"बतकही"(कविता)
बड़े लोगों की सुनों बातें ,
कालिखें नहीं कहीं भी पुतवाते ।
गुरू पे बतकही हीं सुनाते ,
क्यों ये रूतबा हैं पाते ?
सीना चौड़ा किये आते -जाते ,
अकेले दानी क्या हैं कहलाते ?
गरिमा की ये कथा सुनाते ,
वित्तवासना में हांलाकि अज्ञानी समाते ।
क्या कहूँ जनता के नाते ,
शबरी को प्रभु हैं भाते !
तौहिनी करना हैं ये सिखाते ,
स़़च़ के सारथी स्वयं को बताते ।
शिक्षा पे सवालें हैं उठाते ,
जैसे हो अलबत्ता अंधेरी रातें ।
बातूनी तो थे सदा इतराते ,
उपमा दे किसे दोषी ठहराते ?
ज्यादा कहने से वही घबराते ,
जो पसीना जरा भी बहाते ।
सीता को थे कौन डराते ,
झूठी पीड़ा क्या रंग जमाते ?
Written by विजय शंकर प्रसाद
पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )
nice....
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