"जी चाहे"

जिस दिन से देखा है तुमको मेरा बिकने को जी चाहे

राम कसम सच कहूँ प्रिये कविता लिखने को जी चाहे


सारी दुनिया का आकर्षण आ सिमटा इन दो नयनन में

क्या यत्न करूँ हे देव अवश कर रहा मुझे ये आकर्षण

चन्दन वन की सारी सुगंध बस गई सजनी तेरे तन में

कोमल तन भावुक मन चंचल लोचन देते हैं आमंत्रण

है ज्ञात दोपहरी जेठ की है किन्तु सिकने को जी चाहे


कुन्तल कमनीय कपोल कमल कोकिल कंठी केसर क्यारी

कंचन काया कोमल कोमल कचनार कली कच्ची कच्ची

सरिता समान सलिला सुखदा स्नेहिल सर्वांग सुघड़ सुंदर

सुख सुविधा सी सम्पन्न सहज सम्बंधों सी सच्ची सच्ची

मैं हूँ अरूप तुमको पाकर तुमसा दिखने को जी चाहे

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