"रात,तुम कहाँ से आती हो"(लेख)

रात,तुम कहाँ से आती हो

समय तो मुट्ठी में भरी रेत की तरह फिसलती जाती है,तेली के बैल के जीवन जैसी दिनचर्या । बस इस शरीर में जब तक चेतना रहती है,पता नहीं किस मंजिल को पाने बेतहासा दौडता रहता है,पता नहीं कैसा लक्ष्य जिसका अन्त ही समझ में नही आता।अपने से कुछ भी पूछने की फुर्सत नहीं कि मैं कौन हूँ, मेरे इस जीवन का परम उददेश्य क्या है? आखिर परमशक्तिवान ईश्वर ने इस संसार में क्यूॅ भेजा,कुछ तो विशेष बात तो रही होगी।बस। रोज प्रभात होते ही दौडना शुरू कर देता है और जब तक रात नहीं होती,समाप्ति का नाम नहीं होता।सच में निशा !तुम कितनी सहृदय,ममतामयी,शीतल वात्सल्य से पूर्ण हो । श्वेत सितारों से युक्त यह जीनी आसमानी ओढनी से जब तुम सूर्य की तपिश से बचने के लिए अपने सिर पर डालती हो,हे रजनी! उस समय खुद तो लालित्य से पूर्ण लगती हो और उस ललित और निश्छल ममत्व से हमको भी अपने गोद में लेकर इतना मदहोश कर देती हो कि मैं अपनी सारी सुधबुध भूल जाता हूँ, दिनभर क्या हुआ?,कहाँ आहत हुआ? किस ने इस शरीर और आत्मा को शान्ति और किसने अपने पशुता से छलनी किया ?अरी विभावरी ! तुम जब इस नीले सौम्य से गगन में प्रशान्त होकर अपने गोद में रखे मेरे सिर को झुर झुर झुरते पवन से हौले हौले सहलाती हो तो इस बेरहम दुनियाँ द्वारा दिये शरीर और आत्मा पर दिये घाव अपने आप शान्त हो जाते है।हम आपके व्यक्तितव का पूरा अंदाज लगाना असम्भव है,पर इतना समझ आता है कि आप जितनी गहराती जाती है,उतनी ही सुकोमल केवल चेहरे से नहीं, आत्मा,प्रकृति से क्लांत मन को शान्त करती रहती हो।हम इस बात को सीमा में नहीं बाॅध सकते उसे असीम आनन्द में बहते देना चाहते है।

Written by ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

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