"पिता - एक समर्पित देव मानव"(कविता)
"सभी पिताजन को समर्पित"
विष पीकर सदा अमृत ही बांटा है
सुख देखकर सभी का दु:ख छांटा है
उफ़ कभी होठों पर ना आने दिया
पग में जब भी चुभता रहा कांटा है
द्रव्य की आपूर्ति हो तुम्हीं केवल
प्रेम की प्रतिमूर्ति हो तुम्हीं केवल
रास्ते में पड़ा कांटा है चुन लिया
पथ-प्रदर्शक बने हो तुम्हीं केवल
जब भी धूप ने मन व्याकुल किया
शज़र बनकर छाँह है तुमने दिया
खुशियों से भर दिया दामन हमारा
दिल से आशीष जब भी तुमने दिया
भार कितना भी सब सहे कंधे तुम्हारे
ख़्वाब हैं पूरे हुए हाथ से सारे तुम्हारे
स्वयं के बदन पर न हो भले एक कुर्ता
पर हमारे सूट ख़ातिर ज़ेब अपनी न निहारे
कुछ कह रहीं हैं झुर्रियां चेहरे पर कहानी
वक्त से पहले ही देखी घट गई सारी रवानी
बस यही आशा खुशहाल हो जीवन हमारा
आ गया उनका बुढ़ापा खो गई सारी जवानी
कितने खुदगर्ज़ बुढ़ापे में न बन पाते सहारा
रहे मशगूल शान-ए-शौक़त वक्त को न निहारा
धिक्कार हम पर थोड़ा सुख हम दे न पाते
जिसने किया सारा समर्पण उसी से करते किनारा
Happy father's day....
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