"कुर्सी"(कविता)
बंदिशें और खुलापना विलोमी ,
नाराजगी भी ढो लिया ।
अदा नेकी का है ,
जुम्ला से तौब़ा है ।
लाशें भी कमी क्या -
क्या -क्या दुखी हैं ?
सत्ता बोलना चाहती है ,
विपक्षी भी जिंदा है ।
बूतें भी संजीदा हैं ,
इमारतें भी उपमा हैं ।
अस्पतालों की जरूरतें हैं ,
प्राणवायु भी तो मजबूरी ।
रामभरोसे है अभी जनता ,
कर्फ्यू फिर हों कयूं ?
चुनावी मौसमी हया कहूँ ,
अच्छी बातें अनकही है !
नतीजों पे आंखें हैं ,
पता तो है हीं ।
नाकामी पे जंगी हाजिर ,
जल्वा मरघटों पे सुहागा ।
विषकन्या से पाला पड़ा ,
हवा है यूं वफ़ा ।
स़च़ कहने पे दफ़ा ,
इतना ज्यादा कर्णधारें ख़फा !
बीमारी का लम्हा है ,
खुली किताब़ तो बनें ।
कभी मुँहें न फेरे ,
क्या तेरे या मेरे ?
लम्बी-चौड़ी सौदेबाजी इश्क नहीं ,
उजाला कृत्रिमतानुमा अंधेरा है ।
रातें जगी सी है ,
दिनचर्या भी बेताब़ है ।
ये नायाब़ नकाब़ है ,
गुलाब़ तो बेनकाब़ है ।
कुर्सी मरा है नहीं ,
बहुरूपिये तो नवाब़ हैं ।
जहरें पी लिया है ,
दग़ा क्यूं दिया है ?
आदतें यूं बला हैं ,
बेपानी का बदला है ।
रावणों की दुनिया है ,
देवों का ढिंढोरा है ।
बेकाबू तो अर्जियां हैं ,
मनाही और खुदगर्जियाँ हैं ।
कहीं पे अफवाहें हैं ,
आग और राखें गवाहें हैं ।
कहाँ पे बेगुनाहें हैं ,
कहाँ पे निगाहें हैं ?
superb.... nice......
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