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"वक्त की हर शै गुलाम'(कविता)

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ज्यों हवाओं का रुख ,बदलता रहे पल पल, कभी उमस भरी होती वो कभी लगे शीतल, धूल भरी होती कभी वो ,कभी बहती निर्मल, लू के थपेडों से यूँ कभी बदन को करे घायल,  मिज़ाज के साथ जो चलते, होते वही सफल, दुखी होते वो कभी,खुद जिद में जाते निकल। ।1। ये वक्त भी बहुरुपिया सा बदले अपनी शकल, इंसाँ संग देता जो ये,कांटे भी बनते सरस फल, घूरे के दिन बदलते,ज्ञानी भी होते दिखे पागल, रंक भी हो जाते राजा बंदरों से सिंह हुए घायल, बसंत से रूठी खुशबू ,बरखा से हार गया बादल, समझदारी उसी में है,समय के साथ बहता चल। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"प्यार का फूल खिला था मुझमें"(कविता)

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छिड गयी ,जब से वो बात बन्धन की, कुछ सलोने सपन आने लगे थे मुझमें। उपवन में छू लेता जब भी कलियों को, अजीब सी गुदगुदाहट लगती है मुझमें। गुमसुॅ हो जाता उन चर्चा के खयाल पर, भ्रमर ,भी वो गीत सुनाने लगे थे मुझमें। ।1।         पहली मुलाकात मेरी जब से हुई तुमसे,         तभी से प्यार का फूल खिला था मुझमें।         चितवन को समझा, झुके इन नयनों ने,         दिल भी बगावत, करने लगा था मुझमें।         गेसुयें लहराई गालों पर,पहली नजर में          डसा ऐसा,बस नशा छा गया था मुझमें। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"वो दौर था…… ये दौर है। "(कविता)

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वो दौर था, विचार पारदर्शी भले न था, दृष्टि भी वैश्विक भले न थी, परपीड़ा में  वेदनाएं तो थी आपस में संवेदनायें तो थी, वाणी में लरजता थी, रिश्ते में वर्जनायें थी, वैसे सीमित साधन ,जरूर थे, पर ज्ञान साधना में मगरूर थे, समुचित ज्ञानार्जन की निष्ठा थी, बाधा में  नियति की आस्था थी, व्यस्तता बावजूद सुकून के पल ढूंढते थे, बडी बाधाओं में भी धैर्य से काम लेते थे, पूजा के बहाने पेडों की सुरक्षा होती थी, ग्रास के बहाने पशु प्रेम परीक्षा होती थी, ये दौर है, ये विचार पारदर्शी भले हैं,  वैश्वीकरण के भाव भले हैं, परपीड़ा की वेदनाएं चली गई, वे सारी संवेदनायें भी छली गई, वाणी भी शुष्कित हो गई, वर्जना अपरिभाषित हो गई , अब साधनों की कमी नहीं, सो ज्ञान की गति थमी नहीं,  नियति के सहारे कुछ नहीं,  पशु पेड की रक्षा कुछ नहीं, सुकून के पल प्रायः खत्म हुए, अधीरता चतुर्दिश बढ गये। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"पहले मुझे लगता था……पर अब लगता है"(लेख)

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  पहले मुझे लगता था……पर अब लगता है ……………………………………………………             समय परिवर्तनशील है,इसके साथ सम्यक् जीवन यात्रा में अनेकों प्रकार के रास्तों से दो चार होना पडता है। सफर करने के दौरान  मोड,तिराहे और चौराहे भी मिलते है जिनको पार कर गंतव्य तक पहुंचना होता है।एक ओर दुर्दिन के गहराते अंधेरी रात की साया में सहयात्री न होने पर कभी कभी अज्ञात भय ,कभी अपने पैरों को पीछे खींचने के लिए मजबूर करता है तो दूसरी ओर अभीष्ट और आनन्दमयी लक्ष्य मिलने की लालसा लिए हमारी आत्मा,धैर्य बधाॅती हुए भय को निर्भयता से चीरते चले जाते हैं।यह अडिगता कोई साधारण वस्तु नहीं,बहुत विरले लोगों में ही पाई जाती है।अदम्य साहसी व्यक्ति ही दुर्दांत झंझावातों को पार कर अक्षुण्ण अन्वेषक "कर्मवीर" की उपाधि प्राप्त करते हैं ।शाश्वत और सनातन सिद्धान्त ही इनसे संघर्ष करने की प्रेरणा के साथ साथ जीवटता का आनन्द देता है ।यह उत्तेजक परिदृश्य ही अंत में "पहले मुझे लगता था……अब मुझे लगता है" के बीच का अंतर महसूस कराता है और एक ओर प्रारम्भ की अल्प या बिना अनुभव का जीवन और दूसरी ओर अन्तिम छोर पर बृहद और पर्याप्त अनुभव

"यादें पीछा करती हैं"(लेख)

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  यादें पीछा करती हैं  ………………………… "याद" शब्द मस्तिष्क के भीतर उपस्थित स्मृति कोष में विद्यमान होता है। "स्मृति" के साथ "विस्मृति" भी जुडा होता है जिसके कोष में बहुत सी मनुष्य के जीवन में हो चुकी घटनाओं व दुर्घटनाओं के कथानक दफन होते हैं, जो तर्क वितर्क के अवसर पर उद्दीपन स्वरूप स्मृति कोष में स्वतः आकर इतिहास को जागृत करते है ।जो घटनाएँ समाज पर दूरगामी प्रभाव डालती हैं वे "यादों"के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं । ऐसी यादें समाज को चुभन या प्रेरणा के रूप में विद्यमान रहती हैं । हमारा मानना है कि हर व्यक्ति के विगत जीवन की घटनाओं का अपना एक इतिहास होता है जो समय समय पर उकेरे जाने पर प्रस्फुटित होता है।जिन जिन परिस्थितियों से वह अपने जीवन को गुजारता है वो पल पल की परिस्थितियाँ ,यादों के रूप में पीछा करती हैं और अपने साये उसको पीछे खींच ले जाती हैं।बचपन में आनन्द के मीठे फल, यौवन में अस्तित्व के लिए संघर्ष, अधिकार और कर्तव्य के दायरे में रहकर समाज में उचित अनुचित क्रिया प्रतिक्रिया का स्वरूप हमेशा यादों के रूप में विद्यमान रहता है यही

"कांटे भी,बाग की शान"(लेख)

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 कांटे भी,बाग की शान …………………………… "कांटे को काँटा निकालता है,फूल नहीं"। यह कहावत स्वतः ही कांटों के महत्व का बखान करता है।यह सही है जिस फूलों या फलों वाले पेड में कांटे होते हैं वे कम जल सिंचन कर जीवित रहते हैं और उनमें फूल व फल अधिक सुरक्षित होते हैं। चिडियाँ घोसले व मधुमक्खियाँ शहद के छत्ते अधिक लगाते हैं,ऐसे में इन पेडों के महत्व बढ जाते हैं।बाग में घुसते ही इन पेडों पर लगे रंग बिरंगे फूल अपनी अलग शान- बान बनाते हैं ।इन सबके पीछे तर्क यह है कि काँटे अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं । बाग भी वही सुरक्षित अधिक होते है जिनकी बाउंड्री कांटे वाली बेलों या पौधों से युक्त होती है। हमारे जीवन दर्शन में भी यह बात परिलक्षित है कि सुख शब्द ,कष्ट या दुःख के कारण ही सार्थक है।हमारे समझ से विषम परिस्थितियाँ ,व्यक्ति के मस्तिष्क और शरीर को अधिक सक्रियता और सहनशीलता प्रदान करती है जिससे वह अपने जीवन में अधिक परिपक्व और धैर्यवान होता है जो दुख व विषम परिस्थितियों को झेलता है।एक तरफ सुख जीवन को परमानंद से भरते हैं तो दूसरी ओर दुख जीवन की कडुवी सच्चाई और हकीकत के धरातल का अहसास कराते है।हम जब एक

"मूकता या मुखरता : हो यथेष्ट"(कविता)

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 बात के विरोध या समर्थन का क्यूँ न हो, सिर्फ मुखरित होना ही जबाब नहीं होता। चलते ऑधी में उखड रहे बिरवे क्यूॅ न हों, धरा पे जमीं घास भी माकूल जबाब देता। शान्त का मतलब लोग सहन से क्यूॅ न लें, चुप ज्वालामुखी का धधकना कम होता। ।।1।। मानव स्वच्छंद बने ,नियति मूक क्यूँ न हो, वक्त के सटीक उत्तर का,जबाब नहीं होता। उत्पीडन से निकल रही आह,गूँगी क्यूँ न हो, नियति से पडी लाठी का जबाब नहीं होता। बने माहौल में अर्ध सत्य भटकता क्यूँ न हो, ऐसे में चुप होने का कोई प्रभाव नहीं होता। ।।2।। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"नजरिया बदलिए, जनाब"(लेख)

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 नजरिया बदलिए, जनाब व्यक्तिगत रूप से जहाँ तक हमें  ऐसा महसूस होता है कि इस दुनियाँ को यथेष्ट से समझ पाना आसान नहीं है।कारण देश,काल,परिस्थति के गति अनुसार दुनियाँ में परिवर्तन परिलक्षित होना स्वाभाविक है।अतः एक क्षण हमारे द्वारा दी गई प्रतिक्रिया अनुकूल नजर आती है तो वही दूसरे क्षण उसी कारण के लिए प्रतिकूल हो जाती है।अतः अपने अनुभव का प्रयोग कर अपने नजरिये में बदलाव आवश्यक है।ये दुनियाँ पर्यावरण की दृष्टि से जितनी सुन्दर और सौम्य है उतनी ही परिस्थितिजन्य दुर्गम और असाधारण है।कालान्तर से यदि विचार करें तो हमें इसमें आमूल परिवर्तन दिखाई देता है,यह बहुत असाधारण है।जहाँ तक हमारी समझ है कि हम सरल मानवीय दर्शन को अपना लें तो एक हद तक आनन्द की प्राप्ति से नहीं रोका जा सकता।जैसे : जो नसीब में है,वो चलकर आयेगा।जो नहीं है वो आकर चला जायेगा; अगर जिन्दगी इतनी अच्छी होती तो रोते न आते,अगर बुरी होती तो लोगों को रुलाकर न जाते;भव्य जीवन जीना बुरा नहीं है;पर सावधान,जरूरतें पूरी हो सकती हैं, तृष्णा नहीं ;कभी गुरूर आये तो असलियत जानने कब्रिस्तान का चक्कर लगा लेना,क्योकि वहां कई बेहतर इंसान मिट्टी में दफन

"अहसास : पिता के वजूद का"(कविता)

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 हम चाॅद सितारे हैं ,उस परिवार के,  जिसका पिता एक आकाश होता है। जिसके रोशनी से दमकता पूरा घर, वह तो,पिता का ही प्रकाश होता है। ।1। आसमां से ऊंची, गर है जगह कहीं, तो वह, पिता का ही  स्थान होता है। कंधों पे बैठा लेते,तब लगता मुझको, इस सारे जगत का अभिमान छोटा है। ।2। हमारे दुलार पे कुछ भी कहते नहीं वे, उस चुप्पी में छुपा यार नजर आता है, हमारी खुशी में लाखों गम भूल जाते, तोतली पे दिल बाग -2 नजर आता है। ।3। जोश आता कुछ कर गुजरने का पापा, जब अंगुली  तुम्हारी हथेली में आता है। सभी परिवारों के आदर्श बन जाते तुम, जो मेरे उन्नति में चार चाँद लग जाता है। ।4। तुम नहीं,तो लगता इस घर की छत नहीं, जरा सी बयार में, तूफान नजर आता है। आग के शोले से लगते,सारे बन्धु वाॅधव, खिडकी से ये शहर वीरान नजर आता है। ।5। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"सदी की त्रासदी: कोरोना"(कविता)

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अब जिद मत कर मानव! मान जा, सदी की त्रासदी है यह, तू जान जा, वैश्विक महामारी है यह,पहचान जा, कहर बरपा रहा,सो हो सावधान जा, शहर- 2उजडे,बदले यूॅ शमशान जा, नजारा देखना,तो नदी के उफान जा। ।1। यह दिखे नहीं,पर कालों का काल है, मास्क पहनो!पीछे देखो महाकाल है, सावधान !निगले बन मृत्यु अकाल है, गाँव,शहर,खेत,मेड पर फैला जाल है, न देखे गरीब अमीर,ये ऐसा दुकाल है, खींचता हूँ दोस्त,पीछे देख कंकाल है। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"मानवता के अलंकार"(लघुकथा)

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 मानवता के अलंकार भामिनी अपने बेटे भावुक को समझा कर कह रही थी कि  यह सही है कि हमारी पीढी और तुम्हारी पीढी के विचारों ,कलापों के ढंग, सम्पूर्ण परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर है ।लगभग दो दशकों में आया परिवर्तन अत्यन्त असाधारण है।ड्राइंग रूम में बैठे भावेश पत्नी के वाक्यों को ध्यान से सुन रहे थे।14 वर्ष का भावुक  माँ की बात सुनकर बोला,मम्मी ! इस असाधारण रूप से आये सूचना प्रौद्योगिकी के युग में जितनी सुविधायें मिली है,,उतनी ही कदम कदम पर चुनौतियां और संवेदनशीलता भी बढ गई है।         भावेश ने इस  वार्तालाप में अपनी बात भी रखने की चेष्टा कर ही रहे थे ।चल रही वार्तालाप पर भावुक के पापा बोले कि आप दोनों की बातें अपनी अपनी जगह सही है। हमारा मंतव्य है कि सारी सुविधाओं,कार्य करने  में सरलीकरण के साथ अब आदमी के पास खुद को सोचने और समझने का समय नहीं है। इस सभ्यता के विकास में जब से मानव ने अपने जीवन को समय से नापना शुरू किया,उससे जीवन विकसित हुआ परन्तु कुछ खो भी दिया।हमें कहने में कोई संकोच नहीं कि अब मानव सीमित,संकुचित और स्वार्थी हो गया।पहले का जीवन आसान और भावपूर्ण था।बचपन के दिनों में हर

"मासूम छाँव : होगें सख्त"(कविता)

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ढूॅढता है छाँव,किसी सघन बृद्ध पेड  की, पथ पर चलता राही जब आतप होता है। तो तन का शिकन पाके स्वेद कण थपकी, ममता की छुअन पा,शान्त संतृप्त होता है। कुछ अनमन हो,तपन से कुछ अनबन कर, हो उस छाॅव के आगोश में निश्चिंत सोता है। ।1। कुहासे से घिरी खुद की परछाई हॅसती तब, जब वो उतराती संताप का आगाज होता है। न कहो सजन उन गुनगुनाते कपास फाहे से, उडकर जमा होते वहीं,जहाँ परवाज होता है। दरकते दरख्त से झिनते साये का मलहम गर, उन बाशिंदों पर लगता, जो मुहताज होता है। ।2। जब दरख्त कम होंगे,मासूम छाँव होंगे सख्त, इंक से खत से क्या, पानी का विकास होता है। कायनात पर सब धूप ही होगी साये के घेरे में, खूॅ की बूंदो में क्या,शबनम की तलाश होता है। इंसानियत के छाया को जब धूप बनकर ही घेरे, शहर से निकले टोली पे क्यों छिड़काव होता है। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"जीवन रूपी कमरे को प्यार से सजायें"(लेख)

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 जीवन रूपी कमरे को प्यार से सजायें यह मानव जीवन जितना सुन्दरतम,आनन्दमय और नियति द्वारा प्रदत्त सर्वोत्कृष्ट उपहार है उतना ही जगन्नियंता ने जटिल भी बनाया है।नाशवान शरीर के साथ भावी वश घटने वाली  हानि, लाभ, जीवन, मरण,यश और अपयश को विधानवश अपने पास रखा है और नौ विकारों(काम,क्रोध,मद,लोभ,मोह,ईर्ष्या आदि दुर्बलताओं) को प्रत्येक के जीवन के साथ छोड दिया है।उसने अदृश्य रूप में ,पर खोजने से परमदर्शनीय  सर्वव्यापकता से अभूतपूर्व,अवर्णनीय आनन्द को सर्वत्र बिखेरा है, इसलिए कि मानव को अनुपम बुद्धि प्रदान कर जीव शिरोमणि बनाया और वह सार्थक प्रयास कर खोजे।अब हमें अपने जीवन रूपी कमरे को प्यार से सजाकर धन्य बनाना है।क्यों न हम इस जीवन रूपी कमरे के दीवारों को छोटे बच्चे के मुस्कुराते हुये चेहरे से भर दें,संवेदना दें दीवारों को,जिनपर कोई मुँह सटाये तुम्हारे न आने तक कोई इंतजार करता है,साथ में पलट कर उन दीवारों को उन उम्मीदों से,जिनसे छूट गई थी"चलता हूँ, कहने की आदत।कमरे की दीवार पर वो थाप देनी होगी जो उस हर टकटकी को आत्मसात कर ले और वे लम्हे और अहसास संजोना होंगे जो कदम कदम पर जिन्दगी के हर आहट को उमं

"वो बात बने वतन में"(कविता)

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पंख हो गये,उड लो उन्मुक्त गगन में, केवल कह देने से अब न बनेगी बात। हौसले की बात करनी होगी चिंतन में, क्षितिज पार जाने का हो पैदा जज्बात। घटाओं से भिडने का बल देना बदन में, घोर अंधेरी रात मिटे,ऐसा जन्मे प्रभात।  ।1।  जज्बे को सलाम, देना होगा तब मुझमें, चाॅद से मिलने मैं जब पार करूँ निर्वात। जोशीले हों,पर फडफडायें पूरे लगन में, उस ओर,जिस तरफ उठ रहे झंझावात। परियों के किस्से से,वो बात बने वतन में, गुड्डा गुड्डी की शादी में हो जाये ऐसी बात।  ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"रात,तुम कहाँ से आती हो"(लेख)

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रात,तुम कहाँ से आती हो समय तो मुट्ठी में भरी रेत की तरह फिसलती जाती है,तेली के बैल के जीवन जैसी दिनचर्या । बस इस शरीर में जब तक चेतना रहती है,पता नहीं किस मंजिल को पाने बेतहासा दौडता रहता है,पता नहीं कैसा लक्ष्य जिसका अन्त ही समझ में नही आता।अपने से कुछ भी पूछने की फुर्सत नहीं कि मैं कौन हूँ, मेरे इस जीवन का परम उददेश्य क्या है? आखिर परमशक्तिवान ईश्वर ने इस संसार में क्यूॅ भेजा,कुछ तो विशेष बात तो रही होगी।बस। रोज प्रभात होते ही दौडना शुरू कर देता है और जब तक रात नहीं होती,समाप्ति का नाम नहीं होता।सच में निशा !तुम कितनी सहृदय,ममतामयी,शीतल वात्सल्य से पूर्ण हो । श्वेत सितारों से युक्त यह जीनी आसमानी ओढनी से जब तुम सूर्य की तपिश से बचने के लिए अपने सिर पर डालती हो,हे रजनी! उस समय खुद तो लालित्य से पूर्ण लगती हो और उस ललित और निश्छल ममत्व से हमको भी अपने गोद में लेकर इतना मदहोश कर देती हो कि मैं अपनी सारी सुधबुध भूल जाता हूँ, दिनभर क्या हुआ?,कहाँ आहत हुआ? किस ने इस शरीर और आत्मा को शान्ति और किसने अपने पशुता से छलनी किया ?अरी विभावरी ! तुम जब इस नीले सौम्य से गगन में प्रशान्त होकर अपने गो

"रात सोती क्यों नहीं"(कविता)

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धडकनों ने अपने प्यारे दिल से कहा, हमारा जीवन यूँ सदा कम्पनों से रहा, रक्त बूदों के चलने से काँपे तेरा वदन, बस इसी से रमाया ऐसे ही अपना मन, तुम उनींदे न रहो सो हम भी सोते नहीं, तभी राहे इश्क क्यों आसान होते नहीं।  ।1। जन्मी जहाँ,दौड रहीं छोडके वो जगह, सोती नहीं,पाकर वे धानी मैदानी जगह, सरिता बन के उमडती सदा सागर ओर, शाश्वत हो ये जीवन,रहे आनंद चहुँ ओर, इश्क नादान है,इसकी राह आसान नहीं, चाॅद न होने पर,क्यों ये लहरें सोती  नहीं। ।2। सारा जग सोता है,चल रहे साँसों के संग, पर नियति ने जोडा रात को तारों के संग, टिमटिमायें ये सदा, औ जलें धरा के दिये, रहें परमानन्द में ,जो हमें भी संग में लिए, मृत्यु है अटल,तो जीवन शाश्वत क्यो नहीं, हम भी फिक्र में, यह रात सोती क्यों नही । ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"दुःख: मानव जीवन का अभिन्न भाग"(लेख)

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 दुःख: मानव जीवन का अभिन्न भाग प्रायः हम सभी के सम्पूर्ण  जीवन का सफर ऐसे मार्ग से गुजरता है जिसके प्रत्येक कण और प्रत्येक क्षण की घटनायें अप्रत्याशित और रहस्य से युक्त होती है,वास्तव में ये सारा जगत दो विपरीत शब्दों से युक्त है जैसे सुख-दुख; लाभ-हानि;यश- अपयश,चोटी-घाटी,प्रकाश-अंधकार इत्यादि । अतः चाहे अनचाहे रूप से ये सभी हर किसी के जीवन का अंग अवश्य बनते है।रही बात,इनके महत्व की, सो दोनों पक्षों का स्थिति समान है, यह ठीक वैसे ही है जैसे दिन का महत्व रात पर और रात का महत्व दिन पर आधारित है,हम लोगों ने भले ही अपनी मनःस्थिति के अनुसार अनुलोम,विलोम से जोड रखा हो।पर इतना तो तय है कि दुःख भी हम सभी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है।                हमारी धार्मिक आस्थायें,दर्शन और प्रेरणादायक गीत और रचनायें सदैव यह शिक्षा देते है कि यदि समय हमारी विचार इच्छा और कार्य के तदनुसार अनुकूल परिणाम न दें तो भी हम सबको अधीर नहीं होना है, बल्कि संयमित रहकर उस कठिन घडी की परीक्षा में खरा उतरना है क्योंकि इसी कालखण्ड में  मनुष्य के चरित्र और पौरुष में निखार आता है,दुख ही सच्चा साथी बनकर हमारी सभी प्रकार की क

"परवरदिगार का रहमोकरम :ईद"(कविता)

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लाखों मुश्किलें आई,और लाखों रंजोगम झेले हैं, रुशवाइयों के चलते, जाने कितने मंजर झमेले हैं,  दुआएं कबूल होने से ही बनें ये खुशियों के मेले हैं, गले  मिलने का वक्त है,वर्ना झंझट तो रेलमपेले हैं, इस खुशी के ईद में ,भूल जाएँ आपस के रंजोगम, अब फरियाद में मांग लें,परवरदिगार के रहमोकरम। ।1।  बडे तकदीर और तकलीफ से जश्ने आज आया है, मन्नतें पूरी होने पर ही ये खुशियाँ , सभी ने पाया है, हर रूह में  हो मंदिर,हर दिल में पाक इबादत गाह, धडकनों में उसका पैगाम हो औ मोहब्बत बेपनाह, इस खुशी के ईद में, भूल जाएँ आपस के रंजोगम, अब फरियाद में मांग लें,परवरदिगार के रहमोकरम। ।2।  खुशी में जन्नत होती, और खूनी जंग  होते जहन्नुम, जश्न लता के नग्मों से करें,औ रफी के छेडों तरन्नुम, डां0 कलाम के कलम का पढो ' विंग ऑफ फायर' जलियांवाला काॅल का फिर न जन्मे'जनरल डायर' इस खुशी के ईद में, भूल जाएँ आपस के रंजोगम अब फरियाद में मांग लें, परवरदिगार के रहमोकरम। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"विश्वास है :छटेंगा तमस घनेरा"(कविता)

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धडकती धडकनों के प्यार का उन्माद से , साँसों में अपनत्व के ताप का आभास हो, संवेदना से जंग विजय होने के जज्बात से , अपनत्व में आपस के विश्वास की बात हो। तमस घनेरा छॅट जायगा चाँदनी स्वागत से, बहती हवा में सोंधी महक का अहसास हो। ।1। रहें हर जीवन की अधिक बचाने का प्रयास, इस जिंदगी के सार के समझ का प्रकाश हो, गर लौट चलें अपने बीते पल के धरातल को, हर गोद में गर्माहट और ममता की प्यास हो, तमस घनेरा छॅट जायेगा प्यार भरे सौगात से, मानवता के तंग जमीं पे ऑगन की तलाश हो। ।2। जीवन बदला तेजी से जो मापा इसे समय संग, बहुतक खोया हमने,अनंत नियति से विलग हो, विकास के मानक मिले,पर न रही वो बात अब, खोई अखंडता पाने का ये फिर सच्चा प्रयास हो, तमस घनेरा छॅट जायेगा,यूँ मानव के जज्बात से, भूले अर्थ भाव में आये,फिर जीवन का स्वाद हो। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"माॅ, एक अक्षरधाम है"(कविता)

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माॅ, एक, शब्द है, ऐसा शब्द, जिसके आगे, सब शब्द,निशब्द। माॅ,  एक, स्वर है, ऐसा स्वर, जिसके आगे, सब स्वर,नि:स्वर। माॅ, एक, अक्षर है, ऐसा अक्षर, हैं जिसके आगे, सब अक्षर,निरक्षर। माॅ, एक, शब्द है, ऐसा अज्ञेय, न होती उपमा ऐसा होता उपमेय। माॅ में होती, एक आत्मा, जिसके आगे सिर, झुकाते है परमात्मा । माॅ, एक है, मर्म स्थान,  जिसके आगे, छोटा सारा जहान। माॅ,  में होता, एक उत्सर्ग, जिसके आगे, तुच्छ होते है स्वर्ग । माॅ में होती, निर्मल धारा, ममता धीरता की, तृप्त होता जग सारा। माॅ, में होता, निस्वार्थ प्रेम, होती करुणाकर, तुच्छ हैं सारे रत्नाकर । Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला