"बरसात में बादल"(कविता)

 कस्तूरी मृग से भागते-दौड़ते

झाड़ी-झाड़ी सूंघते-चाटते

यहाँ-वहाँ उछलते-कूदते

हो जाएँ अदृश्य;

और सुदूर विस्तृत वन के किसी कोने से

फ़िर प्रकट हो जाएँ।


रूपसी की स्याह घनी जुल्फ़ों से घिरे रुख़सार पर

दौड़ जाए हसीन तबस्सुम

तब उसे अपलक देख रही आँखें

हो जाएँ चकाचौंध।


गैस के मरीज़ से

गरज पड़ें।


खाट पे सोए भीत से शिशु का

ज्यों निकल जाए पेशाब;

बरस पड़ें --

रुक-रुक के,थम-थम के।

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