"दरों दीवारें"(कविता)

बेबसियों का आलम है।

मंजर भी यु बिखरा है।


तन्हाइयां शोर मचा रही है।

महफ़िल खामोश लग रही है।


न तेरा मिलना न मेरा मिलना है।

दरमियां मौत का अजब पहरा है।


अपने ही घर के दरवाजों ने रोका है।

बाहर कोई अनहोनी लिए खड़ा है।


आँखों से छलकते दर्द बहुत है।

जिस्म अंगारो पे जैसे जला बहुत है।


दरों दीवारें मेरी बात सुनते है।

अपने ही घरों में कैद रहते है।


न फुरसत हमे जिंदगी से है ।

दामन में बड़े सिलवटे से है।


सब रोज रफू करते जिंदगी है।

मगर असली बुनकर कोई है।


कुछ न कुछ दाग सबो में है ।

इंसान ,भगवान थोड़ी ही है।

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