"अभिसारिका"(कविता)
नारी होने का सपना नहीं आसानी ,
अभिसारिका का दिल की छाया बोलें ।
जिस्म़ की सुंदरता की छोड़ों कहानी ,
बंदीगृहों की व्यथा को हीं लो ।
सम्प्रति नहीं नामर्दी की बातें पुरानी ,
नाकामी को छिपाने की मनाही तौलें ।
साकी को अपनाने की है मनमानी ,
जरा अंधेरा के रहस्यों को खोलें ।
सब्जबागें और बहानेबाजी पे रानी -
बेतुका की शर्तें क्यूँ वासनामयी शोलें ?
तेरी सखि हारी और इश्क पानी -पानी ,
सच़ के वास्ते तो अब भी डोलें ।
फिदा आग पे अश्कें नहीं बचकानी ,
गवाहें महफिलों तक तस्वीरों के गोलें ।
खामोशी की आखिरी किताब़ बेमानी ,
मृगतृष्णा में खंडहरें और क्यूँ महलें ?
गुलाब़ और कांंटों से नहीं आनाकानी ,
रातों में अता-पता ढोती गुलाबी कपोलें ।
प्यासी नदी और मछलियां तो तुफानी ,
जालों में नंगी मरी पे फफोलें ।
Written by विजय शंकर प्रसाद
nice.... superb.....
ReplyDeleteMitra eay appki kavita aworat washna key sholey ko padra.
ReplyDeleteSatya kaha hai appney aworat qu jaruri hai or qu ki aworat marad eak dusharey key poorak hai dhanywad.
Vijay Singh sankargharh prayagraj u p