"मानवता के अलंकार"(लघुकथा)

 मानवता के अलंकार

भामिनी अपने बेटे भावुक को समझा कर कह रही थी कि  यह सही है कि हमारी पीढी और तुम्हारी पीढी के विचारों ,कलापों के ढंग, सम्पूर्ण परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर है ।लगभग दो दशकों में आया परिवर्तन अत्यन्त असाधारण है।ड्राइंग रूम में बैठे भावेश पत्नी के वाक्यों को ध्यान से सुन रहे थे।14 वर्ष का भावुक  माँ की बात सुनकर बोला,मम्मी ! इस असाधारण रूप से आये सूचना प्रौद्योगिकी के युग में जितनी सुविधायें मिली है,,उतनी ही कदम कदम पर चुनौतियां और संवेदनशीलता भी बढ गई है।

        भावेश ने इस  वार्तालाप में अपनी बात भी रखने की चेष्टा कर ही रहे थे ।चल रही वार्तालाप पर भावुक के पापा बोले कि आप दोनों की बातें अपनी अपनी जगह सही है। हमारा मंतव्य है कि सारी सुविधाओं,कार्य करने  में सरलीकरण के साथ अब आदमी के पास खुद को सोचने और समझने का समय नहीं है। इस सभ्यता के विकास में जब से मानव ने अपने जीवन को समय से नापना शुरू किया,उससे जीवन विकसित हुआ परन्तु कुछ खो भी दिया।हमें कहने में कोई संकोच नहीं कि अब मानव सीमित,संकुचित और स्वार्थी हो गया।पहले का जीवन आसान और भावपूर्ण था।बचपन के दिनों में हर गोद में माॅ पिता की ममता,दूध वाले,हाॅकर और वाॅचमैन से प्यार भरी रिश्तेदारी  तलाश लेते थे। पर अब वो बचपन सी निश्छलता और भाव-बोध कहीँ गुम हो चुका है।अब उन आदर्श चरित्र और जीवन की मूल्यों के स्थापन की दरकार है।

        मनुष्य के व्यक्तित्व की संपूर्णता में इन सबका भी महत्व है,ये हम जीवन के अलंकार है जो हमें अन्य जीवों से अलग करते हैं ।

पापा की बात पर सभी ने पूर्ण सहमति से सिर हिलाया।

Written by ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

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