"तराजू"(कविता)
रातें तो फैला दी बाहें ।
अंधेरा नहीं होता कभी गाहेबगाहे ,
फिर भी जिंदा हीं चाहें ।
फरियादी क्या कभी गवाहें ,
अमरता की क्या है तन्ख्वाहें ?
यादों की तराजू तक आहें ,
बाजारू नहीं माना था शहंशाहें ।
जनता की खरीदारी की गुनाहें ,
क्या समंदर में डूबे बेगुनाहें ?
दिलों तक गायें और चारागाहें ,
गुलाबों की ख्वाहिशों में माहें ।
कांटों से यारी पे निगाहें ,
भीतरखानें का दिया क्या थाहें ?
चुराया गया न हमेशा ख्वाबगाहें ,
चंदा से सूरज तक क्या बेपरवाहें ?
जुगनू ,चिड़यां और किसकी परवाहें ,
हरी घासों पे कीचड़ें छांहें !
तौबा -तौबा करते बढे गुमराहें ,
आग लगने से मिटा लाहें ।
शिकारी को क्यूं हमसे दाहें ,
क्या युक्तियां बचाने की सलाहें ?
विपत्ति को अब भी ढाहें ,
यूं मौतों के हैं बहानें !
भेड़ियों को ले चले चरवाहें ,
मिला मंदिर -मस्जिदों तक कोताही उत्साहें !!
मिट्टी का जला दीया कब्रगाहें ,
हवा के हिलोरा से न अफवाहें !!!
nice... superb....
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