"नजारा"(कविता)

शिकवा नहीं तो कैसी छाया ,

कहाँ पे फैसला पे फैसला ?

खिलौनों से खेली थी कभी ,

टूटा था तो रोने लगी ।

जिस्म़ को क्या हो गया ,

दिल भी कितना है जलील़ ?

खाल़ी तेरी यादों की गगरी ,

इस्त्री भी  निर्दोषता का नमूना ।

कपड़ा फटता क्या नहीं  है ,

जरा फटा तो क्या हुआ ?

लघुता की चित्रकारी में कौन -

क्या प्रभुता से तौब़ा करूँ ?

आईना तो नहीं है मिथ्या ,

नश्वरता पे स़च़ की विवेचना।

कीमतों पे नहीं सूची देना ,

अच्छे दिनों की प्रतीक्षा है ।

भिखारिनों ने ख्वाब़ को पाया ,

कहीं पे थी नहीं विषकन्या ।

सिगरेटों को पीने की अभिलाषा ,

बीड़ी तो सिलसिला हीं जनाब़ ।

इसे छोड़ने का वादा था ,

नदी में मछलियां औरों प्यासी ।

महफिलों का नजारा महलों में ,

कुत्ता भौंकने लगा है जागते - जागते ।

नशा में है स्वामी छलिया ,

चोरी और सीनाजोरी उसका पेशा ।

सोना तो पापों की ग्रंथियां ,

परीक्षा की घड़ियां कैसे नकारता ?

अंधेरी रातें बंदीगृहों के जैसे ,

खिड़की को पर्दा था जकड़ा ।

दरबाजा भी दीवारों के जैसे ,

गुलामी और मक्कारी भी वहां ।

फिर हवा का झोंका आया ,

बेपर्दगी पे तो झूठी मुस्कानें ।

आखिर बातें सड़कों पे पसरा ,

गवाही तो पहले सो गया ।

उठता तो सही उजागर होता ,

अन्यायी विजेता और निःशब्दता ही ।

लाशें तो लाशें और सहमा अम्बर ,

मरघटों पे वेदना की धधकती ज्वाला ।

क्रांति को  बगावती क्यों अब मानोगे ,

विलम्बकारी हकीकतें जहरीला नहीं क्या रहनुमा ?

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