"मासूम छाँव : होगें सख्त"(कविता)

ढूॅढता है छाँव,किसी सघन बृद्ध पेड  की,

पथ पर चलता राही जब आतप होता है।

तो तन का शिकन पाके स्वेद कण थपकी,

ममता की छुअन पा,शान्त संतृप्त होता है।

कुछ अनमन हो,तपन से कुछ अनबन कर,

हो उस छाॅव के आगोश में निश्चिंत सोता है।

।1।

कुहासे से घिरी खुद की परछाई हॅसती तब,

जब वो उतराती संताप का आगाज होता है।

न कहो सजन उन गुनगुनाते कपास फाहे से,

उडकर जमा होते वहीं,जहाँ परवाज होता है।

दरकते दरख्त से झिनते साये का मलहम गर,

उन बाशिंदों पर लगता, जो मुहताज होता है।

।2।

जब दरख्त कम होंगे,मासूम छाँव होंगे सख्त,

इंक से खत से क्या, पानी का विकास होता है।

कायनात पर सब धूप ही होगी साये के घेरे में,

खूॅ की बूंदो में क्या,शबनम की तलाश होता है।

इंसानियत के छाया को जब धूप बनकर ही घेरे,

शहर से निकले टोली पे क्यों छिड़काव होता है।

।3।

Written by ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

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