"जिस्म़"(कविता)
रागिनी हीं शर्मिंदा है ।
महफिलों में अदा है ,
प्यासा दिल सदा है ।
आईना क्यूं जुदा है ,
कहाँ पे खुदा है ?
जिस्म़ रिसता परिंदा है ,
ये मदिरा चुनिंदा हैं ।
औपचारिकता में निंदा है ,
टुकड़े में स़च़ पुलिंदा है ।
खवाहिशों पे फंदा है ,
भौरा क्यूं गंदा है ?
धंधा न मंदा है ,
निचोड़ी गयीं चंदा है ।
परछाइयों तक जुदा है ,
देखा अंधेरा उम्दा है ?
मछलियां प्यासी फिदा है ,
क्या नदी-समंदर संजीदा है ?
फरेबी यहां लदा है ,
साहिल क्या अलहदा है ?
मौतों पे पर्दा है ,
मर्दानगी क्यूं बेपर्दा है ?
सहने को वसुधा है ,
आखिर कहां सुधा है ?
सियासी इश्क बदा है ,
सौदागरी में नुमाईंदा है ।
आग आखिरी बंदा है ,
ठगी हेतु करिंदा है ।
विषकन्या देती गुदगुदी है ,
सुधि हेतु बेसुधी है ।
नयी नारी -कसीदा है ,
जुगनुओं ! फैला दरिंदा है ।
जहरीला लम्हा आमदा है ,
कश्तियां अब अलविदा है ।
रातें न यदा-कदा है ,
दिनें भी बेकायदा है ।
दीवारें न गुमशुदा है ,
झूठी मुस्कानें वसींदा है ।
कहने को कायदा है ,
नजारा भी भद्दा है ।
superb.... nice......
ReplyDelete