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"प्रपंची"(कविता)

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 अब तो जारी बारिशें बेमौसमी , खिड़की से झांकती है लड़की । अदा ख्वाब़ में कैदी वहमी , बिना चुल्हा-चौका के कैसे रोटियां पकी ? महंगाइयों में नहीं होती कमी , कुत्तें भी लगाये हैं टकटकी । लौटने दो सूरज की बेशर्मी, चेहरा पे पसीना से धकधकी । रातों की बातें -अंधेरा बेरहमी , हवायें भी दी हमें घुड़की । खिलौना से खेला बचपना अहमी , आग यहीं और चिड़िया चहकी । घोसला से पिंजर तक मौसमी , डरती बहेलिया से हो हक्कीबक्की । चौतरफा साजिशें और  प्रियतमा सहमी , परछाइयाँ भी सखी हेतु रूकी। गुजारिशें सांसों की कहाँ  रस्मी , प्रपंची से विषकन्या  क्या थकी ? कब्रों पे अकेले कहाँ आदमी , फिर भी अलविदा हीं पक्की ! Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"सिलवटें"(कविता)

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देवों द्वारा रचा गया होगा सुहागरातें , फिर आदमी तक आया ये बातें । दुनिया में फिर भी क्यों बहुबातें , सौंदर्यों के पीछे फिसलना ज्ञातें । उमंगों के रंगों को क्या सहलाते , सेजों पे सिलवटें क्यों हैं भाते ? इश्क और वासना पे क्यों सकुचाते , पृच्छा भी क्यों कवि के नाते ? सिक्कों से क्या ये हैं तौलाते , अंधेरा में जिस्म़ पे क्या हालातें ? ज्यों दिलों पे लहरें दरबाजें खटखटाते , फिर आग को कहाँ तक बुझाते ? चंदा की दिशा से  क्या लाते, बादलों के ओटों में  गुमशुदगी पाते। सितारों हेतु गंतव्यता पे हैं सवालाते , जागना नियति तो ख्वाब़ क्या मुस्काते ? अश्कें मिटाने में शब्दों तक जज्बातें , फूलों की पंखुड़ियों को कहाँ गिराते ? प्रियतमा ! तेरी अदा से क्या टकराते , स़़च़ को कहाँ -कहाँ दीवारें हीं झूठलाते ? आखिरी ख्वाहिश़ क्यों नदी में बहाते , समंदर को कैसे पीठें लम्हें दिखाते ? प्यासी मछलियां और पानी की ठाते ,  क्या नहीं तितलियां संग  भौरें   कतराते ? Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"सिसकियां"(कविता)

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आग और अंगराइयाँ में महफिल , सहलाना और पिघलाना क्या खता ? दरबाजा खुला रखा था दिल , सीढियां पे चढके आना-जाना पता । मखमली सेजें और नयना कातिल , नशीली रातों में क्या - क्या आहिस्ता ? अंधेरे में चहलकदमी भी हासिल , कहाँ तक रसपानें और कहाँ तीव्रता ? सिलवटें निशानी तथा फिसला चील़ , गुजरते लम्हों पे क्या - क्या थिरकता ? नोचते जिस्म़ पे सिसकियां साहिल, सुधि कहाँ और क्या लापता ? पर्दा डाला और ठोका कील़ , आईना  स़च़ पे है मरता । प्रियतमा की ख्वाहिश़ कहाँ काबिल , जवानी का सफर कितना अड़ता ? तेरी रागिनी में मैं मंजिल , कांटा पे बढा जुगनू गिरता -पड़ता । जहरों की बू बनाया गाफिल़ , सुधा हेतु तकदीर कहाँ पसरता ? गुजारिशें और बारिशें भी तंद्रिल़ , जिंदा लाशें कौन स्वीकार करता ? लूटना-लुटाना तक छाया आखिर बोझिल , सबेरे सूरज कैसे इश्क भरता ? Written by विजय शंकर प्रसाद पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )

"सवाल करो , सवाल करो"(कविता)

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 सवाल करो , सवाल करो अपने हक में , सवाल करो मजलूमो की पहचान बनो हक के लिए सवाल करो उठो , गिरो , लड़खड़ाओ अपने हक पर ना तरस खाओ विपरीत हो चाहे वक्त फिर भी तुम सवाल करो। कोई कितने भी सिल दे होंठ  जुबान को लहूलुहान करो रात के सन्नाटे को तोड़कर सुबह का तुम आगाज करो सवाल करो , सवाल करो अपने हक में सवाल करो ये मुफलिसी की बेड़ियां कब टूटेगी मुरझाए चेहरों पर हंसी कब छूटेगी खामोश बेटे हुकुमरानो से बेखौफ हो सवाल करो Written by  कमल  राठौर साहिल

"बात तो कर"(कविता)

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गुस्से  को   थूक   दे  जरा  बात  तो  कर मेरा  न  सही मोहब्बत  का  मान तो कर तेरा यू खामोशियों  से  घेरा चेहरा अच्छा नही लग रहा होंठसे कोई हरकत तो कर अब और ना तड़पा न ले  इम्तिहान  मेरा गलति  की  सज़ा दे  मूझे  माफ  तो  कर तेरा  गुस्सा  जायज़  है  पर  थोड़ी   इस  नादान  दिल  की  थोड़ी  फिक्र  तो  कर  भीगीं पलकें लेकर इस हाल में हम कहा   जाए   हो  सके  तो थोड़ी  बात  तो  कर  तुम  ही  हो जिसे मेरा  हाल ए दिल पता  है अब और  हमें टूटने पर मजबूर न कर Written by  नीक राजपूत

"बाल श्रम"(कविता)

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ज़िंदगी ने  पढाई  की उम्र में,   मजदूरी करवाई  दो वक्त की रोटी ने सारी खुशियाँ भुलाई,   खेल कूद  की उम्र में ज़िंदगी। ने चाय की  दुकान ढाबों पर,    मेहनत करवाई, ईंटे उठाकर  छोटी  उम्र, में  हमने  अपनी।   पीठ   तुड़वाई  जम्मेदारी ने, हमारी  जरूरतें  भुलाई   दो।   वक़्त की रोटी ने  कुछ  ऐसे, हमारी तकदीर,  बनाई  पूरी।   ज़िंदगी  श्रम मजदूरी  करते,  गुजरी   कदम    कदम   पर,   मिली चुनौती और कठिनाई। Written by  नीक राजपूत

"जुल्फ़े"(कविता)

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में  नही चाहता  की तुम जुल्फें बांध कर हवाओं   को नाराज़ करदो। इन्हें ऐसे ही खुले  रेहने दो। एक  यहीँ  तो है  जो मेरी  तमाम  हसरतें और ख्वाहिशो को जिंदा  रखतीं  है।   क्योंकि  वैसे तो मुझे बिखरी चीज़े    पसँद   नही  एक तेरी   जुल्फें ही  हैं जिस्से हमें  कोई गिला  शिकवा नही हमें  गले   लगा  ने का मौका तक नही मिलता   एक   तेरी  ज़ुल्फ़ ही गालो को  अक्सर चूमा करती है एक यहीँ औज़ार  बिखरा   कर जुल्फें  करतीं  हो तुम  वार जान तो तुम ले नही  सकती   बस   यहीं एक आसान तरीका जिस्से  तुम   हमारा  क़त्ल   करती   हो। Written by  नीक राजपूत

"धुम्रपान की लत छोड़ो"(कविता)

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नशा  जो  थोड़ी  देर के लिएँ  है मजा लत पड गई नशे की तो है एक  सजा आजकल  नशा  आकर्षक का केंद्र   बन चुका  है।  टीनएजर्स  तो  ठीक आजकल  बच्चे  भी  खैनी  गुटखा,    सिगरेट, के  गुलाम  हो रहें  है  बुरी  संगत  का  नतीजा  है जो  आपकों   जान-लेवा  कैंसर  जैसी  बीमारियों,  तक घसीट कर ले जाता है आपको   पता है कैंसर से पीड़ित सलोगों की  गिनति  हर साल  अधिक  होती जा   रही है  एक  साल  में करिबन आठ लाख लोगो  से  ज़िया दा मौते होती    हैं  कैंसर,  जैसी  बीमारियों  से  हमें  बचने के  लिए  खुद को  दूर  रखना   होगा बुरी आदतों  खुद  को  बचाना  होगा  क्योंकि,   हमारा   स्वास्थ्य है    बड़ा  अनमोल  आपको   दो  रूपए  की  खैनी  गुटका  अंत  मे  आपको    लाखों रुपए में  पड़ेगी जीवन बचाने के लिए धुम्रपान करना छोडो अच्छे   स्वास्थ्य से  जीवन का  नाता  जोड़ो Written by  नीक राजपूत

"सुपंथ पर चलें"(लेख)

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सुपंथ पर चलें सुपंथ पर चलने के लिये,परोपकारी कार्य सम्पादित करने के लिये,ज्ञानमयी वातावरण बनाने के लिये,एकता अखण्डता को मजबूती देने के लिये,परस्पर प्रेम बढाने के लिये,नयी पीढ़ी को साथ लेकर चलें,उन्हें आगे रखें,खुले मन से अवसर दें।ऐसा करने से घर,परिवार,समाज,देश की तस्वीर बदल जाएगी। अकण्टक जीवन बनाने के लिये,हम सबको अपनी सहन शक्ति और समझ शक्ति को मजबूत करना चाहिये।इसके लिये  हमें अपनी मन इंद्रियों को नियंत्रित करना होगा।द्वेष,ईर्ष्या,स्वार्थ,लोभ का त्याग करना होगा।सोलह कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिये ,आचार्य गुरू के सानिध्य में साधना करना होगा।तभी हम सब अज्ञान रूपी तम को मिटा सकेंगे,परस्पर प्रेम के दीप घर,घर,द्वार,द्वार,मार्ग में जला सकेंगे,लोक मंगल के गीत गा सकेंगे,दूसरों के दुख बाँट सकेंगे,प्रकृति की मोहक सुंदरता की कथाएँ,कहानियाँ, नयी पीढ़ी को सुना सकेंगे। आइये, घ्रणा,हिंसा को अतिदूर कर,अपनी मधुर वाणी से,सद्व्यवहार से,पारदर्शी चरित्र से,घर,परिवार,समाज को नया रूप दें। मानव जीवन में रूठना और मनाना एक क्रम है।कभी बच्चे रूठते हैं,भाई,कभी बहिन,कभी माता पिता,कभी रिश्तेदार और कभी मित्र । ज

"अदृश्य शक्ति"(लेख)

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अदृश्य शक्ति जिसके पास सद् विचारों की पूंजी है।अपने सत्कर्म पर विश्वास है।अदृश्य शक्ति से अटूट रिश्ता रखता है,प्रेम करता है और उसके बताये रास्ते पर चलता है।उससे बड़ा सौभाग्यशाली,और कौन हो सकता है। सच्चे प्रेम के रिश्ते शक्ति देते हैं,साहस देते हैं,सुदृष्टि देते हैं,ज्ञान देते हैं,सुख,समृद्ध,संतोष देते हैं।  इसलिये रिश्तों का मोती,अगर अपनेपन के माले से टूट कर गिर जाये, तो उसे झुक कर उठा लेना चाहिये।उसे साफ करके पुनः माले में पिरो लेना ही समझदारी है। नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी,यह सोना,हीरा,मोती,माणिक हैं और आप सिर्फ एक धागा।अगर आप सबको जोड़कर माला बना लेते हैं,तो आपकी कीमत,उन्ही के बराबर आँकी जाएगी,और अगर आप अपने को उनसे दूर रखते हैं,तो आपका अस्तित्व,मूल्य,पहचान शून्य से न्यून रहेगी।हमें अपने सद् विचारों से नूतन समाज का निर्माण करना है। भारत माता का लाल,अगर शीश झुकाता है,तो अपने माता पिता,बुजुर्ग,गुरुदेव के श्री चरणों में ,राष्ट्रध्वज सम्मान में या देव भूमि के वंदन,अभिनन्दन में।       भारत का बच्चा बच्चा शीश उठा कर जीता है,राष्ट्रहित में जीता है,राष्ट्र के लिये जीता है। आइये,हम सब गर्व से कहे

"समर्पण"(कविता)

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दिल -ओ जान मैं हार               चुकी सबकुछ तुम पर वार            चुकी पक्की डोर से बांध             चुकी अडिग-अटूट बन्धन हर सांसों का स्पंदन भी  प्रिय तुम्हीं पर है समर्पण  प्राण सुकूँ से है वंचित निष्प्राण हो गए तन मन रिक्त नहीं प्रीत अफसाने  कर चुकी विगत मैं पूर्ण समर्पण !! मालूम है तुम भी प्रतीपल अश्रुधारा में बहते हो रोते हो तड़पते हो एकाकी विरह मौन  सहते हो!! ढलती शामों के सागर में  जब-जब लहरें उठती हैं  नाजुक रगे मेरी टूटती हैं सुर-स्वर गले में घूँटती हैं!  कुछ तो पास नहीं मेरे प्रिय सब कुछ है तुम्हारा  वेकल दिल जब-जब मचला तुम हीं तुमको पुकारा !! आ जाओ एक बार सही हक से अपना कह दो अंधियारे मन में मेरे  प्रीत प्रज्वलित कर दो !! जनम जनम के बंधन को मत तोड़ो चटकाय टूटे फिर ना जुड़े कभी    जुड़े गांठ पड़ जाय !! मीरा सा पागल बन के  भटक रही मैं जोगन रिक्त नहीं अब प्रीत अफसाने कर चुकी विगत मैं पूर्ण समर्पण !! Written by  वीना उपाध्याय

"मत सोचना अधार्मिक हूँ"(कविता)

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तेरी याद में रसिया  मैं रात-रात भर जगती हूँ दीये चराग बन कर  मैंआहिस्ते- आहिस्ते       जलती हूँ !!     तुम क्या जानो      दिल की लगी        कितनी हूँ मैं           प्रेम पगी !!  बालक जैसे हृदय है  मत सोचना  अधार्मिक हूँ,      पवित्रता को       कायम रखती     गोपनीय कविता       मार्मिक हूँ !! सत्य -सनातन  धर्म आधारित मूल्यों की बुनियाद हूँ संस्कृति के बंधन तोड़ प्रेम रोग से बाध्य हूँ !!  काले बादल मंडराते हैं   जब-जब अपने प्रीत        फलक पर लरज-लरज आते हैं  तब-तब स्वप्न सजीले     गीत पलक पर !! वेदना के सुर -लय लिए भीगी गीत मैं गाती हूँ  प्रीत तपन संवाद लिए गहरी नींद सो जाती हूँ !! Written by  वीना उपाध्याय

"ससुर जी"(व्यंग्यात्मक लेख)

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ससुर जी ससुर शब्द सुनने में ही एक अजीब, बेकार शब्द प्रतीत होता है ।पर यही बेकाबू शब्द ससुराल पूजनीय हैं।यह ससुर जब घर में प्रवेश करते हैं तो  प्रधानाचार्य जी से भी बड़ा उनका पद होता है।प्रधानाचार्य जी अपने सीट पर बैठने की इजाजत दे देते हैं, पर ससुर जी के आने पर अपनी सीट पर ही नहीं बैठना है, अजी सम्मान करना है न । इज्ज़त के साथ साथ ससुर जी को एक और ख्याति प्राप्त है ।जीहाँ उन्हें घर के सभी सदस्य वैसे ही समझते हैं, जैसे रद्दी कापी, अब रद्दी पर सभी बिषयों का काम किया जाता है उसी प्रकार ससुर जी भी घर का सारा काम करें और जिसकी इच्छा हो उन्हें बुरा-भला सुना जाये,किसी की नजरों में उनकी इज्ज़त केवल कोल्हू के बैल के समान है। अपने परिवार के लिए जो दिन-रात खटता रहता है।जिसके रहते परिवार अनेक प्रकार की समस्याओं से मुक्त रहता है, परिवार उसको निर्जीव प्राणी समझ लेता है। दोस्तों दुनिया के समस्त ससुर पिता के समान ही होते हैं, वे कभी भी अपने बेटों को, बहुओं को ,पोते को अपनी परेशानी नहीं बताते।यह वही प्राणी है, जो दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह चलता रहता है और शाम को अपने परिवार को ताजा खाना खिलाने हेतु, स्व

"दहेज़"(कविता)

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भूल आई वो  अपने  घर आँगन   और  परिवार  छोड़ आई अपने  माँ बाप को  बसाने  नया संसार   मोहल्ले  वाले  पूछने  लगे दहेज़  में अपने  साथ  क्या  क्या  लाई   पहले ही दिन  ससुराल में कदम रखतें  हुई  उनके साथ। खिंचाई   कोने में  बैठी  सोचती  क्या मेरी  ज़िंदगी   की  यही  है    सच्चाई    दहेज का उन्हें अंदाज़ा भी न था वो  बिचारी  हथेलियों  में  अपने  माँ  बाप  के   संस्कार   ले आई    बेटी है लक्ष्मी का अवतार दहेज़ की  बात   क  रके  उसपर क्यो    कर रहे हो  अत्याचार   ठीक से  भूली भी  नही  होंगी अपनी माँ   का आँचल  पीता  का  प्यार वो  क्या जानें  देहप्रथा का  व्यापार Written by  नीक राजपूत

"पिता कि शान"(कविता)

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ज़िन्दगी के हर हिस्से से पहचान बहुत  है। पिता  से जीवन में शान और सम्मान  बहुत है। -------------------------------------------------- पीता हर आपदाओं से पहले पहचान जाता है। वक्त के हर घटनाओं से प्रभावित  है, इस लिए  जान जाता है। ------------------------------------------------------ पिता ओ कोहिनूर हीरा है,हर पल ऊजाला देता है अंधेरा तो इर्द-गिर्द  भटकता नहीं हर संकटों को  सम्भाल लेता है। ------------------------------------------------------- कभी  अंगुली  को पकड़ें कर चलना सिखाया।  कभी  आपनी डांट फटकार से सही  रास्ता  दिखाया। --------------------------------------------------------- कभी टूटते हौसले के नया हौसला दिया । कभी बड़ी से बड़ी गलतियों  को माफ कर दिया।  --------------------------------------------------------- धूप गर्मी  बरसात से लड़ता  रहा परिवार के लिए।  परिवार से ही परिवार के लिए दूर चला गया परिवार के लिए।  ------------------------------------------------------- पिता की अहमियत कभी  भी कम नही  होता । दर्द  को झेलते  हुए भी आखें  नम नहीं  होता। -----------------------------------

"पिता बच्चों के सामने मुस्कुराता है"(कविता)

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 जिम्मेदारियों की भट्टी में  सुलगते हुए भी , पिता सदा बच्चों के सामने मुस्कुराता है  हर मोड़ पर दिल पर  पत्थर रख, अपनी ख्वाहिशों को  दफन करके भी  बच्चों के सामने मुस्कुराता है।  खुद चाहे अनपढ़ हो  बच्चों की तालीम के वास्ते  तपती धूप में भी मुस्कुराता है।  चाहे जितना भी टूट जाए मगर  परिवार के लिए बरगद सा निडर  सदा ठंडी छांव देता हुआ  भी मुस्कुराता है। रातों की नींद को तिलांजलि देकर अपने आंसुओं को पोछ लेता है। पिता अपने बच्चों के खातिर हर सुबह हिमालय सा खड़ा होकर बच्चों के सपनों को  नए पंख देता है। स्वयं फटे हाल कपड़े और जूतों में सुलगती सड़कों पर चलता है। सांझ ढले बच्चों के लिए नए कपड़े और जूतों की  सौगात देता है। कभी नीम से कड़वा बन गलत राह पर जाने से रोकता है। पिता अपनी सारी उम्र बच्चों के नाम कर देता है । Written by  कमल  राठौर साहिल

"पिता - एक समर्पित देव मानव"(कविता)

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"सभी पिताजन को समर्पित" विष पीकर सदा अमृत ही बांटा है सुख देखकर सभी का दु:ख छांटा है उफ़ कभी होठों पर ना आने दिया पग में जब भी चुभता रहा कांटा है द्रव्य की आपूर्ति हो तुम्हीं केवल प्रेम की प्रतिमूर्ति हो तुम्हीं केवल रास्ते में पड़ा कांटा है चुन लिया पथ-प्रदर्शक बने हो तुम्हीं केवल जब भी धूप ने मन व्याकुल किया शज़र बनकर छाँह है तुमने दिया खुशियों से भर दिया दामन हमारा दिल से आशीष जब भी तुमने दिया भार कितना भी सब सहे  कंधे तुम्हारे ख़्वाब हैं पूरे हुए हाथ से सारे तुम्हारे स्वयं के बदन पर न हो भले एक कुर्ता पर हमारे सूट ख़ातिर ज़ेब अपनी न निहारे कुछ कह रहीं हैं झुर्रियां चेहरे पर कहानी वक्त से पहले ही देखी घट गई सारी रवानी बस यही आशा खुशहाल हो जीवन हमारा आ गया उनका बुढ़ापा खो गई सारी जवानी कितने खुदगर्ज़ बुढ़ापे में न बन पाते सहारा रहे मशगूल शान-ए-शौक़त वक्त को न निहारा धिक्कार हम पर थोड़ा सुख हम दे न पाते जिसने किया सारा समर्पण उसी से करते किनारा Written by ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"फादर्स डे"(कविता)

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साहित्य सागर के गहरे तल में उतरने के बाद कुछ शब्द मिले ,जो सिर्फ मेरे आदरणीय पिता जी की यादों में समर्पित कर रही हूँ। 💐💐💐💐💐💐💐💐 वट तरु सम दृढ़ पूज्य पिताजी अनमोल और बहुमूल्य पिताजी सब कुछ खुद ही तन्हा सहते नहीं बताते कुछ भी पिताजी स्वयं धूप में खड़े अडिग और हमको बनते छांव पिताजी बच्चों की हर मांग पूर्ण कर खुद अभाव को सहते पिताजी जीवन के भंवरों में फंसे हम कुशल नाखुदा बने पिताजी जीवन के हर विकट वार से घाव का मरहम बने पिताजी उनका है स्थान उच्चतम मगर बहुत ही विनम्र पिताजी सदा सत्य पर अटल और मिथ्या से लड़ते सतत पिताजी हो शरीर में या हो मन में हर पीड़ा हर लेते पिताजी भुला न पाऊंगी इस जन्म में आपका मैं उपकार पिताजी द्रवित लोह सम अनुशासन में बद्ध आपका प्यार पिताजी आपके द्वारा रोपित पौधों से आज चमन बन गये पिता जी Written by  वीना उपाध्याय

" 'पापा' तुम भी इंसान हो"(कविता)

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तुम कहते क्यों नहीं  अपनी व्यथा बताते क्यों नहीं  अंतस मन की ज्वालामुखी को दबाते क्यों हो  खुद को उस अग्नि में जलाते क्यों हो  माना की तुम मर्द हो मगर क्या तुम्हें दर्द नहीं होता ? होता है दर्द , कराहते हो , तड़पते हो और भीतर भीतर खोखले होते हो तुम  भले ही इल्म नहीं है इस बात का  मगर मुझे पता है तुम पीड़ित हो  ये कैसा दंभ है या वहम है कि तुम मर्द हो  तो सहज सरल इंसान नहीं हो सकते  मर्द से पहले एक जीव हो हाड़ मांस का पूतला हो  बिल्कुल हमारी तरह  बस बाहरी संरचना मुझसे भिन्न है  मगर तुम मेरे जैसे ही हो  वो तमाम भावनाएं और संवेदनाएं हूबहू वैसे ही महसूस करते हो  मैं तुम्हारे कंधे पर सर रखकर उतार लेती हूं  तुम भी अपनी परेशानी कह दो ना  मुझमें अधिक है सहनशक्ति  यकीन मानो  तुम्हारे मन का बोझ सहन कर सकती हूं  वहन कर सकती हूं  तुम्हारी ऊर्जा लेकर पली बढ़ी हूं  तुमसे ही सीखा है जंग जीतना  ज़ख्म सहकर मुस्कुराना  और मुस्कुरा कर गम को हवा में उड़ाना ...... बांट लो ना थोड़ा थोड़ा  मेरे हिस्से का दर्द चुराने वाले  थोड़ी तकलीफ़ दे दो ना मुझे  कद तुम्हारा छोटा नहीं होगा  सर मेरा कुछ हल्का होगा  वो मुस्क

"कच्ची डोर तू संभाल"(लेख)

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कच्ची डोर तू संभाल "रिश्ते "ये  शब्द हम सब के जीवन में बड़ा हम हैं मगर उन रिश्तो की डोर कच्ची होती जा रही है शायद चाइना की बनती जा रही है जो  सुंदर है मगर मजबूत नहीं कोई गारंटी नहीं कुछ दिनों पहले आई सगाई की मिठाई भी खत्म ही नहीं हुई कि सुनने में आया सगाई टूट गई कारण जो भी हो आजकल लोगों ने रिश्तो का मजाक बना दिया है हम सब के आसपास न जाने कितने रिश्ते हमने टूटते देखे और सुने होंगे सोशल मीडिया में बातें इतनी आम होने लगी है कि लोग कहते हैं हमें तो FB में देखा कि सगाई हुई या बच्चा हुआ क्योंकि लोग आपस में मिलते ही नहीं सिर्फ फोन से ही रिश्ते चल रहे हैं और फोन के कारण  रिश्ते टूट भी रहे हैं कुछ ऐसा ही रितु के साथ हुआ उसकी सगाई अरविंद से हुई और रितु की स्कूल फ्रेंड कंचन अरविंद के शहर की थी उसने रितु की फोटो जब FB में देखी तो बधाई दी मगर कुछ दिन बाद उसने रितु को अरविंद के स्कूल अफेयर के बारे में बताया  लेकिन अरविंद स्कूल के बाद पढ़ाई के लिए बाहर चला गया था और एक बैंक मैनेजर व समझदार लड़का था लेकिन रितु को जब से पता चला और बात बात मे उसे कहती जबकि अरविंद बताता कि मैं सालों से उससे कोई

"सांवली तितली"(ग़ज़ल)

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 थक गया मांगते न लिखत दी मुझे राह में जो बिका यार ख़त दी मुझे।। शर्त थी दूर होंगे नहीं हम कभी पास आने कि उसने शपथ दी मुझे।। मैं हिफाज़त कहां से करुं यार का बीच आना नहीं थी कियत दी मुझे ।। उड़ गया रंग उसका कहीं और था ढूंढने का तभी यार हक़ दी मुझे।। प्यार उसको इसी नूर से था हुआ या कहीं बेंच दिल वो किसबत दी मुझे।। Written by  आशीष पाण्डेय

"मन की पीड़ा"(गीत)

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 मन की पीड़ा से जब काँपी उंगली तो ये शब्द निचोड़े अक्षर अक्षर दर्द भरा हो तो प्रस्फुटन कहाँ पर होगा अभिशापों के शब्दबाण लेकर दुर्वासा खड़े हुए हैं कैसे कह दूँ शकुन्तला का फ़िर अनुकरण कहाँ पर होगा नया रूप धर धोबी आए बुद्धि मलिन आज भी उनकी नियति ही जाने सीता का नव अवतरण कहाँ पर होगा गली गली फिरते दुःशासन भीष्म झुकाए सिर बैठे हैं रजस्वला उन द्रौपदियों का वसन हरण कहाँ पर होगा मीठी चुभन कुटिल कुल्टा सी नौंच रही तन के घावों को नमक छिड़कने हाथ आ गये सद आचरण कहाँ पर होगा मैं धतूर का फूल कसैला वो कोमल कलिका कचनारी वो उपवन में इठलाएगी मेरा खिलन कहाँ पर होगा Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"सावरिया"(कविता)

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 ॐ श्री गणेशाय नमः धन्य है मथुरा नगरिया जहा जन्मे सावरिया,! मथुरा में कड़ा पहरा लागे, आधीरात को लल्ला जागे,! धन्य हैं!मथुरा नगरिया जहां जन्मे सांवरिया,!! मेरा श्याम तो बड़ा नटखट है,भक्तो की रक्षा करता झटपट है! धन्य हैं!गोकुल नगरिया, जहां जन्मे सावरिया,!! मेरा श्याम तो बड़ा ही सुन्दर है!,गोकुल में चर्चा हर घर घर है! एकदिन कान्हा बरसाने आयो,बरसाने आयो,बरसाने आयो!! राधा जी के मन हर्षायो, मन हर्षायो,मन हर्षायो,!! वृन्दावन में रास रचायो,रास का रस पीने भोले बाबा आयो! रूप बदल घुसे रास मंडल नगरिया, भोले बाबा सावरिया,!! वृंदावन जैसा वन भी नहीं है!  तुलसी वृक्ष जैसा वृक्ष नहीं है!! कान्हा जैसा कोई नटखट भी नहीं है!  जिसके होठो पर सटी है वासुरिया ,मेरे सुन्दर सावरिया!! धन्य है कंस की नगरिया जहा जन्मे सावरिया !! धन्य हैं गोकुल नगरिया जहां रहते सावरिया!! धन्य है ! वृन्दावन नगरिया जहां रहते सावरिया,!! Written by  सोनू सीनू शर्मा

"कविता कृष्ण की"

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श्री राधे ,राधे ,राधे ,राधे वृंदावन ऐसा वन नहीं,न तुलसी जैसा वृक्ष!  जिसकी दृष्टि अच्छी नहीं, वह क्या जाने कल्पवृक्ष!! आज कृष्ण मेरे घर पे पधारे हैं! वृन्दावन से मेरे घर पे पधारे है!! मेरे विखरे कार्यो को संभाले है!  आज श्याम मेरे घर पे पधारे हैं!!  मेरा श्याम कृपा का समंदर है!  तीनो लोक इसके इसारो  के अंदर है!! मेरा गोविन्द विगड़ा विनाते है!  अपने भक्तों को पल में बचाते है!! दुष्टो को ठिकाने पहुचाते है! मुरली से भक्तों को रिझाते है!! आज श्याम मेरे घर में पधारे है!  आज श्याम मेरे घर मे पधारे हैं !! श्री राधा जी को श्याम बड़े प्यारे है! नंद बाबा मैया यशोदा के दुलारे है!!  गोकुल वृन्दावन की आँखों के तारे है ! आज श्याम मेरे घर पे पधारे है !! आज श्याम मेरे घर पे पधारे है ! आज श्याम मेरे घर पे पधारे है !! आज श्याम मेरे घर पे पधारे है ! जय जय श्री राधे ,जय जय श्री राधे,! श्याम। Written by  सोनू सीनू शर्मा

"खुद से खुदा तक की यात्रा"(कविता)

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 आध्यात्मिकता ओढ़ने की वस्तु नहीं  अपितु  आत्मा का गीत है  जो स्वतः ही स्फुरित होता है   यहाँ नर्तन भी है ,आह्लाद भी , और आह्लाद से भरी हुई खामोशियाँ भी, जब बाहर का प्रत्येक रस्ता मुड़ता है भीतर की ओर तो, खुलता है एक द्वार जो ले जाता है हमें वहाँ जहाँ एक दर्पण सदियों से कर रहा है हमारा ही इन्जार, जिसकी एक झलक मात्र से मिट जाते हैं सभी भ्रम कि खुदा कौन है ! कृष्ण कौन है किसके लिये भटक रहे थे हम आदिकाल से ..! खुद से खुदा तक की यात्रा ही आध्यात्मिकता है... Written by  सुमन जैन 'सत्यगीता'