"कीमतें"(कविता)
चाहता क्या लाशों पे फकीरा ,
अब क्यों बेपानी कीमतें कबीरा ?
जवानी पे किसे दूँ सेहरा ,
सुधि हेतु क्यूँ पत्ता हरा !
न गड्ढों में पानी सड़ा ,
यायावर भी तो चरा ।
कभी झोपड़ियों से हीं धरा ,
शहरनामा था दिल में ठहरा ।
कलमकारों ने गढा था मुहावरा ,
न था नफरतों का पहरा ।
तभी सीखा इश्क का ककहरा ,
खाली जगहों पे सूरज उतरा ।
था मर्यादा का यहाँ दायरा ,
चंदा भी करती थी मश्विरा ।
भिक्षुओं पे न था खतरा ,
माली हेतु तकदीर था बड़ा ।
महफिलों में सहृदयों का जमावड़ा ,
रोटियों हेतु कुत्ता कहाँ पड़ा ?
परिंदा भी स्वच्छंदता से उड़ा ,
कांंटों से राही कहाँ डरा ?
नदी के किनारे रखा घड़ा ,
प्रियतमा कहाँ था वहाँ नखरा ?
कुआं कचरा से कहाँ भरा ,
प्यासा भी न था लड़ा ?
न्यायी भी न था मरा ,
अन्यायी का न था पतरा ।
बावड़ी का देखा था चेहरा ,
दिखावा कहाँ था आखिर खड़ा ?
मंदिरों में भी कहाँ अखरा ,
लम्हा था हंसी-खुशी से गुजरा ! !
Written by विजय शंकर प्रसाद
superb... nice...
ReplyDelete