"वो दौर था…… ये दौर है। "(कविता)

वो दौर था,

विचार पारदर्शी भले न था,

दृष्टि भी वैश्विक भले न थी,

परपीड़ा में  वेदनाएं तो थी

आपस में संवेदनायें तो थी,

वाणी में लरजता थी,

रिश्ते में वर्जनायें थी,

वैसे सीमित साधन ,जरूर थे,

पर ज्ञान साधना में मगरूर थे,

समुचित ज्ञानार्जन की निष्ठा थी,

बाधा में  नियति की आस्था थी,

व्यस्तता बावजूद सुकून के पल ढूंढते थे,

बडी बाधाओं में भी धैर्य से काम लेते थे,

पूजा के बहाने पेडों की सुरक्षा होती थी,

ग्रास के बहाने पशु प्रेम परीक्षा होती थी,

ये दौर है,

ये विचार पारदर्शी भले हैं, 

वैश्वीकरण के भाव भले हैं,

परपीड़ा की वेदनाएं चली गई,

वे सारी संवेदनायें भी छली गई,

वाणी भी शुष्कित हो गई,

वर्जना अपरिभाषित हो गई ,

अब साधनों की कमी नहीं,

सो ज्ञान की गति थमी नहीं, 

नियति के सहारे कुछ नहीं, 

पशु पेड की रक्षा कुछ नहीं,

सुकून के पल प्रायः खत्म हुए,

अधीरता चतुर्दिश बढ गये।

Written by ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

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