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"मैं"(कविता)

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 मैं कुछ- कुछ ऐसा भी हूँ,  किसी के नज़रों में भला तो किसी कें नज़रों में बुरा भी हूँ  ।  मुझें परखता हैं यहाँ हर शख़्स अपने चश्में से,  मैं जितना उठा तो उतना गिरा भी हूँ  ।। तु ख़ुद की खामियों की वकालत कर,  मेरें मुकदमें का जज् हो जाता हैं,  मैं बेशक मैं हूँ पर थोड़ा सा तेरा भी हूँ  ।।।  यहाँ कौन सहीं और कौन गलत इसका पैमाना क्या,  अगर हूँ थोड़ा सा खाली तो थोड़ा सा भरा भी हूँ  ।।।।  चल अब छोड़ मुझें दुनियादारी का पाठ पढ़ाना,  हां हूँ थोड़ा सा ग़वार तो थोड़ा सा पढ़ा- लिखा भी हूँ  ।।।।।  जला के आता हैं तु जिसे शमशान में, उसके तारिफों के पुल बांधता हैं, दो शब्द बोल मेरें तारिफों के,  थोड़ा हूँ मैं जिंदा, तो थोड़ा मरा भी हूँ  ।।।।।।  मैं थोड़ा बुरा भी हूँ Written by  तनुज कुमार

"मेरें हाँथों मैं मोबाईल होता हैं"(कविता)

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 जब तक मेरें हाँथों में मोबाईल रहता हैं,  मैं भूल जाता हूँ, अपनी बेकारी, अपनी बेरोजगारी,  अपनी नाकामी  ।  जब कभी मैं अकेला होता हूँ, एकांत होता हूँ तो ख़ुद का जीवन सामने होता हैं,  वो उलझा हुआ जीवन, कर्ज में, जिमेदारियों में,  कर्तव्यों से दबा हुआ जीवन,  जब ख़ुद का जिस्म भी भारी- भारी सा लगने लगता हैं, तब मेरें हाँथों में मोबाईल होता हैं, और मैं भूल जाता हूँ सब कुछ  ।।  जब मरना जीनें से ज्यादा सुंदर और सरल लगने  लगता हैं,  जब अंधेरा आंनद और एकांत सकून देने लगता हैं,  जब आगें एक जर्जर पुल और पीछें एक लम्बी खाई जिसे लांघ पाने में जीवन ख़ुद को बौना साबित कर देता हैं,  तब मेरें हाँथों मैं मोबाईल होता हैं  ।।।  जब रात दिन से भी लम्बी और दुःखदाई हो जाती हैं,  जब नींद किसी करवट पे लुभाती नहीं हैं,  जब दिमांग में असंख्य सवालों का अम्बार बिना जवाब के चक्कर लगातें हैं,  तब मेरें हाँथों में मोबाईल होता हैं  ।।।।  कभी कभी मैं सोचता हूँ गर ये मोबाईल न होता तो क्या मैं जिंदा होता? Written by तनुज कुमार