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"मन की पीड़ा"(गीत)

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 मन की पीड़ा से जब काँपी उंगली तो ये शब्द निचोड़े अक्षर अक्षर दर्द भरा हो तो प्रस्फुटन कहाँ पर होगा अभिशापों के शब्दबाण लेकर दुर्वासा खड़े हुए हैं कैसे कह दूँ शकुन्तला का फ़िर अनुकरण कहाँ पर होगा नया रूप धर धोबी आए बुद्धि मलिन आज भी उनकी नियति ही जाने सीता का नव अवतरण कहाँ पर होगा गली गली फिरते दुःशासन भीष्म झुकाए सिर बैठे हैं रजस्वला उन द्रौपदियों का वसन हरण कहाँ पर होगा मीठी चुभन कुटिल कुल्टा सी नौंच रही तन के घावों को नमक छिड़कने हाथ आ गये सद आचरण कहाँ पर होगा मैं धतूर का फूल कसैला वो कोमल कलिका कचनारी वो उपवन में इठलाएगी मेरा खिलन कहाँ पर होगा Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"झूठ इतना"(ग़ज़ल)

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आदमी तू डरा डरा क्यों है बिन मरे ही मरा मरा क्यों है मौत आए न रोक पाएगा मर रहा फ़िर ज़रा ज़रा क्यों है पैर तेरे ये लड़खड़ाते हैं बोझ सर पे बड़ा धरा क्यों है हो सके तो लगा मरहम इसपे घाव तेरा हरा हरा क्यों है साथ तेरे न कुछ भी जाएगा हाथ तेरा भरा भरा क्यों है ज़रा सी बात को दिल पे लगा लेता है आदमी ऐसा मसखरा क्यों है काश ये सच कभी न हो पाए झूठ इतना खरा खरा क्यों है Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"जुगनू पकड़"(ग़ज़ल)

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क्या लूटा है मैंने बतला, झूठे क़िस्से गढ़ा न कर जन्मजात दौलत वाला हूँ, तोहमत यूँ ही मढ़ा न कर भूखा नंगा था ये कहकर, मियां बेइज्जती करता क्यों तू भी रंग जा मेरे रंग में,तिल का ताड़ बड़ा न कर पहले ही से मैं बेचारा, मुश्किलात में फँसा हुआ जख़्मों पर तू नमक छिड़क कर,मुश्किल और खड़ा न कर मैं तेरा संगी साथी हूँ, बुरे वक़्त में दूंगा साथ ज़रा दूर की सोच रे मूरख,बेमतलब ही लड़ा न कर बड़े अदब से सर को झुकाए,हाथ जोड़ता रहता हूँ थोड़ा अदब ओढ़ ले बाबू,अपना रुख़ यूँ कड़ा न कर मेरी भी सुनने की हिम्मत, तू अपने में पैदा कर जब देखो तब अपनी कहता, बात बात पे अड़ा न कर बर्फ के तौंदे दिये दे रहा, ले अपना अहसान पकड़ बना धूप में घर ले अपना, मेरे सर पर चढ़ा न कर थोड़ी सी तो शर्म बचा ले,कहीं काम आ जाएगी पानी की जो बूंद न ठहरे, इतना चिकना घड़ा न कर जुगनू पकड़ रौशनी करता, और दिखाता अकड़ बड़ी चोरी कर के लिखता हूँ मैं, मेरी ग़ज़लें पढ़ा न कर Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"उलझन"(कविता)

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 कैसे कहूँ का से कहूँ उठ रहे जो भाव मन में जल रही जो आग तन में प्रीत की मीठी चुभन मैं और एकाकी विरहन मैं दे बता कैसे सहूँ कैसे कहूँ का से कहूँ बढ़ रहा पल-पल अँधेरा घुट रहा है साँस मेरा कैसी आशंका ने घेरा कब न जाने हो सवेरा कब तलक ऐसे रहूँ कैसे कहूँ का से कहूँ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मन बैरी"(कविता)

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मन बैरी जाने क्या सोचे,क्या-क्या चाहे कभी पराई पीर छीन लेना चाहे कभी पराई बीर छीन लेना चाहे चाहे कभी लुटाना दौलत दोनों हाथ कभी पराई खीर छीन लेना चाहे मन बैरी जाने क्या सोचे, क्या-क्या चाहे कभी कुलाँचें भरने अम्बर में जाए कभी महासागर की तलछट ले आए कभी काट लेता सिर अपने अपनों के कभी पराई लाश संग मरघट जाए मन बैरी जाने क्या सोचे, क्या-क्या चाहे Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बेबसी"(कविता)

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 जब जब स्वयं की कमजोरी से चला जाता है अपना भविष्य किसी निष्ठुर क्रूर कठोर के हाथ में तब तब होता है जन्म एक त्रासदी का जिसकी यातनाओं को झेलने के लिये कृत्रिम मुस्कान और कृतज्ञ चेहरे का आवरण डाल लेना पड़ता है स्वयं पर पूर्वाग्रहों की समस्त वेदनाएँ उज्जवल भविष्य के ताप से सूख जाती हैं या वाष्पायन की गुप्त ऊष्मा झुलस देती है उन्हें Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"पिता"(कविता)

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पिता है तख़्ती, पिता क़ायदा पिता क़लम है, पिता दवात पिता है कुदरत की सौगात काठ का घोड़ा, पिता खिलौना पिता बिछौना, पिता ही खाट पिता है लेकिन बारह बाट पिता रास्ता, पिता है कूचा पिता मुहल्ला-पूरा गाँव पिता महकती ठण्डी छाँव पिता किसान, खलिहान पिता है सुख-सुविधा की खान पिता है सम्बंधों की जान पिता है पिता ही आँगन, पिता ही घर पिता द्वार और पिता किवाड़ पिता के बिन सब सून-उजाड़ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बरसात में बादल"(कविता)

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 कस्तूरी मृग से भागते-दौड़ते झाड़ी-झाड़ी सूंघते-चाटते यहाँ-वहाँ उछलते-कूदते हो जाएँ अदृश्य; और सुदूर विस्तृत वन के किसी कोने से फ़िर प्रकट हो जाएँ। रूपसी की स्याह घनी जुल्फ़ों से घिरे रुख़सार पर दौड़ जाए हसीन तबस्सुम तब उसे अपलक देख रही आँखें हो जाएँ चकाचौंध। गैस के मरीज़ से गरज पड़ें। खाट पे सोए भीत से शिशु का ज्यों निकल जाए पेशाब; बरस पड़ें -- रुक-रुक के,थम-थम के। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"एक चने ने"(कविता)

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 मेरे आँगन रोज सवेरे बुलबुल आती एक सच्च बोलो-सच बोलो की मधुर लगाती टेक मधुर लगाकर टेक मुझे हैरान करे कैसी खोटी बातें ये नादान करे झूठा और बेईमान भला सच कैसे बोले ज़हर बेचने वाला अमृत कैसे तौले मूरख पंछी मुझको कैसी सीख दे रहा नहीं चाहिये बिन मांगे क्यों भीख दे रहा ढूंढ़ कोई घर और यहाँ ना दाल गलेगी मीठी-मीठा बोली मुझको नहीं छलेगी दाना डाल दिया है खा या हो जा फुर सोच रहा क्या देख रहा क्यों टुकुर-टुकुर भड़काया तो पछताएगा रार बढ़ेगी जीवन भर नहीं भूले ऐसी मार पड़ेगी पंछी फुदक-फुदक कर बोला -- सच बोलो मेरे दिल ने कहा -- यार आँखें खोलो क्रोध पे पानी डाला एक परिंदे ने बदल लिया मन इस दुर्दांत दरिंदे ने पर उसके साहस को मैं नहीं रहा पचा एक चने ने भाड़ फोड़ इतिहास रचा Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बाबा"(नवगीत)

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  टूटे टप्पर का ढाबा,पौली की तरेड़ जैसा। हो गया निस्पात बाबा, एक सूखे पेड़ जैसा। ठूंठ सी बहियाँ पे झूल,पींगें बढ़ाती पौत्री। सिहर कर निकली बगल से,भयभीत सी गंगोत्री। क्षितिज पर चन्दा खड़ा है, तिमिर से मुठभेड़ जैसा। हो गया निस्पात बाबा, एक सूखे पेड़ जैसा। अंग-अंग भेंट घात की,तार-तार होती चमड़ी। श्रम-स्वेद असीम पातकी,गांठ ना कोई दमड़ी। हलस कंधे धरे आए,लस्टपस्ट अधेड़ जैसा। हो गया निस्पात बाबा, एक सूखे पेड़ जैसा। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"एकाकी"(नवगीत)

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अस्तांचल गया सूर्य, मंद पड़ा प्रकाश। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। भाव उमड़ घुमड़-घुमड़, धनु संधान रहे। और असहाय के यूँ,नौंचत प्रान रहे। सूनी चट्टान जहाँ, कोई नहीं पास। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। शंख सा आकाश है, गोधूलि जो उड़ी। पीर सी मीठी चुभन, सुखा रही पंखुड़ी। नीर नयन गहन अगन,रोकते उल्लास। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। मन की व्यथा उड़ेलें,स्वर-व्यंजन सारे। कण्ठ घुला क्रंदन है, दिवस दिखें तारे। जल विहीन छटपटात,मत्स्य सा उजास। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मंज़िले-मक़सूद"(कविता)

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 तेरे फ़ैज़ में डूबे रहें शबो-दिन ये जिस्मो-रूह इस कद्र कि भूले भी उबरना न हो मुमकिन न रोक पाए अब हमें कोई दरो-दीवार दीवानावार दौड़ के आएँ तेरे क़रीब हम खाली कटोरा लिये आएँ तेरे दरबार तू भर दे लबालब इसे रहमत से करम से तेरे दिये हुए को यूँ रक्खें संभाल के कि उसमें इज़ाफ़ा हो और फ़िर आएँ दोबारा दुनियावी कारोबार हम करते रहें बेशक़ ये सर रहे हरदम तेरी ड्योढ़ी तेरे दर पर कहता है महवे-बालिशे-पम्बए-कमख़्वाब उठ बैठ तसव्वुर में देरी काम की नहीं तेरे हैं तेरे ही रहें तुझमें समा जाएँ बस इतनी तमन्ना है ख्वाहिश है गुजारिश है तुझपे है भरोसा मदद तेरी से हम इक रोज़ पा जाएंगे वो मंज़िले-मक़सूद बिलाशक़ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

" रे श्रमिक"(कविता)

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क़िस्मत में लिक्खा है तेरी घोर ग़रीबी से ले टक्कर पेट पीठ से चिपक रहेगा तू क्या खाएगा घी शक्कर भोर हुई उठ उठा हाथ में गैती कस्सी ढूंढ़ ले धंधा तेरे साथी चले गये सब दौड़ मिलाले उनसे कंधा पिछड़ गया तो पछताएगा खाली हाथ लौट आएगा बच्चे जब रोटी मांगेंगे क्या कहकर तू बहकाएगा उन्हें दिलासा देते देते आ ना जाए तुझको चक्कर पेट पीठ से चिपक रहेगा तू क्या खाएगा घी शक्कर पत्नी है बीमार बहुत और बेटी के भी करने पीले हाथ फूँस गल गया छान टपकती ऊपर से आने वाली बरसात दवा दहेज़ जुटाना होगा छप्पर नया बनाना होगा पेट की अगन बुझाने हेतू चूल्हा नित्य जलाना होगा माथा पकड़ निराशा में तू कहीं बैठ ना जाना थक कर पेट पीठ से चिपक रहेगा तू क्या खाएगा घी शक्कर Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

मुकद्दर

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कैसा लगता है तब जब दो दिन की बासी सूखी बाजरे की आधी रोटी को धरती पर धरे बड़ी उत्सुकता से कोई लम्बी हरी मिर्चें रगड़ रहा हो फ़िर चिथड़े हुई कमीज़ के बाएँ आस्तीन से आँख नाक में आया पानी पौंछते हुए खाली कुल्हड़ भरने घड़े तक जाए और पलट कर देखे --  लुटेरा सा एक कौआ झपट कर उस चिरप्रतीक्षित सूखे टुकड़े को चौंच में दबा झौंपड़ी के बाँस पर जा बैठे पंजों में पकड़ खाने लगे। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"ये. खामोशी नहीं अच्छी"

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आज क्यों बेचैन हो तुम न देखा था तुम्हें पहले कभी ऐसे क्षणों में कठिन है इस स्थिति में प्रिय निर्वाह करना मिलाकर आँख शरमाना झुकाना हाथ मलना दबाना होंठ दाँतों के तले और आह भरना उषा की लालिमा थीं आज कैसे रैन हो तुम आज क्यों बेचैन हो तुम हँसी-- फूलों का झरना, केश-- इतराती घटा नयन-- अमृत कलश और वक्ष-- कोई उपमा ही नहीं सलोनी साँवली सूरत अदाएँ शोख़ चंचल बहुत ढू़ंढ़ा मिली तुम सी कोई प्रतिमा ही नहीं सत्य मानो विधाता की अद्वितीय देन हो तुम आज क्यों बेचैन हो तुम मचलती साँस की अव्यक्त सी ये छटपटाहट क्यों धड़कता दिल अविरल गीत कैसा गा रहा है उमड़ती भावना अंतस में क्या कुछ कह रही है वो भय कैसा है जो उसको दबाए जा रहा है ये ख़ामोशी नहीं अच्छी कि मीठे बैन हो तुम आज क्यों बेचैन हो तुम Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"जी चाहे"

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जिस दिन से देखा है तुमको मेरा बिकने को जी चाहे राम कसम सच कहूँ प्रिये कविता लिखने को जी चाहे सारी दुनिया का आकर्षण आ सिमटा इन दो नयनन में क्या यत्न करूँ हे देव अवश कर रहा मुझे ये आकर्षण चन्दन वन की सारी सुगंध बस गई सजनी तेरे तन में कोमल तन भावुक मन चंचल लोचन देते हैं आमंत्रण है ज्ञात दोपहरी जेठ की है किन्तु सिकने को जी चाहे कुन्तल कमनीय कपोल कमल कोकिल कंठी केसर क्यारी कंचन काया कोमल कोमल कचनार कली कच्ची कच्ची सरिता समान सलिला सुखदा स्नेहिल सर्वांग सुघड़ सुंदर सुख सुविधा सी सम्पन्न सहज सम्बंधों सी सच्ची सच्ची मैं हूँ अरूप तुमको पाकर तुमसा दिखने को जी चाहे Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बेटी बोझ नहीं है"(कविता)

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जब मैं पैदा हुई ना थाली बजी ना गाया गीत गया बेटा आया तो ढोल बजे और ख़ूब सुना संगीत गया मुझे पढ़ाया नहीं घरेलू कामों में ही उलझाया बेटे को पढ़ने की खातिर दूर देश भी भिजवाया बिन दहेज़ कमजोर से घर में मेरा झटपट ब्याह किया बेटे की शादी में लेकिन दान-दहेज़ अथाह लिया बहुत हुआ उत्पीड़न लेकिन मैं हँस हँस कर झेल गई कई बार परिवार की खातिर प्राणों पर भी खेल गई पिता अकड़ में चूर रहे अम्मा निशि दिन कुढ़ती रहती हालातों के बीच बेचारी टूट टूट जुड़ती रहती समय ने जब करवट बदली तो एक भयंकर पैंच फँसा कुछ वर्षों के बाद पूत जब जा अपनी ससुराल बसा माँ ये सदमा झेल न पाई समय से पहले चली गई उसने जो थी बुनी कल्पना कैसे कैसे छली गई पिता का टूटा अहम बुढ़ापा जैसे एकाएक आया रिश्ते सारे हुए खोखले छोड़ गया अपना साया किया मशविरा पति से हम बापू को अपने घर लाए बच्चे नाना जी को घर में पाकर बेहद हर्षाए यहाँ सुखी हैं किन्तु फ़िर भी ग्लानि उनको तड़पाती करके याद पुरानी बातें अक्सर नींद नहीं आती जब देखो तब कहते रहते मैंने बहुत किये हैं पाप बिल्कुल सूख हुए वो कांटा नहीं छूटता पश्चाताप Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मैं वो मीठी याद नहीं हूँ"

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है कोई जो पत्नी की मनुहारों में हो व्यस्त नहीं है कोई जो पत्नी के व्यवहारों से हो त्रस्त नहीं होंगे बहुत भाग्यशाली पर मैं कोई अपवाद नहीं हूँ जिसे ग़ौर से सुना गया हो मैं ऐसी फरियाद नहीं हूँ काले किये हाड़ बहुतेरे फ़िर भी भृकुटी रही तनी इच्छाओं की ज़रूरतों पर मार हमेशा रही बनी भाग भाग कर थक जाता विश्राम का जब जब होता मन तब ख़याल ये ही आता कि घर में होगी रार घनी लेकिन कभी मर्द की भाँति किया न हो प्रतिवाद नहीं हूँ करता क्या जिम्मा मेरा था मुझको ये सब करना ही था 'विवाह बिना निर्वाह नहीं' इस उक्ति को वरना ही था 'शादी तो बरबादी है' ये बहुत बाद में चला पता मजबूरी और फ़िर समाज के तानों से तरना ही था जिससे पहली बार हुआ हो केवल वो उन्माद नहीं हूँ दया धर्म और हया शर्म को अपनाया ये हाल हुआ रंग जाता औरों के रंग में क्यों न मालामाल हुआ हूँ बेहद संतुष्ट आत्मा मेरा देता है आशीष इसी सहारे हे ईश्वर ये मितभाषी वाचाल हुआ इस दुनिया का तुम जानो मैं 'उस' घर में बरबाद नहीं हूँ परछाईं सम पीछा करती अंधकार में रही न साथ जीवन के आख़िरी दिनों में क़िस्मत का ऐसा परिहास पूर्व जन्म के संस्कार -- कुछ ज

"सेदोका (जापानी विधा)"

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रे बचपन! टूट टूट बिखरा बिखरा तो निखरा अब सम्पन्न ख़ूब मेरा जीवन धन्यवाद अर्पन बचपन ने कैसी मारी ठोकर बन गया जोकर काम तमाम है औरों के हाथ में अब मेरी लगाम बचपन से लकवाग्रस्त हूँ मैं लेकिन मस्त हूँ मैं पैरालम्पिक सिद्ध हुआ आशीष अब हूँ न्यायाधीश खानाबदोश बेचारे भूबलिया क़िस्मत भी छलिया चित्तौड़गढ़ जाने कब छूटा था मुगलों ने लूटा था Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"ईर्ष्या"(कविता)

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कल कल करती नदिया तीरे ठण्ड़े जल के बहुत निकट वृक्षों के गहरे झुरमुट में लम्बी लम्बी शाखाओं पर बड़े जतन और परिश्रम से तिनका तिनका चुन चुन कर उत्साहित हो बया समूह ने सुंदर सुघड़ घरौंदों का निर्माण किया -- वंश वृद्धि के हेतु सजाए अण्ड़े उनमें एक प्रातः जब निकला सूरज हर्षित होकर बया झुण्ड़ ने गाये गीत मधुर मनभावन बंदर के इक बड़े टोल को ना जाने क्यों लगा अपावन टूट पड़े नक्सलियों जैसे डाली डाली पर वे क्रूर तार तार हो गये घरौंदे और अण्ड़े भी चकनाचूर बेचारी निर्दोष बया के  बिखर गये सारे अरमान लाचारी और मजबूरी में भागीं तुरत बचा कर जान Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'