँ सेहरा , सुधि हेतु क्यूँ पत्ता हरा ! न गड्ढों में पानी सड़ा , यायावर भी तो चरा । कभी झोपड़ियों से हीं धरा , शहरनामा था दिल में ठहरा । कलमकारों ने गढा था मुहावरा , न था नफरतों का पहरा । तभी सीखा इश्क का ककहरा , खाली जगहों पे सूरज उतरा । था मर्यादा का यहाँ दायरा , चंदा भी करती थी मश्विरा । भिक्षुओं पे न था खतरा , माली हेतु तकदीर था बड़ा । महफिलों में सहृदयों का जमावड़ा , रोटियों हेतु कुत्ता कहाँ पड़ा ? परिंदा भी स्वच्छंदता से उड़ा , कांंटों से राही कहाँ डरा ? नदी के किनारे रखा घड़ा , प्रियतमा कहाँ था वहाँ नखरा ? कुआं कचरा से कहाँ भरा , प्यासा भी न था लड़ा ? न्यायी भी न था मरा , अन्यायी का न था पतरा । बावड़ी का देखा था चेहरा , दिखावा कहाँ था आखिर खड़ा ? मंदिरों में भी कहाँ अखरा , लम्हा था हंसी-खुशी से गुजरा ! ! Written by विजय शंकर प्रसाद

"टीसें"(कविता)

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यादों की बारिशें . पत्थरें और शीशें । कितनी हैं ख्वाहिशें , कितनों की गुजारिशें ? कोलाहलें और तपिशें , क्यूँ हमें पीसें ? आईना भी घीसें , इश्क में खीसें । नाकामी मिला जिसें , घृणा की दबिशें । कभी निराशा उसे , ये हैं किस्सें । सिक्का खोटा हिस्से , लाशों पे नवाजिशें । हाशिये तक फंसे , परछाईं  पे पालिशें । नशा क्या विषें , क्या और साजिशें ? कहाँ रोटियां फरमाइशें , कहाँ गुलाब़  टीसें ? कांटों की परवरिशें , नदी की फीसे । सुधामयी अभिलाषा वारिसें - मछलियाँ ! क्यूँ  गर्दिशें ? राहें और नुमाईशें , अजनबी चौराहा हंसें । ये कैसी मालिशें , वासनामयी जिस्म़ हादसें !! निचोड़ी प्रियतमा जलसे , मोड़ें और बहसें !!! रातों में मजलिसें , कातिल निगाहें बीसें । जुगनू  और रहिसें , लहर आग खबीसें । निःशब्दता भी रिसें , मुकामों पे नक्शें । सूरज की तफ्तीशें , फासलें और हदीसें । नागिनें किसे डंसें , समंदर कहें किसे  ? सितारों तक आशीषें , नियति शमां सदिशें । परवाना की रंजिशें , तौब़ा -तौब़ा नालिशें । हांलाकि हैं कशिशें , अदावती क्या कोशिशें ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"सवालें"(कविता)

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जनता क्यों है हारी , क्या न दुनिया प्यारी ? स़च़ की कैसी क्यारी , तितलियों की क्या तैयारी ? चंदा अब किसको मारी , नदियां है किससे हारी ? सवालें क्यों हैं भारी , कातिल नयना क्या न्यारी ? अदालतों की तो बारी , सितारों की कहाँ मारामारी ? प्यासी मछलियां कैसे जुगाड़ी , मांझी क्या है अनाड़ी ? कश्तियों पे किसकी खुद्दारी , परछाइयों तक क्यों मदारी ? दो कौड़ी की लाचारी , अंधभक्ति की करें सवारी । आईने की कहाँ गद्दारी , जुगनुओं हेतु क्या जारी ? निरंकुशता पे प्रियतमा आभारी , सत्ता मानो नयी नारी । विषकन्याओं की क्या उधारी , इश्क - वित्तवासना में क्या-क्या  आज्ञाकारी ? देहों पे तो महामारी , क्यों ठगी और  कालाबाजारी ? कविता क्या है मांसाहारी , निःशब्दता है क्या शाकाहारी ? अकेला सूरज की खुमारी - श्रृंगारों से कशिशें हाहाकारी । निचोड़ी निशानी कहानियाँ सारी , यूं अबला  किसे  पुकारी ? मुक्ति की युक्ति अहितकारी , यातनाओं की क्यों झाड़ी ? दिलों पे सहरा अनिच्छाधारी , क्यूँ  मुंहजोरी की पारी ? क्या निजी और सरकारी , रोटियां हेतु क्या - क्या चमत्कारी ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"घटा"(कविता)

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जनता वेश्या नहीं है राजा -रानी , हांलाकि उपमा खाली क्यूँ  पानी -पानी ? मुग्धता में क्या अता -पता आनाकानी , दिया क्या जिंदगी को कहानी ? जनाजों पे राजनीति तौब़ा-तौब़ा  बेपानी , सहरा की धूमिल़ ख्वाहिश़ बेजुबानी । महलों से निकली मीरा दीवानी , कलयुगी दुनिया तक क्या सयानी ? शतरंजी कारवां से कितना हानि , फकीरों से क्या अपेक्षा प्राणी ? चंदा पकड़ी क्या चिड़िया सुहानी , काली घटा क्या -क्या ठानी ? रूपवती न कभी थी दानी , गुणवती की है आखिरी वाणी ? इश्क नहीं है प्रियतमा गुमानी , आईना और आग क्या कोनाकानी ? स़़च़ को क्यों कहा बदजुबानी , परछाइयों पे बेरूखी क्या असावधानी ? महफिलों में दवा ,मेहरवानी , सावधानी - झोपड़ी में क्या कभी मनमानी ? निशा में किसकी निशानी हैवानी , छतरी ले किया कौन मेजबानी ? मृगतृष्णा की क्यों है खींचातानी , हाशिये पे  मछलियां क्यों अनजानी ? पर्दा हेतु खुट्टी था खानदानी , तानी-भरनी में हिरणी क्या छानी ? सितारों संग क्या अम्बर आसमानी , शूलों पे चलना क्या आसानी ? गुजारिशों से पहले हीं कटानी , गर्दिशों में हरकतें क्या बचकानी ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"व्यथा"(कविता)

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रातें खामोशी में नहीं प्रियतमा , भूखी नारी और व्यथा अनसुनी । दहलाती कहानियां और जिंदा उपमा, क्या चंदा हीं थी बुनी ? क्यूँ आखिर कागजी है रहनुमा , क्या सियासी खेती भी दुगुनी ? जिस्म़ और दिल कहाँ खुशनुमा , दिनों में क्या लाचारी अंदरूनी ? चुना मजहबी तथा जातिवादी शुरमा , गद्दी हेतु ये रमाये  धुनी । छलिया हवा को क्षमा , सिलसिला गद्दारी तो वारदातें खूनी । दागी इश्क कि घृणा बदनुमा , लालफीताशाही में क्या कोंखें सूनी ? महामारी में मिथ्या न अजन्मा , कैसे कहूँ कि सूरज गुणी ? स़़च़ ठगाना तो न थमा , देरी बहाना तो फरियादी अवगुणी ? अन्यायी आग क्या है कमा, ढोती नदियां लाशें क्या बातुनी ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"अभिसारिका"(कविता)

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नारी होने का सपना नहीं आसानी , अभिसारिका का दिल की छाया बोलें । जिस्म़ की सुंदरता की छोड़ों कहानी , बंदीगृहों की व्यथा को हीं लो । सम्प्रति नहीं नामर्दी की बातें पुरानी , नाकामी को छिपाने की मनाही तौलें । साकी को अपनाने की है मनमानी , जरा अंधेरा के रहस्यों को खोलें । सब्जबागें और बहानेबाजी  पे रानी - बेतुका की शर्तें क्यूँ वासनामयी शोलें ? तेरी सखि हारी और इश्क पानी -पानी , सच़ के वास्ते तो अब भी डोलें । फिदा आग पे अश्कें नहीं बचकानी , गवाहें महफिलों तक तस्वीरों के गोलें । खामोशी की आखिरी किताब़ बेमानी , मृगतृष्णा में खंडहरें और क्यूँ महलें ? गुलाब़ और कांंटों से नहीं आनाकानी , रातों में अता-पता ढोती गुलाबी कपोलें । प्यासी नदी और मछलियां  तो तुफानी , जालों में नंगी मरी पे  फफोलें । Written by विजय शंकर प्रसाद

"खलनायकी"(कविता)

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सूरज अम्बर से  समेटने में धरा , चीखने लगी थीं तभी तो अप्सरा । दोपहरी की लू में कितना मरा , न्यायी पे अन्यायी का क्यूँ पहरा ? सायं में अंधेरा की छाया उतरा , नग्ना चंदा पे फिदा सितारा लहरा । दागदारी है कहाँ नहीं प्रियतमा पसरा , रातों की ख्वाहिश़ ने लिया आसरा ! तभी बादलों की निशानदेही भी गहरा , यादों की बारिशों में क्या -क्या उबरा ? महफिलों में क्यूँ मधुबालाओं  का नखरा , आईना और दीवारों पे क्या मुशायरा ? मर्दानगी में आवारगी क्यूँ था अड़ा , घुंघटों को हटा क्या खलनायकी बड़ा ? निर्वस्त्रता और बेपर्दगी में क्या-क्या पड़ा , नगरवधू से कामवासना तक क्या-क्या ठहरा ? रंगों के दायरें में कहाँ घड़ा , मदिरा का नशा में कितना अंधा-बहरा ? बंदीगृहों जैसे कमरों में पानी-बेपानी मरा , जुगनुओं तक परछाइयों से रहा डरा । नदी से समंदर तक जिस्म़ सिहरा , जंगलातें भी सियासी रहा है इतरा । आखिरी सांसों पे सांपें क्या विचरा , सबेरा में नेवलों तक नजारा सड़ा !! साजिशें पे छत्रछाया है क्या जरा , चूहों ने कपड़ा है क्यूँ कुतरा ? परिंदों का हरे-भरे पेड़ों पे जमावड़ा , बहेलियों से मुकाबले क्या उर्वरा ? प्यासी मछलियों हेतु क्या हितकार

"सत्ता"(कविता)

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भूखी नगरी की माया , गांवों तक उसकी छाया । अंधेरा का नाता पाया , जुल्मी मसीहा क्या आया ? आंसू जनता ने बहाया , सड़कों पे भी चिल्लाया । लम्हा-लम्हा तो हुआ जायां , क्यूं उसने है सताया ? जहर भी है पिलाया , प्रियतमा ! ख्वाब़ भी चरमराया । इश्क की बातें दायां-बायां , झूठे दावे की छत्रछाया । छलिया को कितना भाया , क्यूं उसने आग लगाया ? काया की कीमतें लगाया , कालकोठरी में किसे लाया ? गीदरों से हुआं-हुआं कराया , कुत्ता भी है शरमाया । किसने किसको है फंसाया , क्या समझाया और गाया ? सवालों पे सत्ता तमतमाया , स़च़ को क्या भूलाया ? निःशब्दता भी उंगली उठाया , नदी-समंदर भी क्यूं लहराया ? साहिलों पे मांझी कतराया , मछलियां देखते कश्तियां  डुबाया । लाशों पे क्या गुनगुनाया , आईना क्या है मुस्काया ? फूलों तक भी मुरझाया , भौरा क्यूं महफिल जमाया ? माली को हैं ठुकराया , चिड़ियों  की पांखें कतरवाया । संवादें मिडिया पे छितराया , तौब़ा -तौब़ा करके दिल बहलाया । बेपर्दा  हो हमें नचाया , सूरज को आखिर गिराया । रातें ,चंदा ,नवाब़ , अपना-पराया - कहानियों में है समाया । कविता का शबाब़ गड़बड़ाया , अम्बर में बादल छाया । Written