"सिलवटें"(कविता)
फिर आदमी तक आया ये बातें ।
दुनिया में फिर भी क्यों बहुबातें ,
सौंदर्यों के पीछे फिसलना ज्ञातें ।
उमंगों के रंगों को क्या सहलाते ,
सेजों पे सिलवटें क्यों हैं भाते ?
इश्क और वासना पे क्यों सकुचाते ,
पृच्छा भी क्यों कवि के नाते ?
सिक्कों से क्या ये हैं तौलाते ,
अंधेरा में जिस्म़ पे क्या हालातें ?
ज्यों दिलों पे लहरें दरबाजें खटखटाते ,
फिर आग को कहाँ तक बुझाते ?
चंदा की दिशा से क्या लाते,
बादलों के ओटों में गुमशुदगी पाते।
सितारों हेतु गंतव्यता पे हैं सवालाते ,
जागना नियति तो ख्वाब़ क्या मुस्काते ?
अश्कें मिटाने में शब्दों तक जज्बातें ,
फूलों की पंखुड़ियों को कहाँ गिराते ?
प्रियतमा ! तेरी अदा से क्या टकराते ,
स़़च़ को कहाँ -कहाँ दीवारें हीं झूठलाते ?
आखिरी ख्वाहिश़ क्यों नदी में बहाते ,
समंदर को कैसे पीठें लम्हें दिखाते ?
प्यासी मछलियां और पानी की ठाते ,
क्या नहीं तितलियां संग भौरें कतराते ?
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