"जीवन संग हो: मूल्य का आभास"(कविता)
हे दया निधान,जब तुमने दुनियाँ बनाई,
फिर उसे बसाई तो जोडे के संग बसाई,
जैसे हवा संग साँस,निराशा साथ आस,
पानी साथ प्यास,शब्द के संग आकाश,
धरा साथ दी उपज, कंपन साथ आवाज,
जीवन संग कर दिया, मौत का आगाज,
मेघ साथ गर्जन, और मोर के साथ नर्तन,
दिल के संग धडकन,सजने के लिए दर्पन।
।1।
ऐसा न हो जाए,जीवन के लिए वायु न हो,
बदला मौसम हो,पर बदला जलवायु न हो
प्यास है जल न हो, धरा है पर उपज न हो,
मुख पे न करुणा,पुरइन है पर कमल न हो,
दया है, धर्म नहीं,दिल है पर धडकन न हो,
ज्ञान है समझ नहीं,बुद्धि है पर मंथन न हो,
प्रीत के गीत, गीत संग जीवन संगीत न हो,
दुख के बाद सुख,मन साथ मनमीत न हो।
।2।
हे करुणा के सागर, अब इन पर दया करो,
ये जीवन निर्जीव मशीन न हो, कुछ तो करो,
कैसा वह संसार, जहाँ जीवन का सार न हो,
दंभ,द्वेष पाखंड रहित सब हों, कुछ तो करो,
क्षणभंगुर जीवन, संग मूल्य आभास तो करो,
सागर में मचले रत्नों से , दर्शन लाभ तो करो,
दाता के हों दिल से रिश्ते,कोई रंक पिसता हो,
हाथ मदद में बढे,किसी तन पे खून रिसता हो।
।3।
Written by ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला
superb.... nice......
ReplyDeleteSuper sir for today's situation it's true line
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