"तेरे हुस्न के कसीदे पढ़ता हूं मैं"(कविता)

जो अनगिनत है वही गिनता हूं मैं

 तेरे हुस्न के कसीदे पढ़ता हूं मैं।


 जी भर कर भर लो बाहों में अपने

 तू जिसे ढूंढता था वह रहनुमा हूं मैं।


 तेरा शहर जो इबारत पढ़ ना पाया

गजलों का वही उर्दू अल्फाज हूं मैं।


 मेरे शहर की बात ही निराली है

 तुझसे जुदा होकर भी जिंदा हूं मैं।


चूम ले आज की रात पेशानी मेरी

 कल अनकहा सा ख्वाब हू में।

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