"खुल्लमखुल्ला"(कविता)
गुजारिशें पा बढा नेवला , साँपों तक तो बला । मेढकों में भी कला , हवा बावली ! दिल ढला । सांसों का क्या मामला , मृगतृष्णा से पता चला !! पानी बेपानी और छला , आग और अंधेरा पला । आंसू क्या तुम्हें खला , क्या धुआं भी धुंधला ? लाशों पे राजनीति खुल्लमखुल्ला , ज़िदगी स़च़ में बुलबुला । मरघटों में सन्नाटा उछला , कोलाहलें और कहानियां इत्तिला । काली घटा किसे बदला , कालाबाजारी से क्या भला ? छतरी नहीं - जनता अबला , कामधेनु भी है आगबबूला । नियति दलदल क्यूं उगला , क्या काला और उजला ? ताला भी सहसा खुला , कहां पुष्पों तले गमला ? घर भी हमारा - तुम्हारा जला , तसल्ली हेतु वादा खोखला । अपनी यादों तक फासला , यहीं वेदना और जुम्ला । कहां महफिलों में तबला , घुंघरुओं से क्या सिलसिला ? चंदा तो रही चंचला , सितारों से क्या गला ? विषकन्या और फिर घपला , चूल्हेंबंदी तक का मसला । Written by विजय शंकर प्रसाद