"हिंदी भाषा का व्यावहारिक ज्ञान"(लेख)

हिंदी भाषा का व्यावहारिक ज्ञान

हिंदी हमारी पहचान है

हिंदी हमारी जान है

मान है स्वाभिमान है

हर ख्वाइश अरमान है

*******आइये कुछ मूल ज्ञान की ओर चलें।*******


वर्ण: हिंदी भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि होती है। इसी ध्वनि को ही वर्ण कहा जाता है।

वर्णमाला: वर्णों के व्यवस्थित समूह को वर्णमाला कहते हैं।

हिन्दी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है जिसमे 52 वर्ण हैं और इन वर्णों को व्याकरण में दो भागों में विभक्त किया गया है: स्वर और व्यंजन। 

स्वर


जिन वर्णों को स्वतंत्र रूप से बोला जा सके उन्हें स्वर कहते हैं।

इन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस कंठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है।

जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का ‘न्’, संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर – कृष्ण का ‘ष्’) उसे वर्ण नहीं माना जाता।

उच्चारण के आधार पर 10 स्वर होते हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ

लेखन के आधार पर 13 स्वर होते हैं, जिनमें 3 अतिरिक्त स्वर होते हैं: अनुस्वार अं, विसर्ग अ: और ऋ

व्यंजन


जो वर्ण स्वरों की सहायता से बोले जाते हैं उन्हें व्यंजन कहते हैं।

हर व्यंजन के उच्चारण में अ स्वर लगा होता है, अ के बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं हो सकता। अतः क = क् + अ , च = च् + अ आदि।

व्यंजन का उच्चारण करते समय साँस कंठ, तालु आदि स्थानों से रुककर निकलती है।

पंचमाक्षर:

वर्णमाला में किसी वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन। जैसे- ‘ङ’, ‘ञ’, ‘ण’ आदि।

पंचमाक्षरों का प्रयोग कम हो गया है और इसके स्थान पर अब बिन्दी (ं) का प्रचलन बढ़ गया है।

लेखन के आधार पर 35 व्यंजन [क – ह] और चार स्वतंत्र संयुक्त व्यंजन होते हैं।

5 कवर्ग: क, ख, ग, घ, ङ;

5 चवर्ग: च, छ, ज, झ, ञ;

5 टवर्ग: ट, ठ, ड, ढ, ण; [+ 2 = ड़, ढ़] = 7

5 तवर्ग: त, थ, द, ध, न;

5 पवर्ग: प, फ, ब, भ, म;

4 अंतस्थ: य, र, ल, व;

4 उष्म: श, ष, स, ह;

संयुक्त व्यंजन दो या अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं। संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा स्वर सहित होता है।

क्ष = क् + ष् + अ [रक्षक, भक्षक, क्षोभ, क्षय]

त्र = त् + र् + अ [पत्रिका, त्राण, सर्वत्र, त्रिकोण]

ज्ञ = ज् + ञ + अ [सर्वज्ञ, ज्ञाता, विज्ञान, विज्ञापन]

श्र = श् + र + अ [श्रीमती, श्रम, परिश्रम, श्रवण]

द्वित्व व्यंजन या व्यंजन गुच्छ-सूत्र: जब एक व्यंजन का अपने समरूप व्यंजन से मेल होता है, तब वह द्वित्व व्यंजन कहलाता हैं। द्वित्व व्यंजन में भी पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है, जैसे:

क् + क = पक्का

च् + च = कच्चा

म् + म = चम्मच

त् + त = पत्ता

अक्षर


ध्वनियों की संगठित इकाई को ‘अक्षर’ [या शब्दांश] कहते हैं।

प्रचलन में अक्षर को अंग्रेज़ी में ‘सिलेबल’ का पर्यायवाची माना गया  जिसमें अनुस्वार सहित स्वर तथा व्यंजन सभी ध्वनियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं।

किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है जिन्हें ‘शब्दांश’ कहते हैं|

शब्दांश शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और ज़्यादा छोटा नहीं बनाया जा सकता, अन्यथा शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं। किसी शब्द के शब्दांश बनाने में भी उनके विस्तार का ध्यान रखना चाहिए|

जैसे ‘अचानक‘ शब्द के तीन शब्दांश हैं – ‘अ’, ‘चा’ और ‘नक’। यदि रुक-रुक कर ‘अ-चा-नक’ बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है। अगर ‘नक’ को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं – ‘अ-चा-न-क’. इस शब्द को ‘अ-चान-क’ भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

एक शब्दांश के शब्द : ‘आ’, ‘में’, ‘कान’, ‘हाथ’, ‘जा’

दो शब्दांश के शब्द : ‘चलकर’ (‘चल-कर’), खाना (‘खा-ना’), रुमाल (‘रु-माल’) सब्ज़ी (‘सब-ज़ी’)

तीन शब्दांश के शब्द : ‘महत्त्वपूर्ण’ (‘म-हत्व-पूर्ण’) और ‘अंतर्राष्ट्रीय’ (‘अंत-अर-राष-ट्रीय’)

चार शब्दांश के शब्द : ‘आधुनिक’ (आ-धु-नि-क) और ‘कठिनाई’ (क-ठि-ना-ई)

पाँच शब्दांश के शब्द : अव्यावहारिकता, अमानुषिकता

किसी शब्द में अक्षरों की संख्या इस बात पर बिलकुल निर्भर नहीं करती कि उसमें कितनी ध्वनियाँ हैं, बल्कि इस बात पर पर करती हैं कि शब्द का उच्चारण कितने आघात या झटके में होता है, अर्थात्‌ शब्द में कितनी अव्यवहित या बाधित ध्वनि इकाइयाँ हैं।

हर शब्दांश में एक ‘शब्दांश केंद्र‘ होता है, जो हमेशा स्वर वर्ण ही होता है और उसके इर्द-गिर्द अन्य वर्ण मिलते हैं जो व्यंजन भी हो सकते हैं और स्वर भी.

जैसे कि ‘कान‘ शब्दांश का शब्दांश केंद्र ‘आ’ का स्वर है जिससे पहले ‘क’ और बाद में ‘न’ के वर्ण आते हैं।

अक्षर में प्रयुक्त शीर्ष ध्वनि के अतिरिक्त शेष ध्वनियों को ‘अक्षरांग’ या ‘गह्वर’ ध्वनि कहा जाता है।

जैसे कि ‘चार‘ में एक अक्षर (सिलेबल) है जिसमें ‘आ’ शीर्ष ध्वनि तथा ‘च’ एवं ‘र’ गह्वर ध्वनियाँ हैं।

मात्रा


वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं।

छंद में मात्राओं की गिनती ज़रूरी है।

मात्राएँ दो प्रकार की होती हैं: लघु और गुरु

लघु


गिनती: 1 मात्रा

चिह्न: लघु को 1 या खड़ी पाई (।) से प्रदर्शित किया जाता है। 

उच्चारण: ह्रस्व 

चार लघु मात्रिक स्वर होते हैं: अ, इ, उ, ऋ


दीर्घ


गिनती: 2 मात्राएँ

चिह्न: दीर्घ का मान 2 होता है और उसे (ऽ) चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है।

उच्चारण: गुरु / दीर्घ 

हिन्दी में प्लुत (3) नहीं है।

नौं दीर्घ मात्रिक स्वर होते हैं:  आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः


मात्रा गणना के सूत्र:


मात्रा केवल स्वर की गिनी जाती है।

बिना स्वर के कोई उच्चारण नहीं होता अतः जो भी अक्षर देखें उसमें लगे हुए स्वर पर दृष्टि डालें।

हलन्त [या विराम ( ् )] एक चिह्न है और वो जिस व्यंजन के बाद लगा होता है उस व्यंजन में ‘छिपा हुआ’ अ समाप्त हो जाता है।

हलन्त से पूर्व का वर्ण लघु होने पर भी गुरु हो जाता है।

आधी मात्रा नहीं होती क्योंकि आधा स्वर नहीं होता।

लघु-दीर्घ का निर्धारण स्वर से ही होता है।

स्वर यदि लघु है तो मात्रा लघु होगी अर्थात् 1, और यदि दीर्घ है तो 2।

जैसे ‘अ’ बोलने में कम समय लगता है, जबकि ‘आ‘ में अधिक; अत: अ की मात्रा हुई एक, अर्थात लघु और आ की दो अर्थात गुरु।

हर शब्द को बोलने में कम या ज्यादा समय लगता है यह शब्द में अक्षरों की संख्या पर निर्भर है। मात्राभार का मतलब है किसी शब्द को बोलने में लगने वाली अवधि। यहाँ मात्रा क्वांटिटी के सन्दर्भ में है समय की क्वांटिटी कितनी लगती है।

एक अक्षरीय शब्द लीजिये – न

इसमें न् और अ होता है न् व्यंजन और अ स्वर।

न को बोलने में जो समय की क्वांटिटी लगती है वह् लघु है

ना = न और आ के मेल से बना है, इसे बोलने में अधिक समय की क्वांटिटी लगती है, अतः इसका मात्राभार दीर्घ होगा, जिसे हम 2 से रिप्रेजेंट करेंगे।

अनुस्वार[ ं ] और विसर्ग [ : ]:

अनुस्वार [ ं ] और विसर्ग [ : ] युक्त वर्ण यदि लघु हो [जैसे अ, इ, उ, ऋ या उनसे युक्त व्यंजन], तो उन्हें गुरु / दीर्घ माना जाता है और उनकी मात्राएँ दो हो जाती हैं, जैसे:

शब्द अंश, हंस, वंश, कंस में अं हं, वं, कं = दीर्घ = 2 मात्राएँ

शब्द प्रातः, अंत: में तः = दीर्घ = 2 मात्राएँ

स्वरों की मात्रा का प्रयोग होने पर अनुस्वार (.) की मात्रा की कोई गिनती नहीं की जाती।

चंद्रबिन्दु नासिक ध्वनि है जो किसी भी स्वर से संयुक्त हो सकती है।

अनुनासिक के लिए सामान्यतः चन्द्र -बिंदु का प्रयोग किया जाता है, जैसे – साँस।

अनुनासिक की स्वयं की कोई मात्रा नहीं होती, तो किसी भी वर्ण में अनुनासिक लगने से मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पड़ता, जैसे:

शब्द अँगना = अ की मात्रा एक ही रहेगी

शब्द आँगन = आ की मात्राएँ दो ही रहेंगी

ऊपर की मात्रा वाले शब्दों में केवल बिंदु का प्रयोग किया जाता है, जिसे भ्रमवश अनुस्वार समझ लिया जाता, जैसे:

शब्द पिंजरा, नींद, तोंद आदि।

ध्यान दें कि यह शब्दों में अनुस्वार [ ं ] नहीं, बल्कि अनुनासिक का प्रयोग है।

ऋ और रि के प्रति भ्रान्ति हो सकती है:

ऋ लघु स्वर है, रि लघु व्यंजन – जैसे कृपा = 1-2

मात्रा गणना के कुछ ऐसे नियम हैं जो ग़ज़ल लेखन में इस्तेमाल होते हैं।

उन्हें आप यहाँ देख सकते हैं: तक़्तीअ


आइये देखते हैं किसी भी व्यंजन में अलग अलग स्वरों के जुड़ने से मात्राएँ कैसे गिनी जायेंगी:


लघु मात्रिक [एक मात्रा]:


क [क् + अ],

कि [क् + इ],

कु [क् + उ]

कृ [क् + ऋ]

दीर्घ मात्रिक [दो मात्राएँ]:


का [क् + आ],

की [क् + ई],

कू [क् + ऊ],

के [क् + ए],

कै [क् + ऐ],

को [क् + ओ],

कौ [क् + औ],

कं [क् + अं],

कः [क् + अः]

संघोषीकरण – ‘ह’ के साथ विशेषता


सभी वर्गों के (कवर्गादि) द्वितीय और चतुर्थ वर्ण क्रमशः प्रथम एवं तृतीय वर्ण के ‘ह’ के योग से बनते हैं। जैसे क्+ह = ख। इसे संघोषीकरण कहते हैं। 

इस रीति से जब किसी व्यंजन के बाद ‘ह’ आता है तो यही संघोषीकरण जैसा प्रभाव उत्पन्न होता जिससे वह संयुक्ताक्षर होते हुए भी व्यवहार में शुद्ध वर्ण जैसा लगने लगता है। प्रायः उसका पूर्ववर्ती लघु वर्ण दीर्घ नहीं होता। जैसे:

शब्द ‘तुम्हारा’ में तु = एक मात्रा ही रहेगी।

शब्द ‘कन्हाई’ में ‘क’ = एक मात्रा ही रहेगी।

शब्द ‘कुल्हाड़ी’ में ‘कु’ = एक मात्रा ही रहेगी।

लेकिन जहाँ ऐसा प्रभाव उत्पन्न नहीं होता वहाँ यह नियम लागू नहीं होगा, जैसे:

शब्द ‘नन्हें’ में ‘न’ = दो मात्राएँ। इसका कारण यह है कि उच्चारण हो रहा है ‘नन् न्हें’ – यहाँ ‘न’ का द्वित्व है, यह क्रिया ‘न’ के बाद हो रही है, इसलिए ‘न’ की दो मात्रा हो जाएँगी।

‘कुल्हड़’ में ‘कु’ = दो मात्राएँ [जबकि ‘कुल्हाड़ी’ में ‘कु’ की एक मात्रा थी जैसा हमने ऊपर देखा]

अर्ध व्यंजन की मात्रा गणना:


अर्ध व्यञ्जन एक भ्रान्ति है, अर्द्ध व्यंजन हलन्त व्यंजन ही है – स्वरहीन व्यंजन ही आधा व्यंजन हुआ।

व्यंजन अपने आप में वैसा (जिसे अर्ध कहते) ही होता है। हम जिसे पूरा व्यंजन मानते हैं वो वास्तव में व्यंजन + अ होता है| अ प्रथम स्वर है उसकी खड़ी लाइन ही सभी व्यंजन में लगी होती है।

जैसा कि पहले कहा गया है, आधी मात्रा नहीं होती क्योंकि आधा स्वर नहीं होता।

सिर्फ एक ही बात याद रखनी है – यदि अर्ध व्यञ्जन [स्वरहीन व्यंजन] के पूर्व का अक्षर लघु स्वर या लघुमात्रिक व्यंजन है तो दोनों मिल कर दीर्घ हो जाते हैं, जैसे:

शब्द अच्छा, रम्भा, कुत्ता, दिल्ली इत्यादि की मात्राओं की गिनती करते समय अ, र, क तथा दि की दो मात्राएँ गिनी जाएँगी [किसी भी स्तिथि में च्छा, म्भा, त्ता और ल्ली की तीन मात्राये नहीं गिनी जाएँगी]।

इसी प्रकार त्याग, म्लान, प्राण आदि शब्दों में त्या, म्ला, प्रा में स्वरहीन व्यंजन होने के कारण इनकी मात्राएँ दो ही मानी जायेंगी।

सत्य: [सत् = 1+1 = 2] + [ य = 1] अर्थात सत्य = 2-1

कर्म – 2-1

हत्या – 2-2

अनुचित्य – 1-1-2-1

मृत्यु – 2-1

कब २ मात्रिक को ११ नहीं गिना जा सकता:

सच्चा = स१+च्१ / च१+आ१ = सच् २ चा २ = २२ [अतः सच्चा को ११२ नहीं गिना जा सकता है]

आनन्द = आ / न+न् / द = आ२ नन्२ द१ = २२१

कार्य = का+र् / य = कार् २ य १ = २१ (कार्य में का पहले से दो मात्रिक है तथा आधा र के जुडने पर भी दो मात्रिक ही रहता है)

तुम्हारा = तु/ म्हा/ रा = तु१ म्हा२ रा२ = १२२

तुम्हें = तु / म्हें = तु१ म्हें२ = १२

उन्हें = उ / न्हें = उ१ न्हें२ = १२

उच्चारण अनुसार मात्रा गणना के कारण कुछ शब्द इस नियम के अपवाद भी है।

जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्घ नहीं होता। जैसे:

कन्हैया में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है, अर्थात कन्हैया = 1-2-2

अनुक्रमांक = अनु/क्र/मां/क = २१२१ (‘नु’ अक्षर लघु होते हुए भी ‘क्र’ के योग से दीर्घ नहीं हुआ और उच्चारण अनुसार अ के साथ जुड कर दीर्घ हो गया और क्र लघु हो गया

बाकी हर स्थिति में अर्ध व्यंजन के होने से कुछ नहीं बदलता, जैसे:

यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो उसकी दो ही मात्राएँ रहेंगी:

आत्मा – आत् / मा = 2-2

महात्मा – म / हात् / मा 1-2-2

एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें – धर्मात्मा – धर् / मात् / मा  2-2-2

यदि अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है और बाद वाले दीर्घ वर्ण के साथ संयुक्त हो तो उसकी दो ही मात्राएं रहेंगी:

स्नान में स्ना= 2-1 [स्नान = स् + न् + आ + न् + अ = आ + अ = 2 + 1 [यहाँ स्वर देख लें, व्यंजन भूल जाइये]

प्यार में प्या = 2-1

त्याग में त्या = 2-1

म्लान में म्ला = 2-1

संयुक्ताक्षर की मात्रा गणना


संयुक्त व्यंजन दो या अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं। संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा स्वर सहित होता है, जैसे:

त्र = त् + र् + अ

पत्रिका, त्राण, सर्वत्र, त्रिकोण

जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं। मगर यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई नया व्यंजन नहीं बनाते, जैसे:

द् [स्वर रहित व्यंजन] + व [स्वर सहित व्यंजन = व् + अ] = द्व

द् + ध = द्ध = शुद्ध

क् + त = क्त = संयुक्त

स् + थ = स्थ = स्थान

स् + व = स्व = स्वाद

प्य, श्ल, द्म इत्यादि।

मूल बात: संयुक्ताक्षर में चाहे जितने व्यंजन लगे हों गणना स्वर की ही की जायेगी, जैसे:

‘प्रथम’ में ‘प्र’ [प्र + अ] = एक मात्रा

‘प्रातः’ में ‘प्रा’ [प्र + आ] = दो मात्राएँ

‘अगस्त्य’ में ‘स्त्य’ = य [य + अ] = एक मात्रा

‘आगस्त्येय’ में ‘स्त्ये’ = ये [य + ए] = दो मात्राएँ

ज़रूरी नियम:

संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं, परन्तु गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं, जैसे:

उपग्रह में संयुक्ताक्षर ‘ग्र’ की एक मात्रा होगी और पूर्व लघु ‘प’ की दो मात्राएँ हो जाएँगी = 1-2-1-1

गोत्र, नेत्र – 2-1

अन्न = उच्चारित होता है = अन् + न, इसलिए 2-1

वक्र / शुद्ध / क्रुद्ध – 2-1

पत्र / यज्ञ / कक्ष – 2-1

जिन अक्षरों में र मिश्रित है वे लघु ही रहते हैं जैसे कि प्र, क्र, श्र आदि।

जिस वर्ण में रेफ (आधा ‘र्’) लगा हो, उससे पहला वर्ण लघु होने पर भी गुरु हो जाता है, जैसे शब्द ‘बर्रैया’ – 2-2-2 आदि।

यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं, जैसे:

त्रिशूल = 121

क्रमांक = 121

क्षितिज = 12

संयुक्ताक्षर में यदि प्रथमाक्षर आधा हो, तो उसकी गणना नहीं होती, जैसे:

प्याला = 2-2

गृह = 1-1

प्रिया = 1-2 आदि।

संयुक्ताक्षर से निम्न स्थितियों में कुछ नहीं बदलता:

संयुक्ताक्षर के पूर्व यदि कोई दीर्घ अक्षर है, तो वो स्वयं दीर्घ ही रहता है, उसकी मात्राओं में कोई परिवर्तन नहीं होता [क्योंकि हिन्दी में दो से अधिक मात्रा नहीं होती]:

उत्तर की मात्रा = 2-1 क्योंकि त्त में त् व्यञ्जन दो हैं, और त् का अधिभार उ स्वर की मात्रा को दीर्घ बना देता है|  

प्राप्त में ‘प्रा’ = 2 मात्राएँ

तृप्त में पहले ‘त’ = 2 मात्राएँ

गोत्र में पहले ‘गो’ = 2 मात्राएँ

संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ ही रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं जैसे: 

राजाज्ञा – 2-2-2

प्रज्ञा = 2-2 

पत्रों = 2-2 

शब्द के आरंभ में कोई भी संयुक्ताक्षर आएगा जिसके साथ लघु स्वर लगा है तो मात्रा लघु ही रहेगी।

स्ल, स्म, स्त, प्ल, स्थि आदि।

संयुक्ताक्षर में यदि प्रथमाक्षर आधा हो, तो उसकी गणना नहीं होती है। जैसे:

प्याला = 2-2

गृह = 1-1

प्रिया = 1-2 आदि।

संयुक्ताक्षर उच्चारण सम्बन्धी समस्या: बहुत बार संयुक्ताक्षर के उच्चारण के कारण मात्रा की गणना में समस्या या गलती होती हैं। जैसे निम्न शब्दों पर ध्यान दें:

‘उपन्यास’:

शुद्ध उच्चारण = उप् न्न्यास’ – यहाँ, ‘न’ का द्वित्त्व हो रहा है। अतः प्रायः संयुक्ताक्षर के पूर्व जब कोई लघु वर्ण होता है तो लघु वर्ण को समय या पहचान देने के लिए वहाँ रुकते हैं।

इस प्रक्रिया में अगले व्यंजन पर द्वित्व हो जाता है। यदि ऐसा न करें तो ‘उपन्यास’ का उच्चारण ‘उप्न्यास’ जैसा हो जाएगा जो अशुद्ध है।

समस्या: उच्चारण है सम्-सस-या – यह अंतर इतना सूक्ष्म होता है कि हम ध्यान नहीं दे पाते।

र् एक विचित्र व्यंजन है, जो संयुक्त होने पर बहुरूपिया बन जाता है।


र् के बाद यदि कोई व्यंजन हो तो र् बाद वाले व्यंजन के सर पर सवार होता है, जैसे:

र्+द=र्द।

र के पहले अ स्वर लगे व्यंजन हो तो तिरछी रेखा की तरह लग जाता है, जैसे:

म्+र=म्र

र के पहले हलन्त व्यंजन हो तो र नीचे लग जाता है, जैसे:

ह्+र =हृ

सभी संयुक्त व्यंजन स्वरों से भी जुट सकते है, जैसे:

त्+र+ई= त्री

इस तरह से मित्र में 2+1 होगा

कुछ अन्य आवश्यक बातें: 


हिन्दी में मात्रा गिराने या बढ़ाने की मान्यता नहीं है। कुछ शब्दों का रूप बिगाड़ कर लघु या दीर्घ कर दिया जाता है जिसमें लघु और दीर्घ का अन्तर होता है| जैसे कश्मीर और काश्मीर – काश्मीर गलत है लेकिन प्रचलन में आने के कारण मान्य हो जाता है।

देसज भाषाओं में कुछ शब्दों की मात्रा अलग है लेकिन जितना हो सके हिन्दी के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।

संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था: जीभ की नोक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी आवाज़ करना। आधुनिक हिन्दी में ष का उच्चारण पूरी तरह श की तरह होता है।

हिन्दी में ण का उच्चारण ज़्यादातर ड़ँ की तरह होता है, यानि कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है। हिन्दी में क्षणिक और क्शड़िंक में कोई फ़र्क नहीं। पर संस्कृत में ण का उच्चारण न की तरह बिना ठोकर मारे होता था, फ़र्क सिर्फ़ इतना कि जीभ ण के समय मुँह की छत को कोमलता से छूती है।

व्याकरण के लिये मूल ग्रंथों का सहारा लेना अच्छा रहता है। नेट पर बहुत सी ग़लत और भ्रामक सूचनाएं मिलती हैं।

कुछ शब्द दो तरह से लिखे और बोले जाते हैं जैसे कि लिखा और लिक्खा।

यहाँ मूल शब्द में एक व्यंजन अधिक लगाया गया है तो लिखा की मात्रा = 1-2, लिक्खा की मात्रा = 2-2 होगी।

इनके अर्थ में अन्तर होता है, जैसे ‘लिखेंगे’ और ‘लिक्खेंगे’ में दूसरे शब्द का अर्थ है कि लिख कर ही रहेंगे!

मात्रा गणना के सूत्रों का सारांश [कुछ शब्दों की मात्राएँ यहाँ देख सकते हैं: शब्द-मात्रा सूची  


उच्चारण के आधार पर 45 वर्ण होते हैं:

10 स्वर: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ

35 व्यंजन: क – ह

लेखन के आधार पर 52 वर्ण होते हैं:

13 स्वर: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ + 3 अतिरिक्त स्वर अनुस्वार अं, विसर्ग अ: और ऋ

35 व्यंजन: क – ह

4 अतिरिक्त संयुक्त व्यंजन: क्ष, त्र, ज्ञ, श्र

उच्चारण में यदि व्यंजन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं।

मात्रा केवल स्वर की गिनी जाती है। बिना स्वर के कोई उच्चारण नहीं होता अतः जो भी अक्षर देखें उसमें लगे हुए स्वर पर दृष्टि डालें।

लघु-दीर्घ का निर्धारण स्वर से ही होता है। स्वर यदि लघु है तो मात्रा लघु होगी अर्थात् 1 और यदि दीर्घ है तो 2।

4 लघु मात्रिक स्वर = एक मात्रा = अ, इ, उ, ऋ

9 दीर्घ मात्रिक स्वर = दो मात्राएँ = आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः

चंद्रबिन्दु की स्वयं की कोई मात्रा नहीं है।

यदि अर्ध व्यंजन या संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर लघु मात्रिक है तो दोनों मिल कर दीर्घ हो जाते हैं।

संयुक्ताक्षर में चाहे जितने व्यंजन लगे हों गणना स्वर की ही की जायेगी।

जिन अक्षरों में र मिश्रित है, वे लघु ही रहते हैं जैसे कि प्र, क्र, श्र आदि।

संघोषीकरण के भी कुछ अलग नियम हैं।

हर नियम में अपवाद भी होते हैं। 

हिन्दी के लिए सार्वभौमिक सीधा सा नियम है “जो बोलो वो लिखो” [‘पढ़ाई‘ सही है क्योंकि हम ‘पढ़ाई’ बोलते हैं ‘पढाई‘ नहीं]

शुद्ध उच्चारण पर ध्यान दें तो मात्रा संबंधी त्रुटि नहीं होती। थोड़े अभ्यास के बाद के उच्चारण मात्र से मात्राओं का अनुमान लगाया जा सकता है।

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