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"हताशा/उलझन"(कविता)

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तुम्हारी पलकें झुकी हुई हैं पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।  है कैसा गम जो तुम्हे सताये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  चिल्लाये होंगे सब मिलके शायद चांद हुआ बहरा-बहरा।  है जुगनू फिर भी आस जगाये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  नेमतें तुम कितनी कमा लो चार दिन की है जिन्दगानी।  है खाली जाना समय बताये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  फूल गुलाबां सजे हैं गुलशन पेड़ बबूलां भी उगते सहरा।  है कैसा मंजर मन में बसाये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  जानता है तू भली तरह से तेरा रहनुमा तुझे लूट लेगा।  है कैसा भय फिर तुझे डराये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  🙏संतोष ही सबसे बड़ा धन है, वही सुख है 🙏 Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"मन के तार"(कविता)

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छेड़ो मत मन के तारों को  कोई राग निकल आयेगा ॥  सुबह हो गयी शाम हो गयी  चाहत भी अंजान हो गयी  सब कुछ अब तो सुख चुका है  तबियत भी बेईमान हो गयी  झिलमिल आँखो का आंसू भी  पानी बन कर निकल आयेगा ॥ सपने तो सपने होते हैं  सपने कब अपने होते हैं  बंद है मुट्ठी तबतक मोती  खुलने पर कितने होते हैं  पाँव हैं लंबे छोटी चादर  फटकर पाँव निकल आयेगा ॥ सावन में आती हरियाली  पतझड़ में सूखी है डाली  बासंती मधुमास देखकर  झूमि रही कोयल मतवाली  आंगन फूट रहा है यौवन ,  बरबस फाग निकल आयेगा ॥ सुख -दुःख आँख मिचौली खेले  धूप -छांव भी  गठरी खोले  सच्चा क्या है क्या है झूठा  दोनो एक तराजू तोले हानि-लाभ का जीवन -लेखा ,  इक दिन सही निकल आयेगा ॥ Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"सबुका पियारु"

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गिरवी मकानु केउकै केउकै मचानु पै चाकी  बण्डी म छेदु इतनौउ बलुभै दिखायि झांकी  कितना अमीरु ब ऊ दिगम्बरु बना घूमैयि  तनि एकु सूत ऊपरि गरीबिउ कै रेखु बाकी उजरौउटी तनिके सांटा दरिदुरि भागु जाई  गदहा क एकु दाईं बनायि लेतिउ बापु-माई  कुकरेउ नाईं आपनु गरदनु हिलावतु रहिब्या  पीठी कै भारु सगरिउ कंखरी म जायि समाई सैलाबु आयि जाई हिमानी बरफु जौउ पिघलैयि  कितनौउ बंधायि राखौउ माटी कैयि बांधु टूटैयि  मोमु जौउ जलैयि तौउ वाजिब बा पिघलु जाई इकु बिया कतहूँ दबैयि पाथरि क फोरि निकरैयि आपनु गदेलु औउ फरिका सबुका पियारु लागैयि कमतरु लखायि जौउ केउ पौरुष वहीपैयि जागैयि   अपनिउ गली म कुकुरौउ बनिकैयि हौउ शेरू घूमतु फंसि जायि उहैयि कतहूँ भलु पुंछिया दबायि भागैयि चुइबैयि करी भुंइयां जौउ पाकि गवा आमु  ढूंढ़िबैयि करी गुंइयां जौउ जेबी रही छदामु  लाचारी भलु आवैयि अस्मतु बचायि राख्यो  खेल्या न टुक्की-टुंइयां कछू नाहीं सरैयि कामु  Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"सुझाव"(कविता)

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सब जगह आना जाना नहीं चाहिए यूं ही मिलना मिलाना नहीं चाहिए इक तज़ुर्बा मिला है बुज़ुर्गों से ही रोज़ महफ़िल सज़ाना नहीं चाहिए राज़ सबसे बताना नहीं चाहिए रोज भिड़ना भिड़नाा नहीं चाहिए ख़ुद को ख़ुद में समझना ज़रूरी मग़र  सब पे उंगली उठाना नहीं चाहिए इंसान ही नहीं इंसानियत होनी चाहिए मिलो न मिलो मिलन की आस होनी चाहिए चार दिन की ज़िंदगी  में मुंह फुलाए घूमते हैं दिल में मथुरा काशी और प्रयाग होना चाहिए ख़ैरियत के साथ-साथ कैफ़ियत होनी चाहिए हैसियत के साथ-साथ मुरव्वत होनी चाहिए दोस्ती वही है जो आफ़त  में खड़ी हो कुरब़त के साथ-साथ अज़मत होनी चाहिए फूल के साथ-साथ कांटे भी रखना चाहिए जमीं को देखकर फ़लक पे उड़ना चाहिए सुख-दुख का आना जाना कब रुका है या रुकेगा आंसू बहे तो बहे धैर्य रख मुस्कुराना चाहिए कैफ़ियत-हाल-चाल ,अज़मत-भलाई ,कुरब़त-करीबी फ़लक-आकाश  Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"बुढ़वा मंगल"

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 जेठ मास मंगल प्रबल, किरिपा बरसत जात।    बुढ़वा मंगल अन्त में,  सुख समृद्धि भर जात।।           हाथे ध्वज औ गदा बिराजत।           कांधे   मूंज   जनेऊ   छाजत।।            हिरदय महि  बसते  रघुनंदन।            कृपा करौ हे मारूति- नन्दन।।            बालकाल रवि भक्षण किययू।            सृष्टि समस्त अन्धमयि  भययू।।            सागर लांघत भय नहि आवा।           प्रभु मुदरी मुंह माहि  सिरावा ।।            जय जय  हे अंजनि के लाला।           बेगि   हरौ    सगरौ   जंजाला।।           ध्यावत जे जन नित चित लाई।           सुख-सम्पत्ति घर म भरि जाई।।           शनि प्रकोप नहि काया माही।           हनुमत-कवच बचावा ताही।।           भूत-प्रेत  निकट नहि आवत।          लाल-लगोंटा लखि लखि भागत।।           संकट समय तुमहि जे ध्यावै।           संकट कटै तुरत हल     पावै।।          बिनु तुम्हरे जन राम न पावै।          हनुमत सुमिरि राम ढ़िंग जावै।।  दीन-हीन-साधन-विमुख, नहि कौनेव उपमान।  रक्षा   हमरिउ    कीजिये, पवनपुत्र     हनुमान।। Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"नवगीत गाना चाहता हूँ"(गीत)

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उगता गया हूँ , इस दोहरे चरित्र से , अब तो ख़ुदी में जीना चाहता हूँ , नवगीत गाना चाहता हूँ ।। आपा-धापी की लहर में , रिश्ते-नाते बह रहे हैं अपने-पराये की नज़र में , तार-तार हो रहे हैं स्वार्थ की लंबी कतारें , इस छोर से उस छोर तक घृणा के उगते शज़र में , विष- बेलियाँ लिपटा रहे हैं तस्वीर धुंधली , मन के दर्पण की , हटाना चाहता हूँ ।। नवगीत गाना --- शक्ति पाते भूल बैठा , इंसान सारी सरहदें टूटतीं पल-पल रहीं , विश्वास की यूँ हर जदें  कौन माने ? कौन जाने ? रात-दिन कितने बिके बंद मुट्ठी जब भी खुली , गुलजार दिखते मयकदें  बेबसी में भीगीं पलकें ही , पोंछना चाहता हूँ ।। नवगीत गाना  ----- न समझ पाये प्रकृति , बस अंजान यूँ तकते रहे जब तमाचा पड़ा सीधे , बस गाल यूँ मलते रहे रक्षक ही भक्षक बने , ताड़ना नित-नित , बदले तरीके हिम- दु:खद अवसाद में , बस जमते रहे , गलते रहे लेकर हृदय में तीव्र ऊष्मा , अब पिघलना चाहता हूँ ।। नवगीत गाना---- मज़मा जमाये बैठे हैं , शराफ़त का खोले पिटारा लूटते मौका मिले जब , दिख रहा चहुँ-दिशि नज़ारा कागजों से पेट भरते ,दया का यूँ ही आडंबर रचते  ज़ज़्बात की बाज़ीगरी का , खेल खेले मिल

"विरह-गीत"(बरखा-गीत)

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 झमाझम बरसै बदरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया । लह-लह लहरै डगरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। पवन झकोरै जौ सिहरनि लागै सगरी देहियां म भलु पीरा जागै रहि- रहि भभकै सेजरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै----- यादु सतावै यैसि चिहुँकु जायि छाती  केहिका बिसूरै जिया हौ बहु कलपाती  सहमि-सहमि जायि निंदरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------ जुगनूँ राह-डगरि चमकावैयिं  दादुर-झींगुर बहु शोर मचावैयिं छमाछम बाजतु पयलिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------- लरिकनु छपाछपि अंगना म खेलैयिं  कगजे कै नैइया भलु पनिया मेलैयिं  लुकाछिपी खेलतु नजरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------- भूलि गयिनि सबै  सजना-संवरना  कबु लौटि अउब्या अहै ईहै झंखुना  तकि-तकि हारीं नजरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। लह-लह लहरै------- झमाझम बरसै बदरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया । लह-लह लहरै डगरिया हो नाहीं आयिनि संवरिया ।। Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"हक़ीक़त"(कविता)

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अब कहां मौज़-ए- सब़ा आती है रोज़-रोज़ अब बाग़-ए-वफ़ा में बुलबुल कहां गाती है रोज़-रोज़ सरकार यूं ही  कितना मिलते रहोगे सबसे वो भी कहां आ पाएंगे इनायत को रोज़-रोज़ जलेबी की चाशनी में सीझी  मीठी सी उलझनें चिपकी हुईं हैं ख़्वाब से कहां सुलझ पातीं हैं रोज़-रोज़ देखो ज़रा ग़ौर से सड़कों पे चलते हुज़ूम को समझाये इन्हे कौन इमदाद नहीं बंटती है रोज़-रोज़ कर्फ़्यू  लगा हो चाहे या फौज़ खड़ी हो मानती कहां है भूख लग जाती है रोज़-रोज़ अब देखना है कितना साथ देता है मुकद्दर कुछ भी न मिले तब भी दुआ लोग मांगते हैं रोज़-रोज़  हद भी है इक बंधन जानते हैं सभी फिर भी ख़ुद की ज़द किसको नज़र आती है रोज़-रोज़ विपरीत हालात में भी खुशनुमां मंज़र सज़ाना होगा कोशिशें करते रहो खुशगवार मौसम कहां आता है रोज़-रोज़ Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"सावन-कजरी"(गीत)

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 सावनु बरसैयि जिया बहु उरझैयि सखि मोरु सजनवां आयिनि ना ।  हमरौउ मरदा भयिसि बेदरदा ई कैसि करमवां पायिनि ना ।। बैरनि कोयिलरि न सबरि धरैइया  कुहू-कुहू निगोड़ी बोलयि अमरैइया  लागिनु येहुकै बोलु कटारी कबौ सुखनिंदिया सोयिनि ना ।। हमरौउ  आंगनु म गौउरैइया चहकैयि  मनवा मोरा रहि-रहि बहकैयि  आंखिनु बहतु पनारो यैइसों केउसों दरदिया मोयिनि ना ।। हमरौउ  संगु कैयि गोतीनिनु नीमीं झूला डरावैयिं  केउ गावैयिं कजरी मल्हारि केऊ गावैयिं  साजनु मोरा भयिसि विदेसिया केऊ झुलनवा झुलायिनि ना ।। हमरौउ सावनु बरसैयि जिया बहु उरझैयि सखि मोरु सजनवां आयिनि ना ।। हमरौउ मरदा भयिसि बेदरदा ई कैसि करमवां पायिनि ना ।। Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"पिता - एक समर्पित देव मानव"(कविता)

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"सभी पिताजन को समर्पित" विष पीकर सदा अमृत ही बांटा है सुख देखकर सभी का दु:ख छांटा है उफ़ कभी होठों पर ना आने दिया पग में जब भी चुभता रहा कांटा है द्रव्य की आपूर्ति हो तुम्हीं केवल प्रेम की प्रतिमूर्ति हो तुम्हीं केवल रास्ते में पड़ा कांटा है चुन लिया पथ-प्रदर्शक बने हो तुम्हीं केवल जब भी धूप ने मन व्याकुल किया शज़र बनकर छाँह है तुमने दिया खुशियों से भर दिया दामन हमारा दिल से आशीष जब भी तुमने दिया भार कितना भी सब सहे  कंधे तुम्हारे ख़्वाब हैं पूरे हुए हाथ से सारे तुम्हारे स्वयं के बदन पर न हो भले एक कुर्ता पर हमारे सूट ख़ातिर ज़ेब अपनी न निहारे कुछ कह रहीं हैं झुर्रियां चेहरे पर कहानी वक्त से पहले ही देखी घट गई सारी रवानी बस यही आशा खुशहाल हो जीवन हमारा आ गया उनका बुढ़ापा खो गई सारी जवानी कितने खुदगर्ज़ बुढ़ापे में न बन पाते सहारा रहे मशगूल शान-ए-शौक़त वक्त को न निहारा धिक्कार हम पर थोड़ा सुख हम दे न पाते जिसने किया सारा समर्पण उसी से करते किनारा Written by ज्ञानेन्द्र पाण्डेय