"बेटियाँ"(कविता)
मानवीय वनों में
खर पतवार नहीं होती हैं
बेटियां
न ही होती हैं छुईमुई या बेहया
न होती हैं कुकुरमुत्ता
न ही बेल लता या सरपुतिया
न ही उगती हैं किसी
जंगल में बेहिसाब
बिना उगाए
न ही ईंट गारे पत्थर से
बनाई जाती हैं
वे भी पैदा होती हैं उसी तरह
जिस तरह पैदा होता है
घर का चिराग
बेटियों के पैदा होने में भी लगता है
मां का हृदय हड्डी रक्त और मांस
वो भी लेती हैं अपना समय कोख में
जितना लेता है घर का चिराग
बेटियां ही लाती हैं घर में रोशनी
जो नहीं ला पाता बिना बाती का चिराग
Written by भारती संजीव श्रीवास्तव
बेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteZabardast bahut khub
ReplyDeleteSuperb
ReplyDeleteSuperb
ReplyDeleteबहोत सुंदर रचना मॅम👌👌👌
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी
ReplyDeleteJabardast sach bayan kiya hai
ReplyDeleteAapki rachana padh kar... Nishabd hu... Superb 👍
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteExcellent
ReplyDeleteExcellent
ReplyDeleteवाह, एकदम सच कहा
ReplyDeleteवाह, एकदम सच कहा
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDelete👌👌👌
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