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"उस दिन"(कविता)

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काटा जा रहा था  एक पेड़ उस दिन " विधिवत" अनुमति लेकर। पेड़  के हिलते ही   कई  पक्षी निकलकर उड़े वहाँ से । पक्षी ,जो नही  मांगते  मुआवजा कभी  किसी नुकसान का। उपस्थित सब लोग,देख रहे थे फोटो खींचकर मज़ा ले रहे थे गिरते पेड़ का। किसी का ध्यान नही था  उन विहंगों पर। किसी को नही दिखी उनकी घबराहट उनकी बदहवासी। पर मुझे जरूर  कुछ फीके से लगे  उनके पंखों,डैनों के रंग उस दिन उस मनहूस दिन।। Written by  संतोष सुपेकर

"न जाने कैसे"(कविता)

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 'खुल्ले नही हैं यार, चलो आगे जाओ।' भिखारी ने हाथ फैलाए तो  झल्लाकर  झूठ बोल दिया मैंने और हंस पड़े जेब मे रखे एक-दो -पाँच रुपये के  चंद सिक्के। दिनभर में कितने झूठ बोलते हैं हम?  हम और आप? खुद को सही ,भला साबित करने के लिए चेहरे पर हमेशा  भोलापन ओढ़ने के लिए रोज़ यह पाप करते हैं। इस गफलत में कि कोई नही जानता'फिजियानॉमी'। बचपन मे बोलते -सुनते थे 'झूठ बोलना पाप है' अब न झूठ बोलने से डरते हैं न पाप करने से। 'डरों' की ,लगातार बढ़ती संख्या  के दौर में ये दो डर  न जाने कैसे  हो गए कम? Written by संतोष सुपेकर