"माया"(कविता)

शीलापटों पे शब्दों की मर्माहती काया ,

न स्त्री और न शापग्रस्तता की निशानी ।

पता चला कि जुदा कवि की माया ,

राजनीति तक तो उसकी यद्यपि कहानी ।

अकेले रहा तो किसकी थी छत्रछाया ,

कैसा था बुढापा और कैसी उसकी जवानी ?

न उसकी प्रेयसी और औरों जिंदगी जायां ,

न गुलाब़ और न किताब़ में प्राणी ।

औपचारिकता में बारिशें और छाता लगाया ,

दया से यशस्वी और कुमारी रातें ज्ञानी ।

ये कैसा नजरिया और क्यूँ विडंबना समाया ,

अकेली चंदा और सूरज भी क्या अज्ञानी ?

मरी सारी कवितायें और किसने क्या पाया ,

न राहें खता तो अशेषें क्या अब रूहानी ?

परदेशी ही रहा और था आखिर में छटपटाया ,

मनचलों की महफिल में क्या तौब़ा मनमानी ?

बेशर्मी पे आईना  था तो शरमाया ,

किसे कहूँ मैं राजा की थी रानी ?

योगी पे था जो कभी इठलाया ,

सदा हेतु कहाँ अदा उसकी शैतानी ?

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