"खलनायकी"(कविता)

सूरज अम्बर से  समेटने में धरा ,

चीखने लगी थीं तभी तो अप्सरा ।

दोपहरी की लू में कितना मरा ,

न्यायी पे अन्यायी का क्यूँ पहरा ?

सायं में अंधेरा की छाया उतरा ,

नग्ना चंदा पे फिदा सितारा लहरा ।

दागदारी है कहाँ नहीं प्रियतमा पसरा ,

रातों की ख्वाहिश़ ने लिया आसरा !

तभी बादलों की निशानदेही भी गहरा ,

यादों की बारिशों में क्या -क्या उबरा ?

महफिलों में क्यूँ मधुबालाओं  का नखरा ,

आईना और दीवारों पे क्या मुशायरा ?

मर्दानगी में आवारगी क्यूँ था अड़ा ,

घुंघटों को हटा क्या खलनायकी बड़ा ?

निर्वस्त्रता और बेपर्दगी में क्या-क्या पड़ा ,

नगरवधू से कामवासना तक क्या-क्या ठहरा ?

रंगों के दायरें में कहाँ घड़ा ,

मदिरा का नशा में कितना अंधा-बहरा ?

बंदीगृहों जैसे कमरों में पानी-बेपानी मरा ,

जुगनुओं तक परछाइयों से रहा डरा ।

नदी से समंदर तक जिस्म़ सिहरा ,

जंगलातें भी सियासी रहा है इतरा ।

आखिरी सांसों पे सांपें क्या विचरा ,

सबेरा में नेवलों तक नजारा सड़ा !!

साजिशें पे छत्रछाया है क्या जरा ,

चूहों ने कपड़ा है क्यूँ कुतरा ?

परिंदों का हरे-भरे पेड़ों पे जमावड़ा ,

बहेलियों से मुकाबले क्या उर्वरा ?

प्यासी मछलियों हेतु क्या हितकारी सहरा ,

कसाइयों से जुदा क्या बकरा चरा ?

जनता के सवालों में आग भरा ,

कलयुगी सिफारिशों पे कौन चेहरा लड़ा ?

कुर्सी पे छलिया और कुत्ता खड़ा ,

बाधाओं के पीछे थीं पहले अप्सरा ।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

"जिस्म़"(कविता)

"बेटियाँ"(कविता)

"उसकी मुस्कान" (कविता)

"बुलबुला"(कविता)

"वो रात" (कविता)