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"बाजीगर"(कविता)

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बैठी हूँ आसमाँ तले सामने लहरों का बाजार है, उन्मादित लहरों के दिखते अच्छे नही आसार हैं। उफनाती लहरों से कह दो राह मेरी छोड़ दे, बैठी हूँ चट्टान बन कर रुख अपना मोड़ ले । ज्वार भाटा से निकली प्रचंड अग्नि का सैलाब हूँ, हैवानियत को जलाकर खाक करने वाली आग हूँ। बार बार  पटकी  गयी  हूँ  अर्श  से  मैं  फर्श  पर, बार बार  टूटी  हूँ  टूट  कर  बिखरी  हूँ  मैं। खो दिया  है  सब  कुछ  जिसने  इस  जमाने मे , कभी  न  दम  लगाना  तुम   उन्हें  आजमाने में । गिर जो  गए  जमीं  पर  उन्हें  कमजोर न समझना, ऊंची  उड़ान  की  ये  तैयारी  होगी  उनकी। गिर कर  उठने  वालों  की दिशा  होती कुछ और है, खो कर  पाने  वालों  का नशा  होता कुछ  और है। गिर कर उठने  की  जिसमे  है  हिम्मते  जिगर, वही  है इस  जहाँ  का  दरियादिल  बाजीगर। Written by  मंजू भारद्वाज

"हे नारी पहचान तुम्हारी"(कविता)

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हे नारी पहचान तुम्हारी बड़ी जटिल है, कहीं मौन तू धरा की भांति , कहीं बहती कल कल धारा हो, कहीं अंधेरी रात घनेरी,  कहीं सुबह का उजियारा हो। हे नारी पहचान तुम्हारी बड़ी कठिन है। कहीं तू दुर्गा कहीं तू काली, कहीं राधा मतवाली हो । कहीं वसुंधरा तू धरती की, कहीं तू बहती नाली हो । हे नारी पहचान तुम्हारी बड़ी जटिल है। कहीं कली बन आंगन की तुम, पूरा घर  महकाती  हो। कहीं तुम्हारी शक्ति अनूठी, पूरा  ब्रह्मांड रचाती हो। कहीं तू ममता प्रेम की मूरत, कहीं  दहकती ज्वाला हो। कहीं तू  श्रद्धा कहीं आस्था कहीं तू बिकती बाला हो। हे नारी पहचान तुम्हारी बड़ी जटिल है। Written by  मंजू भारद्वाज

"ये अर्ज हमारी"(कविता)

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हे कृष्ण  मची ये कैसी त्रासदी है,  छीनी गई यहां सासों की आजादी है। चारों तरफ दिख रही सिर्फ बर्बादी है, जागो हे कृष्ण यह  कैसी समाधि है।  भक्तों पर कहर बनकर टूट रही है आपदा , तू कहां बेखबर अनजान बनकर खड़ा।  यह कैसा राक्षस है यह कैसी जंग है,   इसके प्रभाव से टूट रहा अंग प्रत्यंग है।  अदृश्य प्रहार है सदृश्य संहार है,  कैसे लड़े इससे यह मनुष्यता की हार है  । कोई ना बचेगा जब महाप्रलय होगा,     यह रूष्ट प्रकृति का भयानक अभिशाप है । वर्षों से हम कर रहे प्रकृति का अपमान है,  उसे  छुब्ध समझ हमने किया अभिमान है । बलात्कारी हैं हम बलात्कार करते रहे,  प्रकृति को अपने अय्याशियों तले रौंदते रहे । आज प्रकृति ने किया घोर प्रतिकार है,   हवा पानी ने भी लिया आज आकार  है।  बोतलों सिलेंडरों में आज वह बिक रहे,  मच रहा चारों तरफ इसका हाहाकार है।  प्रकृति के प्रहार का सब बन रहे आहार हैं , आज प्रकृति कर रही जग का संहार है।  अब तो आओ प्रभु गांडीव उठाओ तुम,  प्रत्यंचा चढ़ा कर इस काल को भगाओ तुम।  अब और दुख दर्द हमसे सहा नहीं जाता है , तेरे सिवा प्रभु अब कुछ नजर नहीं आता है।  अब तो आओ प्रभु जग का उद्धार करो,  तू

"आर्तनाद"(कविता)

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हे गिरिराज हे गिरधारी, ये कैसी विपदा भारी है। अलख अगोचर ओझल अमित्र ने, किया प्रलय अति भारी है। न शस्त्र रचा न अस्त्र सजा, विगुल आक्रमण का बज उठा। ऐसी आंधी आई जगत में, कितने अपनो का हाथ छूटा। तू ही सृष्टि तू ही विधाता, जग चरणों में शीश नवाता। सुन जन जन का आर्तनाद, तू क्यों नही दौड़ा आता। तूने महाभारत के युद्ध में, था ऐसा इतिहास रचा। अठारह दिनों के प्रहार से था न कोई असत्य बचा। इंद्र ने जब गोकुल में, भयानक कोहराम मचाया था। गिरिराज उठा कर तूने, गोकुल को बचाया था। आज फिर बिलख रही धरा, है चारों ओर हा हा कार मचा। एक बार सुदर्शन चक्र उठा, इस दानव से जग को बचा। हे केशव हे मधु सूदन, शीश नवा करूं अश्रु अर्पण। हे कुंज बिहारी हे गिरिधारी, करती हूं चरणों में पूर्ण समर्पण। Written by  मंजू भारद्वाज

"बाजीगर"(कविता)

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बैठी हूँ आसमाँ तले सामने लहरों के बाजार है, उन्मादित लहरों के दिखते अच्छे नही आसार हैं। उफनाती लहरों से कह दो राह मेरी छोड़ दे, बैठी हूँ चट्टान बन कर रुख अपना मोड़ ले । ज्वार भाटा से निकली प्रचंड अग्नि का सैलाब हूँ, हैवानियत को जलाकर खाक करने वाली आग हूँ। बार बार  पटकी  गयी  हूँ  अर्श  से  मैं  फर्श  पर, बार बार  टूटी  हूँ  टूट  कर  बिखरी  हूँ  मैं। खो दिया  है  सब  कुछ  जिसने  इस  जमाने मे , कभी  न  दम  लगाना  तुम   उन्हें  आजमाने में । गिर जो  गए  जमीं  पर  उन्हें  कमजोर न समझना, ऊंची  उड़ान  की  ये  तैयारी  होगी  उनकी। गिर कर  उठने  वालों  की दिशा  होती कुछ और है, खो कर  पाने  वालों  का नशा  होता कुछ  और है। गिर कर उठने  की  जिसमे  है  हिम्मते  जिगर, वही  है इस  जहाँ  का  दरियादिल  बाजीगर। Written by  मंजू भारद्वाज

"कुदरत के आँसू"(कविता)

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बिलख रही धरती यहां कुपित आसमान है, बिक रहा आज यहां कुदरत का सामान है। हवाएं भी बिक रही जल की धार बिक रही, फल फूल बिक रहे पत्ते की छांव बिक रही। माँ  बाप  बिक रहे  बच्चे  भी  बिक  रहे , सांसे  भी  बिक  रही   बिक रही जान है। दर्शन भी  बिक रहा अर्चना  बिक  रही। , बिक रहा  आज  यहाँ  स्वम्  भगवान है । आदर भी बिक रहा सम्मान बिक रहा  , आँसू भी बिक रहे मुस्कुराहट बिक रही । बिक रहा है आसमाँ बिक रही जमीन है , इंसानियत बिक रही कौड़ियों के दाम है। प्रकीर्ति स्तब्ध है चारों दिशाएं निःशब्द है , इंसानियत  बिक  रही  आज  सरे  आम है । आज कुदरत भी रो रही है अपने परिवेश में, अब खो गयी मानवता अपने इस देश मे । Written by  मंजू भारद्वाज

"जीवन के बदलते रंग"(लेख)

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 जीवन के बदलते रंग आज विज्ञान बहुत ऊंचाई की तरफ बढ़ता चला जा रहा है और मानवता पाताल में  धसती चली जा रही है। सब कहते हैं हम बहुत उन्नति कर रहे हैं पर क्या हम वास्तव में उन्नति कर रहे हैं ।यह चिंतन का विषय है ।प्रकृति के नियम नियमों के विपरीत जाकर हमने उन्नति नहीं की ,अवनति की है ।भगवान की बनाई इस धरती पर प्रभु ने सारी सृष्टि को बहुत ही नियम वध तरीके से स्थापित किया है पर हमने विज्ञान के नाम पर उत्पात मचा मचा कर सृष्टि को तहस-नहस कर खुद को आधुनिकता के  अंधेरे कुएं में धकेल दिया है।   पहले सूर्योदय की पहली किरण के साथ सुबह होती थी ।आसमान में फैली लाली के साथ सूर्य की पहली किरण धरती पर पड़ती थी । सब जाग उठते थे और वह सुहानी सी सुबह और उसकी सुहानी सी धूप,तमाम विटामिनों से भरपूर होती थी ।सुबह की शीतल हवा तन मन की तमाम परेशानियों को अपने साथ उड़ा ले जाती थी । छितिज पर फैली लालिमा में गजब की ताजगी होती है  ।चिड़ियों की चहचहाहट, पेड़ के पत्तों की सरसराहट, फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुगंधित ओर संगीत मय  बनाती है । इनमें हमारे शरीर के रोम रोम को निरोग करने की असीम शक्ति है। दिन भर के मेहनत क

"बेटियों की पहचान"(कविता)

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इकीसवीं सदी के इस भारत से ये प्रश्न है मेरा दे सको तो दो इस प्रश्न का उत्तर  हमें नित्य प्रति कोख में क्यों मारी जातीं है बेटियाँ ? क्यों वासना के चादर में लपेटी जाती है बेटियां? परिवार का बोझ कहार बन  उठाने लगी है बेटियाँ , हर छेत्र में खुद को आजमाने लगीं है बेटियाँ। धरती को रौंद डाला, आसमान भेद डाला , काली दुर्गा का रूप धरने लगी है बेटियाँ। घर की दहलीज से जो कदम निकले न थे , अब शमशान तक जाने लगी हैं बेटियाँ। घर का श्रिंगार थी ,माँ का दुलार थी , पिता की ढाल बन कर सजने लगी है बेटियाँ। खुद कष्ट सह कर  परिवार को हँसातीं  हैं  , नील कण्ठ बन कर  जीने लगी है बेटियाँ। चट्टनों को काटतीं है लहरों की धार से , घर की देहरी की ईंट बनने लगीं हैं बेटियाँ। वहशी दरिन्दों ने जिन्हें किया तार तार है , उन्हें भी जिन्दगी की साँस देतीं हैं बेटियाँ। बोझ समझ कर जिसे तूने मार डाला , आसमाँ से उतरी पवित्र दुआ है ये बेटियाँ। सतयुग से कल युग तक कई बार रुसवा हुईं , फिर भी हर युग की शान हैं ये बेटियाँ। हिन्दू की गीता हैं मुस्लिम की कुरान है , धरती पर उतरी हसीन शाम है बेटियाँ। बेटियाँ न होतीं तो दुनियाँ न होती , कुद

"कलेजे की बेबसी"(कहानी)

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 कलेजे की बेबसी ,,माँ,,,,,,, माँ,,,,,, मै  आरहा हूँ माँ ,,,,,, ,मै आरहा हूँ माँ ,,,,,,,,,,,,चीख रहा था साहिल। उसकी चीख की गूंज ने  दिल्ली के नुमाइन्दों की कुर्सी तक हिला कर रख दी थी। लोक सभा का कार्य कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया था। प्रधान मंत्री जी खुद इस केस को हैण्डल कर रहे थे। उनकी सख्त हिदायद थी कि '' साहिल की फांसी से पहले इस केस से जुड़ी कोई खबर  बाहर मिडिया में  नहीं आनी  चाहिए। '' इसी बात ने  मीडिया में तहलका मचा रखा था कि आखिर ऐसा क्या गुनाह किया है साहिल ने। पेपर ,मैगजीन ,रेडियो ,टी वि सब  एक ही जगह रुक गए थे।पूरा देश साँसे  रोके इस कार्य कर्म की गति विधियों को देख ,सुन रहा था।   पहली बार फांसी का लाइव शो दिखाया जाने बाला  था। ऐसा अनोखा केस न कभी देखा, न सुना गया था। स्तब्ध था पूरा देश ,,,,,,                     दिल्ली के   प्रगति   मैदान में पहली बार मौत का  नजारा जशने आम था। भारत के इतिहास में पहली बार खुले मैदान में फाँसी की सजा दी जा रही थी। लाखों के संख्या में भीड़ जमा थी।  सब की नजरें स्टेज पर लटकते फाँसी के फंदे पर थी और मन  हजारों सवालों के बीच घि

आत्म मंथन

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अपने को खुद से लड़कर इंसान बनाना पड़ता है ,,, जब वक्त तोड़ता सपनों को,  जब राहें तपाती है तन को, ऐसे में अपनी पीड़ा को और बढ़ाना पड़ता है।  हाथों में खींची लकीरों में भाग्य जगाना पड़ता है।  अपने को खुद से लड़कर इंसान बनाना पड़ता है,,,,,,,  हैवानो के घेरे में इंसानों की बस्ती है,  दावानल के बीच इंसानियत कहां बची है,  टूटे तरकस पर फिर से बाण चढ़ाना पड़ता है । गगन भेद कर अपना स्थान बनाना पड़ता है।  अपने को खुद से लड़कर इंसान बनाना पड़ता है,,,,,,,,  क्या बढ़ते कदम वीरों के वापस लौटा करते हैं,  क्या पत्थरों से टकराकर नदियां राहें बदला करती हैं,  जीवन में अपनी पहचान अपना स्थान बनाना पड़ता है।  अंधेरे को मिटा सके ऐसा दीप जलाना पड़ता है । अपने को खुद से लड़कर इंसान बनाना पड़ता है,,,,,,,, Written by  मंजू भारद्वाज

"जिंदगी से एक मुलाकात"(कहानी)

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 जिंदगी से एक मुलाकात "दीपा जल्दी से रुमाल दे यार,,,,,,ऐसे ही लेट हो रहा हूँ। डॉ से भी मिलना है " संदीप ने तेज आवाज में कहा ।। "आई,,,,,,,,,,,,"  कहती हुई मैं  जब तक  प्रेस  से रुमाल सूखा कर ले कर आई ।तब तक संदीप गाड़ी लेकर निकल गए ।दुनियां इधर की उधर हो जाये पर ये  जनाब एक मिनिट लेट नही हो सकते  । मैं भी क्या करूं चार दिनों  से लगातार बारिश हो रही है , कपड़े सूख ही नहीं रहे हैं ।  कई दिनों से धूप  का नामोनिशान ही नहीं है। मुझे संदीप पर बहुत गुस्सा आरहा था  ।  वैसे ही  आज  मूड बहुत खराब था कुछ भी अच्छा नही लग रहा था । मन बहुत भारी हो रहा  था ।मैं कुछ समय के लिए  सब से दूर एकांत में कुछ पल  खुद के साथ रहना चाहती थी । सब काम यूँही  अधूरा छोड़ कर  मैं  छत पर चली गई ।  हल्की बूंदाबांदी हो रही थी पर उसकी परवाह किये बिना मैं छत पर जाकर काफी समय तक आँखें बंद कर  खड़ी रही । मेरे अंदर के तूफान  से आहत मेरा अशांत  मन शान्त होने का नाम ही नही ले रहा था।             कल शाम जब से बिमला दीदी  से मिली  । मन किसी काम में नहीं लग रहा था। रात भर  उनका उदास  बुझा- बुझा चेहरा बार -बार आँखों

"जल है मेरी आस्था"(कविता)

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ज ' से  जग है 'ल'  से  लय  हैं जग की लय है  कल कल धारा, मधुर दिव्य संगीत बनाकर   प्रभु ने  इसे धरती पर उतारा। बूंद बूंद में आस जीवन की, अमृत मई ये पावन धारा, सुनकर दिव्य संगीत मधुर, झूम रहा है  कुदरत सारा । धरती पर  है सागर गहरा , देता हिम पर्वत पर पहरा, नहर नदी नल झील सरोवर , सब में जीवन बनकर ठहरा। जल बिन प्यासी धरती होगी, ना बादल धरा पर बरसेगा, इस धरती का जीवन भी, पल पल जीवन को तरसेगा ।   जल ही सृष्टि का उद्गम है , जल ही है प्रलय का शंखनाद , अब तो जागो जग के राही,  जल ना बन जाए अपवाद । इसीलिए हे मानव तुम भी , प्रकीर्ति का सम्मान करो , प्रकीर्ति ने जो दिया हमे है,  उसका न अपमान करो। जल है मेरी आस्था, जल ही मेरी प्यास, जल बिन इस जीवन में, नही आ सकता मधुमास। Written by  मंजू भारद्वाज

"नशा इश्क का"(कविता)

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इश्क के लम्हों से जब गुजरती है जिंदगी,  हर मौसम को खुशगवार बनाती है जिंदगी , प्यार की होती है कौन सी उम्र यारों , हर उम्र में अपनी तलब दिखाती है जिंदगी , अब तो हर उम्र है  मयखाना शराब का,  हर पैमाने को शिद्दत से भर्ती है जिंदगी , प्यार किसी प्रेमी का मोहताज नहीं होता , इसे हर रिश्तो से  उलझती  है जिंदगी,  चढ़ती उम्र हो या उतरते जीने का सफर , आशिके  इश्क का एहसास कराती है जिंदगी,  कभी सम्मान दे मदर टेरेसा बनाकर , कभी मजनू बना लहूलुहान कर जाती है जिंदगी,  अपने इश्क में जरा विचारों की इतर मिला लेना ,  फिर तबीयत से आशिक बनाती है जिंदगी , प्यार किसी उम्र किसी रिश्ते का मोहताज नहीं , अपने असली तत्व से मिलाती है जिंदगी,  एहसास ए प्रेम में भगवान भी झुक जाते है, भक्त का   भगवान  भी करते  है बंदगी। Written by  मंजू भारद्वाज

"चिर चिर नूतन होए"(लघुकथा)

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बात 1981 की है । विदाई का वक्त था।घर का माहौल बहुत भावुक था।सब की आँखें भरी हुई थी।पापा से गले लग कर मैं रो रही थी।पापाने गले लगाते हुए भरे गले से कहा। " बेटा सदा खुश रहना और हमेशा याद रखना " चिर चिर नूतन होए " हमेशा इसे याद  ही नही रखना बल्कि अपने जीवन मे उतारने की कोशिश करना । यही जीवन का गूढ़ मन्त्र है।" पापा सदा से मेरे आदर्श रहे है।उनकी कही हर बात मेरे लिए अनमोल रही है । पर  उनकी कही इस बात की गूढ़ता, इसका महत्व मुझे उस वक्त समझ नही आया ।  विवाह के वक्त मैं अठारह साल की थी।कुछ उम्र की मासूमियत थी तो कुछ अनुभव की कमी । पापा की कही बात का अर्थ मैं समझ नही पाई थी पर वो पंक्ति सुनने में बहुत अच्छी लगी थी ।इसलिए मेरे जेहन में कहीं अंकित हो गयी थी । उसे मैंने डायरी में लिख रखा था । हर रोज अच्छी अच्छी  साड़ी पहनना ,अच्छे से तैयार होना  । मेरी समझ से शायद पापा के कहे शब्दों का  यही अर्थ  था । मैं भरे  पूरे  सम्पन्न परिवार में ब्याही गयी थी । ससुराल में बहुत लाड़ दुलाड़ ,औऱ सम्मान मिला । कुछ वर्ष तो पंख लगा कर उड़ गए ।कुछ वर्ष  जिम्मेदारियों के भेंट चढ़ गए।धीरे  धीरे जीवन  में

"ख्वाइश और औकात की जंग"(कविता)

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अरमानों की कश्ती में मत बैठ मुसाफिर, औकात की पतवार तू ना चला पाएगा। टूट कर बिखर जाएगी कश्ती तुम्हारी, उस पार तू ना उतर पाएगा।।। जिंदगी जंग है जंग का सिपाही है तू, यहां सब कुछ हार कर ही जीत पाएगा।।।।।।। ख्वाहिशें आसमान चूमेंगी तुम्हारी, तेरे पांव में औकात की बेड़ियां होंगी। कर्ज मर्ज फर्ज का झूला सजेगा, जिंदगी भी उसके पायदान पर होगी । शिकन पेशानियों में दिख जाएगा, यहां सब कुछ हार कर ही जीत पाएगा।।।। कुछ पाने की तमन्ना में सब कुछ खोकर, पाने का सुख तू न उठा पाएगा। खोने का दुख इतना गहरा होगा ,  तमाम उम्र उससे ना ऊभर पाएगा । क्या खोया क्या पाया इससे उभर,  यहां सब कुछ हार कर ही जीत पाएगा।।। चांद को पाने की तमन्ना लिए, लहरों पर रास्ते न बना पाएगा। चांद तारों से भरी महफिल में भी तू, खुद को हमेशा अकेला पाएगा। अनजानी है इस मंजिल की राहें, खुद को खो कर ही वहां तक पहुंच पाएगा ।।।।। अग्नि पथ है ये जीवन की राहें, अग्नि पथी हो कर ही चल पाएगा। ख्वाइशों की डोर न लंबी कर इतनी, औकात के आगे तू न संभल पाएगा। ये जीवन जंग है ख्वाहिश और औकात की, यहां सब कुछ हार कर ही जीत पाएगा।।।।।।।।।। Written by  मंजू भारद्

"कशिश तेरे प्यार की"(कविता)

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 ख़ामोश अधरों की कहानी आंखें बयां करती रही, दर्दे  जिगर का   इंतहा नीर  छलकाती रही । हर बूंद पर दस्तक  दे रहा था एक शक्स, भूल कर सारा जहां मै लिपट गई देख उसका अश्क। लबों की सुर्ख़ियत पर नाम था उस श्ख्स का , लहराते हर केशों पर  इल्ज़ाम था उस शख्स का। सांसों के सरगम में तरंग थी उसके प्यार की, धड़कने बता रही थी  कहानी बीते बहार की। प्यार का मेरी वफ़ा का वो एक हसीन अहसास था, कैद दिल में हर वो लम्हा जब वो मेरे पास था। जानती हूं मै कभी हमें न भूल पाओगे, कशिश है मेरे प्यार कि तुम  लौट कर फिर आओगे।। Written by  मंजू भारद्वाज