"हक़ीक़त"(कविता)
अब कहां मौज़-ए- सब़ा आती है रोज़-रोज़
अब बाग़-ए-वफ़ा में बुलबुल कहां गाती है रोज़-रोज़
सरकार यूं ही कितना मिलते रहोगे सबसे
वो भी कहां आ पाएंगे इनायत को रोज़-रोज़
जलेबी की चाशनी में सीझी मीठी सी उलझनें
चिपकी हुईं हैं ख़्वाब से कहां सुलझ पातीं हैं रोज़-रोज़
देखो ज़रा ग़ौर से सड़कों पे चलते हुज़ूम को
समझाये इन्हे कौन इमदाद नहीं बंटती है रोज़-रोज़
कर्फ़्यू लगा हो चाहे या फौज़ खड़ी हो
मानती कहां है भूख लग जाती है रोज़-रोज़
अब देखना है कितना साथ देता है मुकद्दर
कुछ भी न मिले तब भी दुआ लोग मांगते हैं रोज़-रोज़
हद भी है इक बंधन जानते हैं सभी फिर भी
ख़ुद की ज़द किसको नज़र आती है रोज़-रोज़
विपरीत हालात में भी खुशनुमां मंज़र सज़ाना होगा
कोशिशें करते रहो खुशगवार मौसम कहां आता है रोज़-रोज़
Written by ज्ञानेन्द्र पाण्डेय
nice....
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