"बुलबुला"(कविता)

महफिल तो बहला है ,

नग्नता भी उछला है ।

मौतों का फैसला है ,

जिंदगी तो बला है ।

चेहरे दिखाना कला है ,

फंसाया गया मामला है ।

लम्हें देते इत्तला हैं ,

फिर क्यूँ छला है ?

हिंदुस्तानी क्यूं जला है ,

वादाखिलाफी क्या भला है ?

सौदा में घपला है ,

सियासी रंगें जुमला है ।

महामारी न टला है ,

जनता तो चंचला है ।

प्राणवायु पे मसला है ,

दवा-दारू कहां पला है ?

थोपाथोपी कहां ढला है ,

चुनावी सभा ! हल्ला है !!

यहां महारथी उगला है -

कारनामा न पहला है ।

ज्ञानी क्या दुबला - पतला है ,

आखिरी कहां मुकाबला है ?

सुना तो बगुला है ,

मछली संग बुलबुला है ।

न पहाड़ी पिघला है ,

घर-घर हीं अधजला है ।

न तो तबला है ,

दिल क्यूं  पगला है ?

तौब़ा हेतु अगला है ,

न्यायी को खला है ।

कहीं बना किला है ,

दिमागें कैसा ढीला है ?

सही सम्भवतः कबीला है ,

सिंधु - नदियां गर्विला है ।

राही कहां चला है ,

सूरज क्या नुकीला है ?

इश्क सम्भावना तला है ,

आखिरी हस्ती महिला है  ।

शीशा न पीला है ,

क्या -क्या न हिला है ?

सर्पें और नेवला हैं ,

लहर क्या-क्या निगला है ?

प्रियतमा को जो  कुचला है ,

बूतों की  ऊंची श्रृंखला हैं ।

क्या -क्या विषकन्या सम्भला है ,

गुलाब़ क्यूं खिला है ?

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