"मंज़िले-मक़सूद"(कविता)
तेरे फ़ैज़ में डूबे रहें शबो-दिन ये जिस्मो-रूह
इस कद्र कि भूले भी उबरना न हो मुमकिन
न रोक पाए अब हमें कोई दरो-दीवार
दीवानावार दौड़ के आएँ तेरे क़रीब
हम खाली कटोरा लिये आएँ तेरे दरबार
तू भर दे लबालब इसे रहमत से करम से
तेरे दिये हुए को यूँ रक्खें संभाल के
कि उसमें इज़ाफ़ा हो और फ़िर आएँ दोबारा
दुनियावी कारोबार हम करते रहें बेशक़
ये सर रहे हरदम तेरी ड्योढ़ी तेरे दर पर
कहता है महवे-बालिशे-पम्बए-कमख़्वाब
उठ बैठ तसव्वुर में देरी काम की नहीं
तेरे हैं तेरे ही रहें तुझमें समा जाएँ
बस इतनी तमन्ना है ख्वाहिश है गुजारिश है
तुझपे है भरोसा मदद तेरी से हम इक रोज़
पा जाएंगे वो मंज़िले-मक़सूद बिलाशक़
Written by विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'
superb sir.....
ReplyDelete