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"हिन्दी कविता में दलित विमर्श"(लेख)

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 हिन्दी कविता में दलित विमर्श  प्रारंभ से ही दलितों की असीम पीड़ा, संत्रास, छटपटाहट, विवशता हाशिये पर रही है| पग - पग पर उनके साथ अमानुषिक व्यवहार, उनके जीवन का तिरस्कार, सवर्ण सामाजिक खोल में उनको अभद्र गालियाँ एवं दुर्व्यवहार की पारंपरिक अनुबंधित दृश्य समाज की जड़ों में सदियों से फलते फूलते रहे है| यही प्रतिध्वनित संवेदनाएं साहित्य की विभिन्न विधाओं ( कविता, आत्मकथा, उपन्यास आदि) में प्रत्यक्षतः और परोक्षतः अभिव्यक्त हुयी है, परंतु यहाँ भी साहित्य के तल में दलितों की अस्मिता दोलन गति में झूलती प्रतीत होती है| "दलितों द्वारा रचित साहित्य" जिसमें वेदना,स्वानुभूति विद्रोह, मुक्ति और अस्मिता परक रचनाएँ, प्रेम, प्रकृति, सौंदर्यपरक रचनाओं का गुट है तो दूसरी और "गैर दलितों" द्वारा रचित सहानुभूति परक साहित्य ( विद्रोह, वेदना, मुक्ति और ब्राह्मणवादी संस्कार विरोधी रचनाओं ) का गुट है , इन दोनों ही गुटों के मध्य बहुत ही लाजमी व बडा़ अंतर है| "देवेंद्र दीपक" इस प्रकार लिखते हैं कि, " अस्पृश्यता एक अंधा कुआँ है, कुएँ में गिरे आदमी को लेकर चिंता के दो स्तर है| एक