"हिन्दी कविता में दलित विमर्श"(लेख)
हिन्दी कविता में दलित विमर्श
प्रारंभ से ही दलितों की असीम पीड़ा, संत्रास, छटपटाहट, विवशता हाशिये पर रही है| पग - पग पर उनके साथ अमानुषिक व्यवहार, उनके जीवन का तिरस्कार, सवर्ण सामाजिक खोल में उनको अभद्र गालियाँ एवं दुर्व्यवहार की पारंपरिक अनुबंधित दृश्य समाज की जड़ों में सदियों से फलते फूलते रहे है| यही प्रतिध्वनित संवेदनाएं साहित्य की विभिन्न विधाओं ( कविता, आत्मकथा, उपन्यास आदि) में प्रत्यक्षतः और परोक्षतः अभिव्यक्त हुयी है, परंतु यहाँ भी साहित्य के तल में दलितों की अस्मिता दोलन गति में झूलती प्रतीत होती है| "दलितों द्वारा रचित साहित्य" जिसमें वेदना,स्वानुभूति विद्रोह, मुक्ति और अस्मिता परक रचनाएँ, प्रेम, प्रकृति, सौंदर्यपरक रचनाओं का गुट है तो दूसरी और "गैर दलितों" द्वारा रचित सहानुभूति परक साहित्य ( विद्रोह, वेदना, मुक्ति और ब्राह्मणवादी संस्कार विरोधी रचनाओं ) का गुट है , इन दोनों ही गुटों के मध्य बहुत ही लाजमी व बडा़ अंतर है| "देवेंद्र दीपक" इस प्रकार लिखते हैं कि, " अस्पृश्यता एक अंधा कुआँ है, कुएँ में गिरे आदमी को लेकर चिंता के दो स्तर है| एक चिंता उस व्यक्ति की चिंता है जो कुएँ के भीतर गिरा हुआ है और लहुलुहान हो रहा है| दूसरी चिंता उस व्यक्ति की है जो कुएँ की जगत पर खड़ा होकर कुएँ में गिरे व्यक्ति को बचाने की गुहार मचा रहा है| कुएँ में गिरा व्यक्ति अछूत ( दलित) है और कुएँ की जगत पर खड़ा आदमी सवर्ण है| अछूत की चिंता आहत की चिंता है| सवर्ण की चिंता सदाशयी की चिंता है| यकीनन दोनों स्थितियों व चिंताओं के आयाम भिन्न है| इससे स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति उस कठिनाई व परिस्थिति को स्वानुभव करते हुए संघर्ष कर रहा है उसकी पीडा़ सहानुभूति की रेखाओं से अत्यधिक गहरी, प्रबल व भोगे हुए सुदृढ़ अनुभवों के संगम में लिप्त होगी| प्रश्न यह भी उठता है कि दलित कौन है?, उनका प्रवेश हिन्दी कविता( साहित्य की विभिन्न विधाओं) में कैसे व किस प्रकार हुआ? और दलितों का अस्तित्व क्या है?
दलित शब्द का मूलतः अर्थ ' रौंदा हुआ', ' दबाया हुआ', 'पिसा हुआ', ' विनष्ट किया हुआ से लिया जाता है| हिन्दी अंग्रेजी शब्दकोश में डाउनट्रोउन ( Downtrodden), और डिप्रेस्ड ( Depressed) शब्दों का प्रयोग देखने के लिए मिलता है| यह केवल एक शब्द ही नहीं है बल्कि इसके भीतर उन लोगों की संवेदनाएं, संवेगों व भोगे हुए यथार्थ की गूंज है जो सदियों से सामाज की मुख्य धारा से विलग होकर भी, चेतना के कपाटों को खोलने के लिए व्याकुल व आतुर रहे हैं|
दलित शब्द 19 वी सदी के नवजागरण की उपज है जो आकस्मिक रूप से नहीं बल्कि समाज और स्वयं से यह प्रश्न करता है कि हम कौन है? समाज में हमारा स्थान क्या है?हमारे प्रति हेय व तिरस्कृत दृष्टिकोण क्यों है? अछूत की श्रेणी में हमें क्यों रखा जाता है? इन सभी प्रश्नों से जब वो टकराकर अपने अस्तित्व निर्माण की बात करते हुए वैचारिक उर्वर भूमि पर तर्क वितर्क देते हैं यही से दलित विमर्श की आकृतियाँ स्पष्ट होती है|
दलित साहित्य का आविर्भाव 1914 में "सरस्वती पत्रिका" में मुद्रित " हिरा डोम " की कविता ' अछूत की शिकायत ' से होती है| उन्होंने दलितों की चेतना में आक्रमकता, मानव मुक्ति( रूढ़ियों से),नैराश्य जीवन की विडम्बना, अपमानित जीवन की दयनीय स्थितियों को उभारते हुए ब्राह्मणवादी व आडंबरपूर्ण समाज पर तीखा प्रहार किया है| उनहोने दलितों के दुखों को बहुशास्त्रीय रूप से अभिव्यक्त किया है-
" हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी|
हमनी के साहेब से मिनती सुनाइबि|
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि|
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धसरम न छोड़त बनत बा जे,
बे धरम होके कैसे मुंहवा दिखाइबि ||"
वह समाज की खोखली नीतियों पर भी प्रश्न चिन्ह्र लगाते हैं| पाखंडी व अधार्मिक कर्मकांड को समाज से बहिष्कृत करने की गुहार लगाते हैं| डाॅ. अंबेडकर, ज्योतिबा फूले, घासीदास ( मध्यप्रदेश 1756), चांदगुरू( 1850 बंगाल), रामास्वामी नायकर ( 1859 तमिलनाडु), स्वामी अछूतानंद ( उत्तर प्रदेश 1859), इत्यादि विद्वानों ने दलितों की अस्मिता को समाज की संपूर्ण ( आर्थिक, शैक्षणिक, राजनीति, सांस्कृतिक आदि) मुख्य धारा से जोड़ने का कड़ा संघर्ष किया जो अतुलनीय है| 1873 में ज्योतिबाफुले ने " सत्यशोधन समाज " की आधारशिला रखी और " गुलामगीरी " पुस्तक के द्वारा दलितों की वैचारिक उत्तेजना को विश्व स्तर तक पहुँचाने का कार्य किया|
डाॅ. अंबेडकर ने दलितों के धूमिल व खोए हुए स्वाभिमान व आत्मसम्मान की चेतना को जागृत किया| उन्होंने अपनी पुस्तकों " The Untouchable ", " What did Gandhi and congress do for Untouchables? " में जातिगत भेदभाव के प्रति आक्रोश व्यक्त किया जो तार्किक विचारों की नींव पर खड़ा है| वर्णव्यवस्था, जातिवाद को हिंदू धर्म पर कलंक माना और अछूतों के स्वाभिमान के साथ साथ दलितों में दलित स्त्रियों के अधिकारों को सर्वांगीण उन्नति के मार्ग से जोड़ा| उन्होंने यह भी लिखा है कि - " छिने हुए अधिकार भीख में नहीं मिलते| प्रवच्चको के विवेक के आगे गिड़गड़ाने से भी प्राप्त नहीं होते अधिकार वसूल करना होता है, अविराम संघर्ष के माध्यम से, देव पूजा में बकरी की बलि दी जाती है सिंह की नहीं| "
यही अभिप्रेरणा का स्वर दलितों के भीतर प्रस्फुटित होता है| वह पूर्णतः दलितों के संज्ञान में चेतना का प्राण फूंकने का कार्य करते है| चातुर्वर्ण व्यवस्था को तार्किक प्रश्नों के घेरे में लाकर क्रांति का बीज बोते है| वह इसके लिए शिक्षा को एकमात्र सशक्त माध्यम बताते हैं जो दलितों की विलुप्त जीवन शैली के मूल्यों का उत्थान करने का अनिवार्य तत्व है| उन्होंने दलितों की शिक्षा के प्रसार के लिए बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924), पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी ( 1946), डिप्रेस्ड क्लास एजुकेशन सोसाइटी ( 1928), औरंगाबाद में मिलिंद काॅलेज (1951) इत्यादि संस्थानों की स्थापना की | इससे संकीर्ण कु मानसिक समाज के भीतर सकारात्मक, रचनात्मक परिवर्तन का दृश्य उभर कर आए|
कविताओं के चित्रपटल पर दलितों की संवेदनाएं व आक्रोश की ज्वालामुखी जलते हुए लावे की भांति अपने विकराल स्वरूप में आती है| जो समाज की जड़ता पर कुठाराघात करते हुए मानवतावाद को केंद्र में रखते है|उनके निजी समस्याएं व सरोकारों का साक्षात्कार सार्वभौमिक धरातल पर समाज के बड़े बड़े रूढ़िवादी वर्गों को टक्कर देता है| " माखनलाल सिंह " बरसों की चुप्पी को इस प्रकार तोड़ते है-
" लेकिन जब किसी कुठौर चोट पर,
बेटे को फफकते देखता हूँ तो,
सूखे घाव दुखियाने लगते हैं.
बूढ़ा खून हरकत में आ जाता है
और मन किसी बिगड़ैल भैंसे सा
जुआ तोड़ने को फुंफकार उठता है| ( सुनो ब्राह्मण)
इसी प्रकार " ओम प्रकाश वाल्मीकि" ने दलित साहित्यकारों के भीतर बहुआयामी क्रिया के अंकुर को जागृत करते हुए कहते हैं कि- " दलित साहित्यकारों का उद्देश्य मात्र दलितों पर हुए अत्याचारों, अन्याय, शोषण का विवरण प्रस्तुत करना ही नहीं है, बल्कि सवर्ण हिंदुओं को आत्मशोधन के लिए मजबूर करना भी है| यही है दलित साहित्य की प्रतिबद्धता | " वह दलितों को समरसता व एक सूत्र में पिरोने की बात करते हैं| जो क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद व अलगाववाद विहीन हो और उनकी संवेदनाओं व स्वानुभूति का प्रसार हो| वह स्वयं अपनी कुंठा, अंर्तद्वंद और विरोधों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते है-
" कभी नहीं मांगी बलिश्त भर जगह
नहीं मांगा आधा राज भी,
मांगा है सिर्फ न्याय...
थोड़ा सा बचपन
थोड़ा सा अपनापन
जब जब भी कुछ मांगा
वे गोलबंद होकर टूट पड़े
मैं आवाक!
( बस्स बहुत हो चुका)
उन्होंने विकृत रूढ़ियों, हिन्दुत्ववाद के आडंबर, वर्णव्यवस्था की दीवारों को गिराया है-
" चूहडे़ या डोम की आत्मा
ब्रह्म का अंश क्यों नहीं है?
मैं नहीं जानता
शायद आप जानते हो..
( बस्स बहुत हो चुका)
हिन्दी दलित कविताओं के अंतर्गत बहुतायत ऐसे भावों व विचारों की सूक्ष्मता है जो व्यापक सत्य का आह्वान करती है| "कंवल भारती" ने अपनी प्रतीकात्मक कविता के द्वारा भी सत्य को छिपने नहीं दिया| चिड़िया के उपमान द्वारा दलितों की दयनीय स्थिति के सत्य को इस प्रकार रेखांकित करते हैं-
" चिड़िया भूखी थी
इसलिए गुनहगार थी
मारी गई वह चिड़िया
जो भूखी थी
लेकिन गोरख पांडे ने गलत
लिखा था
वह चिड़िया भूख से नहीं
चिड़िया होने से पीड़ित थी...
वह कैसे जानता
गरीबी नहीं
सामाजिक बेइज्जती अखरती है
वह कैसे जानता है?
वह चिड़िया थी
इसलिए गुनहगार थी
चिड़िया जो मारी गई|
( तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती)
वही समाज के भीतर छिपे रहस्यों ( कारणों) की महीन परतों को उधेड़ते हुए " अछूतानंद " अपनी कविता ' दलित कहाँ तक पडे़ रहेगें? ' में दलितों को गुलाम होने का अनुभव दिलाते हैं ताकि वह सुप्तस्य परिवेश को भंग कर स्वचेतना के द्वार द्वारा कुचक्रों के जालों में फंसे समाज को सत्य से साक्षात्कार करा सके| और जागृति के परिदृश्य में नवाचार समाज की छवि को गढे़ |
"ये आदि हिन्दू, पीड़ित, दलित कहाँ तक पडे़ रहेगें?
प्रबल अनल के प्रचंड शोले, जमीं में कब तक गडे़ रहेगें?
स्वभाव आखिर अनल तो अपना बता ही देगा बता ही देगा.
धधकती आग में धुंधकारी सरीखे कब तक खड़े रहेगें? "
यहाँ कवि दलितों के मस्तिष्क में आशावादी स्वरों को भी आत्मसात करने का संकेत देता है उसे अनल ( आग) की भांति उठने के लिए कहता है| "स्वामी शंकराचार्य" ने अपनी पुस्तक " शंकरानंद भपनावली " में स्वामी " अछूतानंद हरिहर " के कार्यों को इस प्रकार श्रेष्ठ बताया है-
" धन्य धन्य अछूतानंद ऋषि, तुमने अछूत उद्दार किया|
बहती नया का बन मल्हा, तुमने बल्ली से पार किया|
थे कष्ट महान् अछूतों पर, वे रोज सताए जाते थे|
बेगार गुलामी को तुमने छुड़वाकर, दुखों को टार दिया|
धन्य धन्य अछूतानंद ऋषि, तुमने अछूत उद्दार किया| "
इसी प्रकार कवयित्री"सुशीला टाकभौरे" ने दलितों के नैराश्य जीवन की तस्वीरों के फ्रेमों में स्वच्छ, स्वच्छंद ,तार्किक वैचारिक स्थितियों को समेकित किया है| इनकी कविताओं में दलित और स्त्री मुक्ति दोनों ही मार्ग संघर्षों की नौकाओं में बैठकर भारतीय सामाजिक संरचना में मनुष्यता के हमरस की अंतध्वनियों को उद्वेलित करती है| ' स्वाति बूँद और खारे मोती (1992)',' हमारे हिस्से का सूरज ( 2005)', ' यह तुम भी जानो (1994), ' तुमने उसे कब पहचाना (1995) ' जैसी सुदृढ़ कविताओं का संग्रह है जो स्त्री प्रश्नों व दलितों की विडम्बना से संपूर्णतः जुड़ी हुई है| वह दलितों की स्थितियों का मुख्य कारण हिन्दू प्रवक्ताओं उनकी तुच्छ व अतार्किक नियमों व नीतियों को बताती है| जो अंधकारमय मानसिक गुलामी को सदियों से बनाएं रखना चाहता है उसे वह साहसिक व रौद्र रूप से आच्छादित परिवेश में भी उजाले की किरण को उभारती है-
" शम्बूक आज भी मारे जा रहे हैं
चल रही है आज भी झूठी कथाएँ
धूर्त ढोंगी वर्ग आज भी,
श्रेष्ठ माने जा रहे हैं
और ये? दलितों में पददलित!
कुटिल, कपटी, विषमतावादी
वाल्मीकि के नाम से इन्हें भरमाते है,
उन्हें छल बल के साथ
जागृति का संदेश सुनने नहीं देते||"
( हमारे हिस्से का सूरज)
वह आत्म संघर्ष के लिए दलितों के अस्तित्व में क्रांतिकारी चेतना का संचरण करती है | शोषित दबी कुचली आंसू बहाती मानवता को केवल सांत्वना ही नहीं बल्कि उसे तार्किक मनोबल से सींचने का मार्ग दिखाती है-
" शोषितों के मर्म को
पीड़ितो के दर्द को
चीत्कार को हुंकार में,
मैं बदल देता चाहती हूँ
पंख मेरे फड़फड़ाते है|"
डाॅ. एन. सिंह भी समाज में व्याप्त मनुवादियों की मानसिकता पर तीखा प्रहार करते हुए लिखते हैं कि-
" समरसता की राम नामी ओढ़कर
वे फिर आ गयें है|
नारायणपुर, बेलती और पिंपरा के अपराधी,
कही यही तो नहीं है|
गले लगाने की साजिश को समझों,
भूलो मत कि यह वही है|"
प्रगतिशील चेतना से ओतप्रोत " माता प्रसाद " भी अपने गीत " सोनवा के पिंजरा " के द्वारा दलितों में दलित मजदूर वर्गों की असहनीय पीड़ा की रेखाओं को सजीव रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं जो सर्वप्रथम वे दलित है और दलितों में भी, मुसहर जाति का एक छोटा मजदूर है जिसकी स्थिति दोहरी व असीम पीड़ा के चक्र में कैद हैं-
" नाम मुसहरवा है,कबनउ सहरवा न,
कैसे बीते जिनगी हमार |
जेठ दुपरिया में सोढ़िया चिराई करी,
चलै पसिनवां के धार|
बहंगी में बांधि लेइ चलती, लकड़ियाँ,
आधे दाम मांगे दुतकार||"
इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी वे आशावादी स्वरों को कम नहीं होने देता| " पी. एन. प्रभु " अपनी पुस्तक " Hindu social Organization " में लिखते है कि भारतीय हिन्दू सामाजिक संरचना के मूल आधार है- वर्णव्यवस्था, पुरूषार्थ, चतुष्टय कर्मफल, आश्रम व्यवस्था ईत्यादि | परंतु इन्ही व्यवस्थाओं की छतरी के नीचे दलितों को मनोवैज्ञानिक रूप से पंगु बनाकर उस पर वर्चस्वपूर्ण परचम को लहराया जाता है| इस स्थिति में भी, जब दलितों का दुख तार्किक आकृतियों में मुखरित होता है तो समाजिक व्यवस्था में टीस उत्पन्न हो जाती है और वो पुनः उनके ( दलितों) पथों में अपमान के कांटे बिछाने लगते हैं| " नगीना सिंह " अपनी कविता " कितनी व्यथा " में दलित जन जीवन के संत्रास के भीतर आशा की चिंगारी को प्रज्ज्वलित करते हैं-
" कितनी व्यथा झरी आज तक बदली से,
रोक सका है कौन अरे! मधुमास को
जाने कितने टूटे हैं अहसास मगर,
तोड़ सका है कौन अनश्वर आस को
मत ठोकर खाकर ठहर पथिक पथ शेष है| "
दलितों में व्याप्त अंतर्विरोधों की गहरी पीडा़ सामाजिक रूढ़ियों को खुलकर लताड़ते हुए आगे बढ़ने का जज्बा भरने का कार्य करती है| " भागीरथ मेघवाल " कहते हैं कि-
" वक्त के सामने
दीवार बनकर खड़े मत रहो
लकीर के फकीर बनकर अडे़
मत रहो
बंदरिया के लिपटाये रखने से
उसका मरा बच्चा जी तो नहीं जाता| ( दलित चेतना- कविता)
हिन्दी दलित कविताओं ने पारंपरिक जातिगत अपमान व रूढ़िवादी विचारधाराओं पर अंकुश ही नहीं लगाया बल्कि उसके प्रति रौद्र, रौष व आक्रोश की सशक्त अभिव्यक्ति को हवा दी है| जिस पौराणिक, ऐतिहासिक व धार्मिक कथाओं व पवित्र ग्रंथों पर हमें गर्व होता है उन ग्रंथों में भी, दलितों का छटपटाता हृदय व देह दर्द की करवटें बदलते हुए नज़र आता है| महाभारत के द्रोणाचार्य भी, दलितों के लिए अभिशाप से कम नहीं है| जो षड्यंत्र, छल कपट के ताने बाने में धनुर्धर " एकलव्य " का अंगूठा काटने पर विवश कर देते हैं| इसी अन्याय के प्रति " अ.ला. ऊके " अपनी कविता " काश मैं एकलव्य होता " में भारी आक्रोश की अभिव्यंजना देते हुए कहते हैं कि-
" मैं एकलव्य होता
तो गुरु दक्षिणा में,
अंगूठा मांगने वाले
गुरु की जुबान काट लेता | "
यही असमानता, जातिगत भेदभाव, स्वतंत्रता व अधिकारों के हनन होने पर दलितों की आत्मा पुनः परिवर्तनकारी रूप में उठती है| " जयप्रकाश लीलवान " की कविता ' दमन की दैनिकी ' में इसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार है-
"हमारे लिए
देश का अर्थ
भाईचारे की कसमें निभाते हुए
जातियों के जंगल जला दिए जाने की मंजिल पर,
चाव भरे कदमों के साथ
चलने का सफ़र होता है|"
वस्तुतः आज हम जिस राम, कृष्ण के गुणों का स्मरण करते हुए हिन्दू संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं वही दूसरे छोर पर दलितों को अभद्रता के शिकंजे में कसते है| जो हिन्दू संस्कृति के स्वर्णिम अतीत पर भी काले बादल जैसा प्रतीत होता है| " बुद्धशरण हंस " अपनी एक कविता में रूढ़ हिंदूवादियों के प्रति जमकर विरोध प्रकट करते है और शंबूक व एकलव्य को भी याद करते हैं-
" जब तुम राम का नाम लेते हो|
मुझे शंबूक का
कटा सिर दिखने लगता है|
जब तुम हनुमान का नाम लेते हो|
मुझे गुलामी का दर्द सताने लगता है
तुम्हें अपने घृणित अतीत पर गर्व है|
मैं तुम्हारे अतीत पर थूकता हूँ| "
दलितों के भीतर घर कर गयी हीन भावना के दरवाजें को तार्किक विचारों से खोलते हुए " डाॅ. सी. बी भारती" उनके भीतर सकारात्मक परिवर्तन की तरंगों को उत्पन्न करते हैं| मठाधीशों के धर्म मठों पर बड़ा सवाल उठाते हैं-
" घबराओ नहीं
समय आ रहा है
जब हम भी बढ़ेगें तुम से
दौड़ने की शर्त
जीतेंगे बाजी तोड़गे तुम्हारा दर्प
सुनो परिवर्तन की सुगबुगाहट
बदलती हवा का रूख
पहचानों, पहचानों, पहचानों! "
सामाजिक आलोचना को खुली दृष्टि से परखते हुए कवि " अदम गोंडवी " ने भी अपनी कविता " मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको" में दलितों में दलित पीड़ित, शोषित, स्त्रियों को न्याय न मिल पाने का कटु यथार्थ समाहित हैं| जो सवर्णों के अत्याचारों के कुचक्रों में दिन रात पिसती रहती है-
"आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ कीलं छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई |"
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणों से देखा जाए तो दलित कविताएँ संपूर्ण मनुष्यों की स्कीमा में सामाजिक न्याय, मानवीय संवेदनाओं व मूल्यों की सूक्ष्मदर्शी नवाचारों विचारों को पनपने का उन्मुक्त अवसर देती है| सर्वहारा वर्ग, हाशिये के समाज के भीतर प्रेम की अविरल धारा प्रवाहों में स्फूर्तिदायक अस्तित्व को प्रगतिशील छवियों में चित्रित करती है| " ओम प्रकाश वाल्मीकि " ने अपनी कविता " ठाकुर का कुआँ " में तमाम स्वार्थपन से ओतप्रोत अंधविश्वासी समाज के मस्तिष्क के मनोविज्ञान को खोलकर रख दिया है-
" कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत खलिहान ठाकुर के
गली मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गाँव?
शहर?
देश? "
इससे पूर्णतः स्पष्ट होता है कि समाज की कुमानसिकता ही दलितों के लिए बाधक तत्व है| जो अपने सडे़ गले संज्ञान के द्वारा उनके अधिकारों की अवहेलना कर रहे हैं|
निष्कर्ष- अंत में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी कविता में संपूर्ण दलित कविताएँ मनोरंजनात्मक नहीं है बल्कि उसके सारे शब्दों में उनके ( दलितों) हृदयों की वह वेदना है जो संघर्ष करते हुए अपनी अस्मिता का सृजन करते हैं| समाज में व्याप्त दकियानूसी रूढ़ियों की बेड़ियों को तोड़कर नये समाज का निर्माण करते हैं| उनका संत्रास, छटपटाहट, पीड़ा ही आशावादी व क्रांतिकारी स्वरूप में ढलकर जातिवाद, क्षेत्रवाद, अलगाववाद, वर्णव्यवस्था, अंधविश्वास, रूढ़ियों, सांप्रदायिक हिंसा इत्यादि स्थितियों पर पैना प्रहार करता है| जो वर्चस्वपूर्ण पताका के खिलाफ प्रतिरोधात्मक रूप से हमरस की धारा में बहता है| अंततः 'ओम प्रकाश वाल्मीकि 'की "सदियों के संताप" कविता की कुछ पंक्तियों के द्वारा पूर्णविराम दूंगी-
" मेरी पीढ़ी ने अपने सीने पर
खोद दिया है संघर्ष
जहाँ आंसुओं का सैलाब नहीं
विद्रोह की चिंगारी फूटेगी
जलती झोपड़ी से उठते धुएं में
तीन मुट्ठियाँ
तुम्हारे तहखाने में
नया इतिहास रचेगी ||"
विवेकानंद महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
हिन्दी परास्नातक प्रथम वर्ष
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