"समर्पण"(कविता)

दिल -ओ जान मैं हार     

         चुकी

सबकुछ तुम पर वार 

          चुकी

पक्की डोर से बांध 

           चुकी

अडिग-अटूट बन्धन

हर सांसों का स्पंदन भी

 प्रिय तुम्हीं पर है समर्पण 


प्राण सुकूँ से है वंचित

निष्प्राण हो गए तन मन

रिक्त नहीं प्रीत अफसाने

 कर चुकी विगत मैं पूर्ण समर्पण !!


मालूम है तुम भी प्रतीपल

अश्रुधारा में बहते हो

रोते हो तड़पते हो

एकाकी विरह मौन

 सहते हो!!


ढलती शामों के सागर में

 जब-जब लहरें उठती हैं

 नाजुक रगे मेरी टूटती हैं

सुर-स्वर गले में घूँटती हैं! 


कुछ तो पास नहीं मेरे

प्रिय सब कुछ है तुम्हारा 

वेकल दिल जब-जब मचला

तुम हीं तुमको पुकारा !!


आ जाओ एक बार सही

हक से अपना कह दो

अंधियारे मन में मेरे

 प्रीत प्रज्वलित कर दो !!


जनम जनम के बंधन को

मत तोड़ो चटकाय

टूटे फिर ना जुड़े कभी

   जुड़े गांठ पड़ जाय !!


मीरा सा पागल बन के

 भटक रही मैं जोगन

रिक्त नहीं अब प्रीत अफसाने

कर चुकी विगत मैं

पूर्ण समर्पण !!

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