"माया"(कविता)
शीलापटों पे शब्दों की मर्माहती काया ,
न स्त्री और न शापग्रस्तता की निशानी ।
पता चला कि जुदा कवि की माया ,
राजनीति तक तो उसकी यद्यपि कहानी ।
अकेले रहा तो किसकी थी छत्रछाया ,
कैसा था बुढापा और कैसी उसकी जवानी ?
न उसकी प्रेयसी और औरों जिंदगी जायां ,
न गुलाब़ और न किताब़ में प्राणी ।
औपचारिकता में बारिशें और छाता लगाया ,
दया से यशस्वी और कुमारी रातें ज्ञानी ।
ये कैसा नजरिया और क्यूँ विडंबना समाया ,
अकेली चंदा और सूरज भी क्या अज्ञानी ?
मरी सारी कवितायें और किसने क्या पाया ,
न राहें खता तो अशेषें क्या अब रूहानी ?
परदेशी ही रहा और था आखिर में छटपटाया ,
मनचलों की महफिल में क्या तौब़ा मनमानी ?
बेशर्मी पे आईना था तो शरमाया ,
किसे कहूँ मैं राजा की थी रानी ?
योगी पे था जो कभी इठलाया ,
सदा हेतु कहाँ अदा उसकी शैतानी ?
Written by विजय शंकर प्रसाद
superb... nice...
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