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Showing posts from April, 2021

"तकलीफ़"(कविता)

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 जीवन रफ्तार से चलता है तो  कोई किसी के लिए नहीं पलटता है हादसाऐं  सड़क पर होती है और  जीवन दम तोड़ देती हैं।  कोई फंसना नहीं चाहता और पीड़ित को नहीं उठाता है कराहती जीवन पुकारती है उन्हें  जो देख चली जाती हैं  कैसे हृदय पत्थर होता है ? जब कोई इतनी तकलीफ़ में होता है हादसाऐं एक के साथ होती हैं पर जीवन राख अपनों की होती है यदि एक तकलीफ सुन ली जाती है तो ही जीवन ज्योत पुनः जाग्रत हो पाती है कल का भविष्य कोई नहीं जानता है आज वो है वहां तो शायद कल हम भी फिर भी क्यों, कोई भी देखकर भी नहीं पलटता है। Written by  प्रिया प्रसाद

"व्यथा: मध्यम वर्ग"(कविता)

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 आजकल के देश के मु्द्दों पर मेरे विचार। हड़ताल न होने देना,एक हड़ताल लील जाती रोजी रोटी कितने परिवार। राष्ट्र अहित होता, सम्पत्ति का नुक़सान अमीर देकर टैक्स मुक्त गरीब न देकर हो मुक्त। फंस जाते हैं आप हम जैसे मध्यम वर्ग जिनसे न उगले बने न निगले बने। पिस जाते ज्यों अनाज संग घुन हल न कोई पाते न चैन न राहत। देश ही है परिवार हमारा देश हित सर्वोपरि हमारा नारा।   संग साथ बैठकर सुलझा लो हर समस्या अपना वतन आजाद,न बुनों नये जाल। कितने वीर सपूतों ने गंवाएं प्राण तब जाकर पाते ये आजाद श्वास। स्वार्थ त्यागो सोचो जनहित घर फूंक तमाशा करने वालों। वीर सपूतों से सीखो  सबक जान हथेली पर रखकर चलने वालों से। वीर देश की तुम हो सन्तान रखना ऊंचा सदा भारत का भाल।। Written by श्रीमती कमला मूलानी

"अपनी आंखों से देखा है"(कविता)

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 रिश्ते तार-तार होते अपनी आंखों से देखा हैं शमशान गुलजार होते अपनी आंखों से देखा राजनीति  में नाइतिफाकी  स्थाई  नहीं  होती दुश्मन भी यार होते अपनी  आंखों से देखा है इश्क जान पहचान वाले से हो कोईजरूरी नहीं अजनबी से प्यार होते अपनी आंखों से देखा है यह सच है भयावह शब के  बाद सहर होती है पतझड़ में बहार होते अपनी आंखों से देखा है इंसान  अब कहां  रहा नैतिक  मूल्यों  पर खरा इकरार से इंकार होते अपनी आंखों से देखा है जरा सी गफलत के दुष्परिणाम भुगतने होते हैं जीत  से हार  होते  अपनी  आंखों  से  देखा है Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट )

"मुक्तक"

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कृष्ण से प्रेम कर राधिका हो गई ! साधना सिद्ध कर साधिका हो गई ! मेरे तन में समाई है प्रकृति से वो! पूज्य अंगुलि मेरी अनामिका हो गई ! राम के भक्त प्यारे हनुमान हैं ! रुद्र अवतार शिव के हनुमान हैं ! जन्म देकर हुईं धन्य मां अंजना ! केसरी के नन्दन वो हनुमान हैं!  चैत्र नवमी को जन्मे थे श्री राम जी ! काटे जन जन के दुःख थे श्री राम जी ! मैं हूं करता नमन मर्यादा की प्रतिमूर्ति को ! मेरे तन मन हृदय में हैं श्री राम जी ! Written by  आशुतोष मिश्र 'सांकृत्य'

"उलझन"(कविता)

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 कैसे कहूँ का से कहूँ उठ रहे जो भाव मन में जल रही जो आग तन में प्रीत की मीठी चुभन मैं और एकाकी विरहन मैं दे बता कैसे सहूँ कैसे कहूँ का से कहूँ बढ़ रहा पल-पल अँधेरा घुट रहा है साँस मेरा कैसी आशंका ने घेरा कब न जाने हो सवेरा कब तलक ऐसे रहूँ कैसे कहूँ का से कहूँ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"जिन्दगी का दौर बन्धु"(कविता)

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पानी का बुलबुला है,  कब फूट जायेगा।  जिन्दगी का दौर बन्धु  लौट के ना आयेगा।  बोयेगा जो बीज मानव  वही फल खायेगा।  पेडो को काटो ना  नहीं तो पछतायेगा।  कुदरत से प्यार करले  काम तेरे आयेगा।  इंसान जो इंसान से  भाई चारा बढायेगा।  दुख सुख साथ मिलकर  पल में मिट जायेगा।  जिन्दगी का दौर बन्धु  लौट के न आयेगा।  Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"करोना से भी लड़ जाएगे"(कविता)

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कदम है लड़खड़ाते घर में ही रुक जाएंगे हे आजाद देश के नागरिक करोना से भी लड़ जाएगे जैसे लड़के लोगों ने  देश को आजादी दिलाया था वैसे ही हम भी  करोना से लड़ जाएगे देश को आजादी दिलवाने  के लिए लोगों ने हाथ में तलवार को उठाया था करोना से लड़ने के लिए  छोटे-मोटे काम ही तो करने हैं हाथ में सैनिटाइजर  मुंह पर मास्क लगाएंगे कुछ दिन घर मैं ही समय बिताएंगे  2 गज की दूरी का पालन कर जाएंगे इस बार भी मिलकर कदम बढ़ाएंगे  साथ में सोशल डिस्टेंसिंग  का पालन कर जाएंगे है खुराफाती दिमाग घर में ही रह कर कुछ कर जाएंगे है आजाद देश के नागरिक करोना से भी लड़ जाएगे। Written by  #लेखिका_नेहा_जायसवाल

"शुभकामनाएं"(कविता)

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Birthday था आप का और तैयारी मैं कर रही थी कैसे Wish करू मैं बस यही सोच में डूबी थी आया वो दिन आज पास जब God Wishes के बजाय बस ढेर सारी Complaint तो कर रही थी पता नही ये मन को गुस्सा था या मैं आप से कुछ और  ही कहना चाहती थी चाहे कुछ भी हो मेरी सारी Complaint तो सच्ची ही थी ना पर कुछ भी कहो Birthday Wish भी तो मैंने आप को पूरे सच्चे दिल से ही किया था चाहे Complaint मेरी आप से कितनी भी हो आपने ही तो कहा था ना लड़ते भी तो हम उन्हीं से है जिनसे हमे Expectations होता हो तो बस यही Expectations बनी रहे हमारे दोस्ती के बीच Written by  लेखिका पूजा सिंह

"प्रहार"(कविता)

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कब थमेगा सिलसिला' मौत के प्रहार का!  हे प्रभु तिनेत्र धारी' काल के संहार का!  जो यहाँ निर्दोष है' वो भी है 'डरे हुए!  धैर्य अब बचा नही' दर्द है 'प्रलाप का!  दूर कही हंस रहा' काल मुंह फाडे हुए!  बिषम परिस्थिति बनी,  जल रहा दवनाल सा!  मौत ताण्डव करे,  धरा भी अब शून्य है!  अब क्रोध चहुँ ओर है' कुछ कही थमा नहीं!  गरल विष फैला हुआ,  हर तरफ बस 'धुध है!  रक्त पानी बन चला,  कैसा ये संताप है!  लडे तो किससे लडे" जिसका न अस्तित्व है!  कुछ तो अब रास्ता दिखा' मेरे प्रभु तू है कहाँ!  कोई शक्ति ढाल दे,  अस्तित्व को आकार दे!  अब तो अधेरा दूर कर,  प्रकाश ही प्रकाश दे! Written by रीमा ठाकुर

"जीजी"(कहानी)

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जीजी पूर्वी, अरे वो पूर्वी ' अभी तक सोयी है'पूर्वी झटके से उठ बैठी-घडी पर नजर डाली नौ बजे थे! आज इतनी देर तक सोयी रही'पूर्वी काफी देर तक बैठी सोचती रही-उठकर भी क्या करेगी  करोना जो हो गया था! न कुछ काम था! न किसी को छूना था!  ऊपर से फीवर'पैर की पिण्डलिया ऐसी चटख रही थी' दर्द से लग रहा था, जैसे अब पैर टूट जाऐगे' बडी बेटी अब तक चाय ले आयी थी'छोटी मम्मी चाय पी लिजिए नही तो ठण्डी हो जाऐगी'हा बेटा वही रख दो' और हा लापरवाही मत करो कम से कम मास्क तो लगाओ' जी छोटी माँ  दूर से ही निरीहं सी देखते हुए आंखों से ओझल हो गई बेटी'   पूर्वी की आंख अभी लगी ही थी, या दवाईयों का नशा था- पूर्वी पति ने झिझोड दिया-क्या हुआ ऐसी क्यू सोयी हो, पति के माथे पर पसीने की बूदें तैर गई, क्यू क्या हुआ थकी सी आवाज थी पूर्वी की, मै डर गया था! डरो मत मुझे कुछ नही होगा, आप अपना ख्याल रखो, पूर्वी के साथ ही पति जी की भी रिपोर्ट पाजिटिव आयी थी'और दोनो ने खुद को सबसे अलग कर लिया था!  उन्हें पता था, उनकी दूरी से घर के सभी सदस्य सेफ रहेगें, और समझदारी इसी मे थी!  अचानक से मोबाइल ब

"कोरोना"(कविता)

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क्या है कोरोना? क्या कोई को रुलाना बस यही है कोरोना? मानवता को दिया झकझोड़ अर्थव्यवस्था का दिया कमर तोड़ मास्क ,सेनिटिज़ेशन, 2 गज़ दुरी रहा सहारा कही छीना दुधमुहे बच्चे से माँ बाप कही माँ बाप का सहारा रुला दिया हर नगर, हर देश ,हर द्वार तू है क्या? तू है नहीं कोई प्राकृतिक प्रकोप तू है चंद शैतानी  ताकतों की तमस, फिर क्या है तेरी बिसात ? अब तू सुन मेरे अल्फाज वुहान से उठा तूफान है तू रुकेगा थमेगा हिंदुस्तान में तू कई विश्वविजेता के सपने हिंदुस्तान में टूटे सिकंदर ने भी यहाँ घुटने टेके तू आया था हमे हराने? पर सीखा गया जीने का सलीका,कम साधनों में जीने का तरीका ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा ईश्वर मंदिर ,मस्जिद में नहीं दिलों में है  खुशियां मॉल या सिनेमाघरो में नही घर  में है Written by दीप शिखा

"राम कौशल्या से ज्यादा कैकयी के"(कविता)

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जन्म लिया कौशल्या के गर्भ से पर राम कैकयी के कहलाए लाड प्यार था कौशल्या का पर कैकयी के मन अति भाए। हर मां की तरह कौशल्या को था पुत्रों से मोह  पर कैकयी ने प्रजा के लिए चुना था बिछोह महारानी के लिए तो प्रजा पुत्रों जैसी होती उनके लिए वो सहर्ष अपने पुत्रों को खोती राम केवल राजा होते तो कैकयी की हार होती साक्षात विष्णु अवतार को कैसे पुत्र मोह में बांध देती खुद लांछन सहकर राम को वन भेजा तारणहार को जनमानस का तम हरने भेजा पुत्र वियोग दशरथ की मृत्यु का कारण बना कलंक  का बोझ कैकयी ने हंसकर स्वयं सहा धरा को पाप मुक्त कराने कैकयी कलंकिनी बनी कौशल्या से अधिक प्रिय राम की माता बनी कैकयी के वचनों में बंध राम मर्यादा पुरुषोत्तम बने हर काल में , हर युग में सबके वो आदर्श बने । Written by  नेहा चितलांगिया

"हौसला बुलन्द रख"(कविता)

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हौसला बुलन्द रख  तूफान थम जायेगा।  कुछ घड़ी की बात है  ए दर्द कम जायेगा।  साहसी हैं जो कभी  पतवार छोड़ते नहीं।  बीच भवर में कभी  नाव मोडते नहीं।  रुख आँधियों का मोड दे  चट्टान बन जायेगा।  कोरोना की मजाल क्या  जो मेहमान बन जायेगा।  सावधानी रखें  सलाह मानते रहें। एक दूसरे का  हाल चाल जानते रहे।  तकलीफ कम  होगी  आराम मिल जायेगा।  हौसला आफजाई से  काम बन जायेगा।  Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"मन बैरी"(कविता)

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मन बैरी जाने क्या सोचे,क्या-क्या चाहे कभी पराई पीर छीन लेना चाहे कभी पराई बीर छीन लेना चाहे चाहे कभी लुटाना दौलत दोनों हाथ कभी पराई खीर छीन लेना चाहे मन बैरी जाने क्या सोचे, क्या-क्या चाहे कभी कुलाँचें भरने अम्बर में जाए कभी महासागर की तलछट ले आए कभी काट लेता सिर अपने अपनों के कभी पराई लाश संग मरघट जाए मन बैरी जाने क्या सोचे, क्या-क्या चाहे Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"दरों दीवारें"(कविता)

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बेबसियों का आलम है। मंजर भी यु बिखरा है। तन्हाइयां शोर मचा रही है। महफ़िल खामोश लग रही है। न तेरा मिलना न मेरा मिलना है। दरमियां मौत का अजब पहरा है। अपने ही घर के दरवाजों ने रोका है। बाहर कोई अनहोनी लिए खड़ा है। आँखों से छलकते दर्द बहुत है। जिस्म अंगारो पे जैसे जला बहुत है। दरों दीवारें मेरी बात सुनते है। अपने ही घरों में कैद रहते है। न फुरसत हमे जिंदगी से है । दामन में बड़े सिलवटे से है। सब रोज रफू करते जिंदगी है। मगर असली बुनकर कोई है। कुछ न कुछ दाग सबो में है । इंसान ,भगवान थोड़ी ही है। Written by  कवि महराज शैलेश

"मत कर अभिमान : जीवन,बुलबुला समान"(कविता)

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 तूने कुछ अपने, सुख सुविधाओं को पाने, मनोहारी नीली  छतरी की, उदार धरा को, नियति के उपकार और उपहार को, जाने, कितने बेदर्दी  से नाश किया,कुछ पाने को। नदियों ने इठलाना छोडा, अंधों के जिद पे भावों ने रचना त्यागा, झूठे वैभव पाने को विषैली गैसें दी,सरल हवा के पावन मन में,  उर्वरक ने बंद किया,जैवी खाद परम्परा को। ।1। धरा का सावन छीना,और नभ का नीलापन, वन के वीरानापन ने छीन लिया आक्सीजन, संगमरमरी दीवानों ने,तपित किया पर्यावरण, मानव होके तेरे मन ने तांडव का किया वरण। मन किस स्तर का जो लाशों का गीध बन गया, सीता पर शहीद हुए जटायु का नाम डूबा दिया,  मानवता की परीक्षा है,इस जाति का मान बनो, बुलबुला सा मानव जीवन,इसका सम्मान करो। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"बेबसी"(कविता)

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 जब जब स्वयं की कमजोरी से चला जाता है अपना भविष्य किसी निष्ठुर क्रूर कठोर के हाथ में तब तब होता है जन्म एक त्रासदी का जिसकी यातनाओं को झेलने के लिये कृत्रिम मुस्कान और कृतज्ञ चेहरे का आवरण डाल लेना पड़ता है स्वयं पर पूर्वाग्रहों की समस्त वेदनाएँ उज्जवल भविष्य के ताप से सूख जाती हैं या वाष्पायन की गुप्त ऊष्मा झुलस देती है उन्हें Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"रिश्तों में तकरार"(कविता)

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क्या ये जरूरी है ,बताने के लिए।। की मैं तुमसे प्यार करता हुँ ।। तुम खुद देखो मेरी आँखों मे।। और चाहत का इजहार करो।। तुम्हारे चेहरे पे मुस्कुराहट नही।। क्या तुम्हें मुझसे प्यार नही।। ये कैसा इनकार या इकरार है।। क्या मेरा दिल औरो से बेकार है।। अक्सर यही बातें दरार बनकर ।। हर रिस्तो में तकरार बनकर ।। प्यार के नाम पर धोखा देकर।। जिंदगी दो नाव पर रखकर ।। चल पड़ते है बिना सोच समझकर।। कैसी परवरिश दोगे अपने बच्चों को।। तुम ना उमीद हो जाओगे सोच सोचकर।। कैसे नजर मिलाओगे नजर भरकर।। तुम अपने स्वार्थ के लिए ।। कही भी रहने को तैयार हो।। कहते हैं उसे तलाक भी।। जो अब तुम देने को तैयार हो।। Written by  कवि महराज शैलेश

"जीवन संग हो: मूल्य का आभास"(कविता)

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 हे दया निधान,जब तुमने दुनियाँ बनाई, फिर उसे बसाई तो जोडे के संग बसाई, जैसे हवा संग साँस,निराशा  साथ आस, पानी साथ  प्यास,शब्द के संग आकाश, धरा साथ दी उपज, कंपन साथ आवाज, जीवन  संग कर दिया, मौत का आगाज, मेघ साथ गर्जन, और मोर के साथ नर्तन, दिल के संग धडकन,सजने के लिए दर्पन। ।1। ऐसा न हो जाए,जीवन के लिए वायु न हो, बदला मौसम हो,पर बदला जलवायु न हो प्यास है जल न हो, धरा है पर उपज न हो, मुख पे न करुणा,पुरइन है पर कमल न हो, दया है, धर्म नहीं,दिल है पर धडकन न हो,  ज्ञान है समझ नहीं,बुद्धि है पर मंथन न हो, प्रीत के गीत, गीत संग जीवन संगीत न हो, दुख के बाद सुख,मन  साथ मनमीत न हो। ।2। हे करुणा के सागर, अब इन पर  दया  करो, ये जीवन निर्जीव मशीन न हो, कुछ तो करो, कैसा वह संसार, जहाँ जीवन का सार न हो, दंभ,द्वेष पाखंड रहित सब हों, कुछ तो करो,  क्षणभंगुर जीवन, संग मूल्य आभास तो करो, सागर में मचले रत्नों से , दर्शन लाभ तो करो, दाता के हों दिल से रिश्ते,कोई रंक पिसता हो, हाथ मदद में बढे,किसी तन पे खून रिसता हो। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"बुलबुला"(कविता)

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महफिल तो बहला है , नग्नता भी उछला है । मौतों का फैसला है , जिंदगी तो बला है । चेहरे दिखाना कला है , फंसाया गया मामला है । लम्हें देते इत्तला हैं , फिर क्यूँ छला है ? हिंदुस्तानी क्यूं जला है , वादाखिलाफी क्या भला है ? सौदा में घपला है , सियासी रंगें जुमला है । महामारी न टला है , जनता तो चंचला है । प्राणवायु पे मसला है , दवा-दारू कहां पला है ? थोपाथोपी कहां ढला है , चुनावी सभा ! हल्ला है !! यहां महारथी उगला है - कारनामा न पहला है । ज्ञानी क्या दुबला - पतला है , आखिरी कहां मुकाबला है ? सुना तो बगुला है , मछली संग बुलबुला है । न पहाड़ी पिघला है , घर-घर हीं अधजला है । न तो तबला है , दिल क्यूं  पगला है ? तौब़ा हेतु अगला है , न्यायी को खला है । कहीं बना किला है , दिमागें कैसा ढीला है ? सही सम्भवतः कबीला है , सिंधु - नदियां गर्विला है । राही कहां चला है , सूरज क्या नुकीला है ? इश्क सम्भावना तला है , आखिरी हस्ती महिला है  । शीशा न पीला है , क्या -क्या न हिला है ? सर्पें और नेवला हैं , लहर क्या-क्या निगला है ? प्रियतमा को जो  कुचला है , बूतों की  ऊंची श्रृंखला हैं । क्या -क्या विषकन्या सम्भला है

"जिस्म़"(कविता)

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प्रियतमा तो जिंदा है , रागिनी हीं शर्मिंदा है । महफिलों में अदा है , प्यासा दिल सदा है । आईना क्यूं जुदा है , कहाँ पे खुदा है ? जिस्म़ रिसता परिंदा है , ये मदिरा चुनिंदा हैं । औपचारिकता में निंदा है , टुकड़े में स़च़  पुलिंदा है । खवाहिशों पे फंदा है , भौरा क्यूं गंदा है ? धंधा न मंदा है , निचोड़ी गयीं चंदा है । परछाइयों तक जुदा है , देखा अंधेरा उम्दा है ? मछलियां प्यासी फिदा है , क्या नदी-समंदर संजीदा है ? फरेबी यहां लदा है , साहिल क्या अलहदा है ? मौतों पे पर्दा है , मर्दानगी क्यूं बेपर्दा है ? सहने को वसुधा है , आखिर कहां सुधा है ? सियासी इश्क बदा है , सौदागरी में नुमाईंदा है । आग आखिरी बंदा है , ठगी हेतु करिंदा है । विषकन्या  देती गुदगुदी है , सुधि  हेतु बेसुधी है । नयी नारी -कसीदा है , जुगनुओं  ! फैला दरिंदा है । जहरीला लम्हा आमदा है , कश्तियां अब अलविदा है । रातें न यदा-कदा है , दिनें भी बेकायदा है । दीवारें न गुमशुदा है , झूठी मुस्कानें वसींदा है । कहने को कायदा है , नजारा भी भद्दा है । Written by विजय शंकर प्रसाद

"हनुमान"(कविता)

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सीने में जिसके  प्रभू श्री राम  करलो। पूजा  हनुमंत  की  यही है चारो धाम। बल  बुद्धि  विद्या  के तुम  दाता हाथ, में लिए गदा  प्रभु तुम हो। इस  सृष्टि।  के विधाता।  सूरज  को  जिसने पल, में अपने  मुँह  में छुपाया  बूरी शक्ति, ओ को  जट  से तुम ने  दूर  भगाया। हर पल  राम  भक्ति  काम   तुम्हारा। अंजनी  पुत्र   कपिल  नाम  तुम्हारा। तुम्हारे नाम से भूत पिशाच  सब दूर, भागें।  भक्तों  को। संकट  से   सिर्फ, तुम्हारा नाम  ही मुश्किलों  से पीछा। छुड़ावै ऐसे मारुति नंदन को प्रणाम। Written by  नीक राजपूत

"आज की नारी की अकुलाहट"(कविता)

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हाथों में छैनी,हथौड़ी औजार रखती हूं हौंसले बड़े दमदार रखती हूं युगो की बंदिशे तोड़ने निकली हुं मुट्ठी में वक्त की रफ्तार रखती हूं कमतर नहीं रही,खुलेआम बताती हूं ऑटो,रिक्शा,ट्रेन,वायुयान उडाती हूं छूआ है मैंने हिमालय को कई बार निकल चुकी हूं मैं अंतरिक्ष के पार जमाना अब ना डूबा सकेगा नाव मेरी हाथों में कसकर पतवार रखती हूं हौसले बड़े दमदार रखती हूं बनाए नए रिकॉर्ड,पुराने फाड़े हैं हमने हर क्षेत्र में झंडे गाड़े हैं नहीं रही मैं निरीह असहाय अबला अंतरिक्ष भेदा,बन कल्पना चावला अपने देश की रक्षा के खातिर कंधों पर हथियार रखती हूं हौसले बड़े दमदार रखती हूं कहां नहीं हूं मैं,बता मुझे धरती से आसमान तक का है,पता मुझे अब मैं सहमी हवा नहीं,विकराल आंधी हूं मैं ही रानी लक्ष्मीबाई,मैं ही इंदिरा गांधी हूं ऑफिस भी जाती हूं,घर भी संभालती हूं पूरे घर का दारोमदार रखती हूं हौसले बड़े दमदार रखती हूं अब चीरहरण दुर्योधन का होगा खुले आम वध दुशासन का होगा जुए में अब मेरा नंबर नहीं आएगा दांव पर युधिष्ठिर को लगाया जाएगा कृप ,द्रौण,भीष्म को वीर कैसे कहूं इन पर इल्जाम दागदार रखती हूं हौसले बड़े दमदार रखती हूं हम यूं

"मंजर जुदा सा हैं"(कविता)

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पलको में आंसुओं का समंदर क्यों है  सीने में सुलगता धुँआ सा क्यों है इस शहर का मंजर जुदा सा है ये खामोशी , इतना सन्नाटा सा क्यों है रूह कांप रही इंसानों की भी अस्पतालों में लाशों का बवंडर सा क्यों है इस महामारी में सांसों को तरस रहा आदमी फिर हर साँस पे , ये सौदा सा  क्यों है लाशें कतार में है श्मशान में जलने को ये दावानल आतिशरा सा  क्यों है Written by  कमल  राठौर साहिल

"मैं ठीक हूं"(कविता)

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 मैं ठीक हूं औरों के मुताबिक तो नहीं लेकिन मै ठीक हूं हां माना चलना नहीं आता लेकिन धीरे धीरे ही सही कदम से कदम मिलाती हूं ना मैं ठीक हूं औरों के मुताबिक तो नहीं लेकिन मै ठीक हूं हां माना ठीक से बोल चाल नहीं आता लेकिन रुक रुक कर ही सही अपनी बात तो पूरी करती हूं ना मैं ठीक हूं औरों के मुताबिक तो नहीं लेकिन मै ठीक हूं हां माना कुछ Prefect काम  करना तो नहींआता लेकिन कोशिश तो पूरी करती हूं ना मैं ठीक हूं औरों के मुताबिक तो नहीं लेकिन मै ठीक हूं हां मैं ठीक हूं Written by  लेखिका पूजा सिंह

"बेपनाह मोहब्बत"(कविता)

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तुमसे बेप ना ह मोहब्बत तुम्हें ये ही जताएंगे तुम्हरा साथ न मिले जिंदगी में तो किसी और के हाथो अपना हाथ न देे पाएंगे तुमसे मोहब्बत है तुम्हें ही पाना चाहेंगे इस कदर की तुम्हारे सीवा किसी और पे अपनी नजर न टीका पायेंगे तुम्हरे सिवा किसी और पर अपना प्यार ना जमा पाएंगे अगर तुम नहीं मिले जिंदगी में तो हम ऐसे ही घुट घुट के मर जायेंगे Written by दीपक कुमार

"युग पुरुष"(कविता)

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हर युग मे  इक युग पुरुष  जन्म लेता है  जो हवाओ की दिशा बदल देता है  सत्ता के मायने बदल देता है  समय की गति बदल देता है हर तूफां का रास्ता बदल देता है  ओर सारे संसार को , नई रोशनी , नए नियम नए   सिद्धांत , नए ज़िन्दगी के  मायने देता है   वो भी संघर्षों में पैदा होता है  और संघर्षों से जूझता  है। जब देवता ही नही बच पाते वो भी  नित नए नए संघर्षों से  सामना करते हुए  आगे बढ़ता जाता है, और नए कीर्तिमान रचता है  अपनी विजय के, मगर वो कभी   हार नहीं मानता और  युगपुरुष बनकर दुनिया के सामने  नए सूरज की तरह उदय होता है Written by  कमल  राठौर साहिल

"पिता"(कविता)

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पिता है तख़्ती, पिता क़ायदा पिता क़लम है, पिता दवात पिता है कुदरत की सौगात काठ का घोड़ा, पिता खिलौना पिता बिछौना, पिता ही खाट पिता है लेकिन बारह बाट पिता रास्ता, पिता है कूचा पिता मुहल्ला-पूरा गाँव पिता महकती ठण्डी छाँव पिता किसान, खलिहान पिता है सुख-सुविधा की खान पिता है सम्बंधों की जान पिता है पिता ही आँगन, पिता ही घर पिता द्वार और पिता किवाड़ पिता के बिन सब सून-उजाड़ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"पहले गुड्डी थी,अब चिड़िया हूँ"(कविता)

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पापा ,भइया ने हमारा गुड्डा ले लिया, माँगती हूँ वह फिर जोर जोर रोता है। अब हमने प्यारा गुड्डा उसको दे दिया, उसके रोने से हमारा दिल धडकता है। अब मैंने आपके हाथ, हथेली दे दिया, "सोन चिरैया"के गाने का मन होता है। ।1। ये उंगलियाँ ,आपकी मुटठी में है दिया, अक्कड बक्कड खेलने,का जी होता है। परियों के लोक किस्सा क्या सुना दिया, अब उन सपनों में खोने का जी करता है। पकडो इन दोनों बाहें,ये झूला मिल गया, अब सावन घटा में पेंग भरने,मन होता है। ।2। पापा,मैं कुछ सालों में बडी हो जाऊँगी, जीवन में आता परिवर्तन ये समझाऊॅगी, पहले गुड्डी थी चिडिया हूॅ औ बनूँगी परी, तुम्हारे सपनों की,उन्हे लेके उड जाऊँगी। छूटा सब,गुड्डा, चिरैया और झूले का पेंग, कैसे भूलूँ, बस याद करूॅगी,याद आउॅगी। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"कुर्सी"(कविता)

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 बंदिशें और खुलापना विलोमी , नाराजगी भी ढो लिया । अदा नेकी का है , जुम्ला से तौब़ा है । लाशें भी कमी क्या - क्या -क्या दुखी हैं ? सत्ता बोलना चाहती है , विपक्षी भी जिंदा है । बूतें भी संजीदा हैं , इमारतें भी उपमा हैं । अस्पतालों की जरूरतें हैं , प्राणवायु भी तो मजबूरी । रामभरोसे है अभी जनता , कर्फ्यू फिर हों कयूं ? चुनावी मौसमी हया कहूँ , अच्छी बातें अनकही है ! नतीजों पे आंखें हैं , पता तो है हीं । नाकामी पे जंगी हाजिर , जल्वा मरघटों पे सुहागा । विषकन्या से पाला पड़ा , हवा है यूं वफ़ा । स़च़ कहने पे दफ़ा , इतना ज्यादा कर्णधारें ख़फा ! बीमारी का लम्हा है , खुली किताब़ तो बनें । कभी मुँहें न फेरे , क्या तेरे या मेरे ? लम्बी-चौड़ी सौदेबाजी इश्क नहीं , उजाला कृत्रिमतानुमा अंधेरा है । रातें जगी सी है , दिनचर्या भी बेताब़ है । ये नायाब़ नकाब़ है , गुलाब़ तो बेनकाब़ है । कुर्सी मरा है नहीं , बहुरूपिये तो नवाब़ हैं । जहरें पी लिया है , दग़ा क्यूं दिया है ? आदतें यूं बला हैं , बेपानी का बदला है । रावणों की दुनिया है , देवों का ढिंढोरा है । बेकाबू तो अर्जियां हैं , मनाही और खुदगर्जियाँ हैं । कहीं पे अ