"होली कैसे खेलूँ"(कविता)


मेरा मनवा बड़ा उदास, होली कैसे खेलूँ भैया,

नीरव ललित माल्या मेहुल नित्य करें अय्याशी,

किन्तु अन्न उगाने वाले लटक रहे है फांसी,

खाँसी रोक रही उल्लास, होली कैसे खेलूँ भैया। 


हम अपने-अपने घर-आँगन खेल रहे है होली,

उधर प्रहरी सीमाओं पर झेल रहे है गोली,

बोली इक विधवा की सास, होली कैसे खेलूँ भैया। 


घोर गरीबी लगा रही है गाँव-खेत के फेरे,

रूखे-सूखे सारे चेहरे चिंताओं ने घेरे,

मेरे औंधे पड़े हुलास, होली कैसे खेलूँ भैया। 


आशंका सी जाने कैसी पनप रही है जन-जन में,

आक्रोश, संकोच और है उद्वेलन तन-मन में,

वन में फुले नहीं पलास, होली कैसे खेलूँ भैया। 


हाथ दराँती खेत जा रही बालक लिये बगल मा,

पशुओं का चारा लाएगी दुबली-पतली सलमा,

बलमा खेल रहा है ताश, होली कैसे खेलूँ भैया। 

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