"हक़ीक़त"(कविता)

अब कहां मौज़-ए- सब़ा आती है रोज़-रोज़

अब बाग़-ए-वफ़ा में बुलबुल कहां गाती है रोज़-रोज़


सरकार यूं ही  कितना मिलते रहोगे सबसे

वो भी कहां आ पाएंगे इनायत को रोज़-रोज़


जलेबी की चाशनी में सीझी  मीठी सी उलझनें

चिपकी हुईं हैं ख़्वाब से कहां सुलझ पातीं हैं रोज़-रोज़


देखो ज़रा ग़ौर से सड़कों पे चलते हुज़ूम को

समझाये इन्हे कौन इमदाद नहीं बंटती है रोज़-रोज़


कर्फ़्यू  लगा हो चाहे या फौज़ खड़ी हो

मानती कहां है भूख लग जाती है रोज़-रोज़


अब देखना है कितना साथ देता है मुकद्दर

कुछ भी न मिले तब भी दुआ लोग मांगते हैं रोज़-रोज़ 


हद भी है इक बंधन जानते हैं सभी फिर भी

ख़ुद की ज़द किसको नज़र आती है रोज़-रोज़


विपरीत हालात में भी खुशनुमां मंज़र सज़ाना होगा

कोशिशें करते रहो खुशगवार मौसम कहां आता है रोज़-रोज़

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