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"आह ! जिन्दगी वाह! जिन्दगी"(कविता)

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आरोह सी कभी ,अवरोह सी कभी लगे है  ये ! जिन्दगी जले मन कभी,कभी लगे जलतरंग सी ये ! जिन्दगी खट्टी कभी , मीठी सी कभी लगे है ये !जिन्दगी वाह  जिन्दगी कभी ,आह सी लगे है ये ! जिन्दगी खुला आसमान कभी,  बादल बन बरसे है ये ! जिन्दगी मीठी सी गुड़ की डली कभी, नीम की सी निंबोरी लगे है ये ! जिन्दगी माँ  के आँचल सी शीतल कभी जेठ की दोपहर सी लगे है ये जिन्दगी  कभी अच्छी और सच्ची, कभी दुखती रग सी लगे है ये ! जिन्दगी सपनो को खुली आँखो से देखा किये  हम कभी अपनी सी कभी सपने सी लगे है ये ! जिन्दगी आह! जिन्दगी वाह!जिन्दगी Written by  अनुपमा सोलंकी

"मनमोहक"(हाईकू)

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मन केक्टस क्यारी बड़ी न्यारी उगे हैं शूल मनमोहक वो चांद वो सितारे लगा ग्रहण बसंती हवा फूले पलाश वन जले है मन बहती नदी गरजते बादल बरसे कहीं Written by  अनुपमा सोलंकी

"गठबंधन"(कहानी)

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विषय आधारित कहानी गठबंधन तीनों बहुओं को जब इस धनतेरस पर अम्माजी ने चांदी के गुच्छे लाकर दिये तो तीनो अर्थ पूर्ण ढंग से एक दूसरे को देख मुस्कराईं और आँखो -आँखों में कुछ इशारे किये। स्थूलकाय लंबी अत्यंत गोरी -चिट्टी अम्मा बड़ी सी लाल बिंदी आखों में काजल और आगे से लेकर पीछे तक मांग भर कर हमेशा बनठनी रहतीं और सैतालीस की उम्र में भी घने मुलायम काले चमकीले लम्बे बालों की मोटी गुथ बनाती जो नितंबो तक लटकती रहती । पिताजी को बेटों ने तो बचपन से माँ के आगे पीछे घूमते देखा ही था सो उन्हें कुछ अजीब न लगता , लेकिन तीनों बहुँऐ  सास के आगे -पीछे घूमते ससुर को देख - देख इधर -उधर छुपकर खूब हँसती और मखौल उड़ाती, ससुर का शीलाजीशीलाजी कहना उन्हें सबसे ज्यादा मजेदार लगता लेकिन सास का तीनो बहुएं बड़ा मान भी करतीं क्योंकि सास एक तो तीनो बेटों और बहुओं को प्यार बहुत करती थीं उन्हें जो भी चाहिये मंगवा कर देती थीं , उनकी कोई चाहत नहीं तो जो पूरी न की हो ।दूसरे कभी पति की मुहब्बत और मजनू पने पर खुश नहीं  होतीं थीं , दूरी बनाये रखती थीं बहुओं के सामने । ससुर भी लंबे चौड़े गोरे चिट्टे खूबसूरत आदमी थे पत्नी के अतिरि

"मेरी नैना"(लघु कहानी)

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हम जब भी मॉल जाते नैना के क़दम सेंडिल के शोरूम पर ठिठक जाते.. हसरत से वह उन्हे निहारती और फिर झट से आगे बढ़ जाती... वह जानती थी हम इतनी मंहगी सेंडिल नहीं खरीद सकते। अक्सर पास के ''मॉल " में रात का खाना खाकर चले जाते थे टहलना हो जाता ... ठंडी ऐ.सी. की हवा खाने मिल जाती और सारा दिन एक कमरे मै बंद नैना का मन भी बहल जाता था.... तरह-तरह के लोग नन्हे मुन्ने बच्चे ,मॉल का मेले सा माहौल में उसकी की खुशी उसकी आंखों की चमक देख मुझे बड़ा आनंद प्राप्त होता, बस कभी मन बड़ा ख़राब हो जाता कि मै उसे सैडिल नहीं ख़रीद पा रहा... उसकी आंखो में चाह देखी थी... वह कभी कोई फरमाईश न करती... छुट्टी वाले दिन हम  मॉल के बाहर वाले बाजार में कभी चाट कभी पाव भाजी और कभी आइसक्रीम खाते ,महीने में एक बार फिल्म भी देखने जाते वह इन छोटी - छोटी बातों से वह खुश हो जाती और ढेरों प्यार करती , बहुत परवाह करती बहुत अच्छी पत्नी साबित हो रही थी वह ।          शादी को आठ महीने हो गये थे मां ने ब्याह होते ही कहा था नरेश बहू को साथ ले जा तुझे खाने की दिक्कत है .. सो नैना साथ थी तब से घर का खाना मिलने से मैं भी भर सा गया

"एक थी समीरा"(लघु कहानी)

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आज एफबी खोलते ही समीरा की हंसती मुस्कुराती एक पुरानी तस्वीर जिस पर पचास हजार लाइक एवं एक हजार कमेंट  आए थे, दिखाई दी, करीब आठ महीने बाद समीरा पुनः प्रकट हो गई ? न जाने कहाँ गायब हो गई थी ये लड़की... चलो वापस तो आई ... बेहद खूबसूरत ,चुलबुली ,बेबाक लड़की जिंदगी से भरी.. बीस इक्कीस वर्ष की होगी हम सभी फेसबुक सहेलियों को दीदी कहती .. .. करीब पन्द्रह सोलह महिलाओं के बीच वह सबसे छोटी सबसे जीवंत लड़की थी. .. लेखनी बेहद प्रखर जिस विषय पर क़लम चला दे वही सुपर हिट... रिकॉर्ड तोड़ लाईक कमेंट आते उसकी प्रत्यैक पोस्ट पर .. हम सबकी बेहद लाड़ली ... होते हुए भी कभी -कभी उससे जलन हो जाती थी .. जब भी कोई पुस्तक प्रकाशित होती तुरंत शेयर करती .. कई काव्य संग्रह, एवं कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे .. गद्य पद्य दोनो पर धारदार लेखनी का कमाल ... देखने मिलता । फिर एक दिन अचानक गायब हो गई... जैसे अचानक आई थी वैसे ही .. बहुत दिन हमने इंतजार किया था .. फिर भूल गये तो नहीं कह सकते हाँ याद करना बंद कर दिया .. उसके विषय में एक दूसरे से पूछना बंद कर दिया .. और आज फिर यह सामने है... क्या लिखी है पढ़ने की अदम्य इच्छा

"हाईकू"

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मन ये चाहे इकतारा सा बजे   कुछ न पाये    मानी बंदिशें स्वप्न हुऐ खंडित    न अविश्वास      पूजे पत्थर धागे बांधे मन्नत के    तुम न माने    अधूरे स्वप्न रिश्तों के श्रंगार   अब हैं झूठे    उड़ी सुगंध सूखे मन के पुष्प    मै  पथभ्रष्ट Written by  अनुपमा सोलंकी

"क्यों ??"(कविता)

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बेबस नही लाचार नहीं सदियों से व्यभिचारियों का शिकार हूँ मैं क्यों?? क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! महिला दिवस मनाये जाते हैं क्यों?? जब पुरुष मानसिकता का शिकार हूँ मै क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! माँ हूँ, बहन हूँ, बेटी हूँ तब क्यों बंधनों, परंपराओं में जकड़ी हूँ मै क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! मुझे उड़ना है उन्मुक्त आसमान में, रोकते हो क्यों ?? रौंदते हो क्यों ?? क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! उन्मुक्त उड़ान को हर काल में तरसती हूँ.. क्यों ? ? क्योंकि स्त्री हूँ मै!!! क्योंकि स्त्री हूँ मै !!! Written by  अनुपमा सोलंकी

"हाईकू"

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रिश्ते नाते अनबूझ पहेली अब लगते है मृगतृष्णा नहीं कोई अपना बीता जीवन मोह के धागे अब लगे टूटने चटके मन लागी लगन तोड़ा मोह बंधन मन संगम आर या पार  नैया बीच भँवर  बंसी की धुन राग से विराग उड़ चला है मन न कोई आस Written by  अनुपमा सोलंकी