"प्रपंची"(कविता)
अब तो जारी बारिशें बेमौसमी ,
खिड़की से झांकती है लड़की ।
अदा ख्वाब़ में कैदी वहमी ,
बिना चुल्हा-चौका के कैसे रोटियां पकी ?
महंगाइयों में नहीं होती कमी ,
कुत्तें भी लगाये हैं टकटकी ।
लौटने दो सूरज की बेशर्मी,
चेहरा पे पसीना से धकधकी ।
रातों की बातें -अंधेरा बेरहमी ,
हवायें भी दी हमें घुड़की ।
खिलौना से खेला बचपना अहमी ,
आग यहीं और चिड़िया चहकी ।
घोसला से पिंजर तक मौसमी ,
डरती बहेलिया से हो हक्कीबक्की ।
चौतरफा साजिशें और प्रियतमा सहमी ,
परछाइयाँ भी सखी हेतु रूकी।
गुजारिशें सांसों की कहाँ रस्मी ,
प्रपंची से विषकन्या क्या थकी ?
कब्रों पे अकेले कहाँ आदमी ,
फिर भी अलविदा हीं पक्की !
Written by विजय शंकर प्रसाद
पता - तिलक मैदान रोड ,एजाजी मार्ग, कुर्मी टोला ,मुजफ्फरपुर (बिहार )
nice....
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