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"खुल्लमखुल्ला"(कविता)

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गुजारिशें पा बढा नेवला , साँपों तक तो बला । मेढकों में भी कला , हवा बावली ! दिल ढला । सांसों का क्या मामला , मृगतृष्णा से पता चला !! पानी बेपानी और छला , आग और अंधेरा पला । आंसू  क्या तुम्हें खला , क्या धुआं भी धुंधला ? लाशों पे राजनीति खुल्लमखुल्ला , ज़िदगी स़च़ में बुलबुला । मरघटों में सन्नाटा उछला , कोलाहलें और कहानियां इत्तिला । काली घटा किसे बदला , कालाबाजारी से क्या भला ? छतरी नहीं - जनता अबला , कामधेनु भी है आगबबूला । नियति दलदल क्यूं उगला , क्या काला और उजला ? ताला भी सहसा खुला , कहां पुष्पों तले गमला ? घर भी हमारा - तुम्हारा जला , तसल्ली हेतु  वादा  खोखला । अपनी यादों तक फासला , यहीं वेदना और जुम्ला । कहां महफिलों में तबला , घुंघरुओं से क्या सिलसिला ? चंदा तो रही चंचला , सितारों से क्या गला ? विषकन्या और फिर घपला , चूल्हेंबंदी तक का मसला । Written by विजय शंकर प्रसाद

"माॅ, एक अक्षरधाम है"(कविता)

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माॅ, एक, शब्द है, ऐसा शब्द, जिसके आगे, सब शब्द,निशब्द। माॅ,  एक, स्वर है, ऐसा स्वर, जिसके आगे, सब स्वर,नि:स्वर। माॅ, एक, अक्षर है, ऐसा अक्षर, हैं जिसके आगे, सब अक्षर,निरक्षर। माॅ, एक, शब्द है, ऐसा अज्ञेय, न होती उपमा ऐसा होता उपमेय। माॅ में होती, एक आत्मा, जिसके आगे सिर, झुकाते है परमात्मा । माॅ, एक है, मर्म स्थान,  जिसके आगे, छोटा सारा जहान। माॅ,  में होता, एक उत्सर्ग, जिसके आगे, तुच्छ होते है स्वर्ग । माॅ में होती, निर्मल धारा, ममता धीरता की, तृप्त होता जग सारा। माॅ, में होता, निस्वार्थ प्रेम, होती करुणाकर, तुच्छ हैं सारे रत्नाकर । Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"कुदरत के आँसू"(कविता)

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बिलख रही धरती यहां कुपित आसमान है, बिक रहा आज यहां कुदरत का सामान है। हवाएं भी बिक रही जल की धार बिक रही, फल फूल बिक रहे पत्ते की छांव बिक रही। माँ  बाप  बिक रहे  बच्चे  भी  बिक  रहे , सांसे  भी  बिक  रही   बिक रही जान है। दर्शन भी  बिक रहा अर्चना  बिक  रही। , बिक रहा  आज  यहाँ  स्वम्  भगवान है । आदर भी बिक रहा सम्मान बिक रहा  , आँसू भी बिक रहे मुस्कुराहट बिक रही । बिक रहा है आसमाँ बिक रही जमीन है , इंसानियत बिक रही कौड़ियों के दाम है। प्रकीर्ति स्तब्ध है चारों दिशाएं निःशब्द है , इंसानियत  बिक  रही  आज  सरे  आम है । आज कुदरत भी रो रही है अपने परिवेश में, अब खो गयी मानवता अपने इस देश मे । Written by  मंजू भारद्वाज

"पिता"(कविता)

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उंगलियों को जो पकड  चलना सिखाता है हमें।  लेकर कांधे में अपने  दुनिया घुमाता है हमें।  जो हमारी मांग को  हर हाल में पूरा करे।  वक्त के झंझावात से  लडना सिखाता है हमें।  जो हमारे स्वप्न को  नई चेतना उड़ान दे।  अधपके बीज से  पौधा बनाता है हमें।  वो कभी अगर रूठ जाये  तो जिंदगी तूफान है।  याद आती हर घडी  कितना रुलाता है हमें।  Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"मातृ दिवस"(कविता)

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माँ का कोई दिन  नही   होता।    बल्की हर दिन माँ  का  होता। है। एक शब्द  नहीं माँ  बल्की,    पूरा सँसार है माँ तेरे  नाम  से, है मेरी पहचान माँ  तू  ही तो।    है   मेरा  भगवान  बचपन  में,  जुले पर बिठाकर सुनाती थी।    लोरी  तो  कभी  अपनी  पीठ, पर  बिठाकर  मुझे   समझाई,    प्यारकी मीठी बोली  मेरी हर, चिंता   को  दूर  करने  वाली।    सदा रहे मेरे होठों पर माँ की। लाली  माँ  है  हर  दुःख  की।     दवाई, माँ से जीवन  की  हर, सच्चाई घुटनों को रेंगते  हुए,    पैरों से न जाने में कब  बड़ा। हुआ बचपना अभीभी भूला।     नहीं मैं जब भी उदास हुआ। माँ की गोद मे जाकर सोया। Written by  नीक राजपूत

"मेरी माँ"(कविता)

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आज भी वो आखरी शब्द मेरे कानों में गूँजते है जब उखड़ती साँसों से  मेरी माँ ने कहा में जीना चाहती हु ! में मरना नही चाहती! आज भी मुझे याद है थरथराते हाथों से जब मेरी माँ ने मेरे सिर पर  आखरी बार हाथ फेरा ओर कुछ पलों बाद ही काल ने मेरी माँ की साँसों को हर लिया सदा के लिए आज माँ नही है  मगर माँ की यादे  आँखे नम कर जाती है। मेरी माँ अब सदा यादों में ज़िंदा रहती है माँ को याद करने के लिए  मुझे किसी विशेष दिन की जरूरत नही पड़ती माँ तो मेरी हर साँस में सदा  ज़िंदा रहती है  जब तक मेरी साँसे  चल रही है  माँ हर पल मेरी  आती जाती साँसों में  रहती है जब तक मे हू  मेरी माँ परछाई की तरह  सदा मेरे साथ है। Written by  कमल  राठौर साहिल

"जीवन के बदलते रंग"(लेख)

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 जीवन के बदलते रंग आज विज्ञान बहुत ऊंचाई की तरफ बढ़ता चला जा रहा है और मानवता पाताल में  धसती चली जा रही है। सब कहते हैं हम बहुत उन्नति कर रहे हैं पर क्या हम वास्तव में उन्नति कर रहे हैं ।यह चिंतन का विषय है ।प्रकृति के नियम नियमों के विपरीत जाकर हमने उन्नति नहीं की ,अवनति की है ।भगवान की बनाई इस धरती पर प्रभु ने सारी सृष्टि को बहुत ही नियम वध तरीके से स्थापित किया है पर हमने विज्ञान के नाम पर उत्पात मचा मचा कर सृष्टि को तहस-नहस कर खुद को आधुनिकता के  अंधेरे कुएं में धकेल दिया है।   पहले सूर्योदय की पहली किरण के साथ सुबह होती थी ।आसमान में फैली लाली के साथ सूर्य की पहली किरण धरती पर पड़ती थी । सब जाग उठते थे और वह सुहानी सी सुबह और उसकी सुहानी सी धूप,तमाम विटामिनों से भरपूर होती थी ।सुबह की शीतल हवा तन मन की तमाम परेशानियों को अपने साथ उड़ा ले जाती थी । छितिज पर फैली लालिमा में गजब की ताजगी होती है  ।चिड़ियों की चहचहाहट, पेड़ के पत्तों की सरसराहट, फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुगंधित ओर संगीत मय  बनाती है । इनमें हमारे शरीर के रोम रोम को निरोग करने की असीम शक्ति है। दिन भर के मेहनत क

"रुक जाना नहीं, तू कहीं हार के"(कविता)

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सदा गति है,लिखा धरा की नियति में  जिससे पल में बदले विचार बहार के। दौडे है, पहाडों जैसे सब बोझों को ले, देती है सलोने बूंदे हमें अपने फुहार के। सिखाती,रुकूॅ, खुशियों की हो इति श्री, मन से रूक जाना नहीं तू कहीं हार के। ।1। आजीवन धडके, यह दिल हम सबका, दे रहे,सम्बल रक्त संचार मानव गात के। सिखाती रुकूॅ,तो वजूद न हो किसी का, औषधी भी सारे व्यर्थ हैं, इस संसार के। नीले अम्बर में उडना है ,अपने बल भर, तो मन से रुक जाना नहीं तू कहीं हार के। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"जन मानस की खातिर"(कविता)

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संविधान में कुछ संसोधन,  संविधान फिर बदलना होगा।। किसी एक महापुरुष को, फिर वहाँ पहुँचना होगा।। लगे कुछ ऐसा एक्ट, की नेता फिर बदलना होगा।। ऊँच, नीच, फिर आरक्षण, भेद सभी मिटाना होगा।। जनमानस की खातिर, प्रभु तुमको आना ही होगा।। सच्चा हो सेवक प्रधान देश, तिरंगा फिर से लहराना होगा।। जुल्म मिटाने की खातिर, प्रभु तुमको आना ही होगा।। कदम - कदम पर चोर लुटेरे, ईमान फिर बचाना होगा।। आओ बैठो सब मिलकर, फिर कोई रास्ता निकालना होगा।। सही मार्गदर्शन की खातिर, प्रभु तुमको आना ही होगा।। Written by  कवि महराज शैलेश

"हर शहर कब्रिस्तान"(कविता)

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 दिल का गम, बन दरियाँ। आँखों से बह जाता है।। जब उम्मीद न हो जिससे। वो ही फिर दिल तोड़ जाता है।। ये कौन सा तबाही का मन्जर है। हर शहर कब्रिस्तान नजर आता है।। लोग मातम में गैरों के भी जाते थे। आज अपना भी छोड़ चला जाता है।। इंसानियत जैसे आँखों से मर चुकी है। जिंदा हो या मुर्दा,फर्क कहाँ अब नजर आता है।। कोई गिला,शिकवा,शिकायत,किससे करे। कोई पास में बैठा कहाँ नजर आता है।। कुछ तो करो जतन कोई ऐसा मौला। हर शख्स अब किरदार में नजर आता है।। उन फ़रिस्तो को फिर से आना हो गा । हाथों में लिये मशाल फिर से जलाना हो गा।। Written by  कवि महराज शैलेश

"प्राण वायु संजीवनी"(कविता)

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 बस करो अब बस करो अपने अहंकार को विराम दो तुम से ना सम्हल रहा हो तो  खूंटी पे टांग दो अपने अहंकार को विपरीत वक़्त है  हर तरफ जुदा सा मंजर है हवाओ में जहर है तुम रावण नही हनुमान बनो लाओ कही से प्राणवायु संजीवनी किसी के लिए तो राम बनो इंसानियत है खतरे में किसी  लक्ष्मण का तुम उद्धार करो भारी संकट आया मानव सभ्यता पर तुम इस युग के राम बनो इतिहास जब भी लिखा जाएगा तेरा नाम भी योद्धाओं में लिखा जाएगा ये महामारी का दौर भी गुजर जाएगा हर चेहरा जब फूल की तरह मुस्कुराएगा तेरा छोटा सा योगदान युगो युगो तक याद रखा जाएगा Written by  कमल  राठौर साहिल

"चीखें"(कविता)

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निशा में जुगनू गुजरा , क्या किया है हासिल ? इश्क़ में अम्बर ठहरा , चंदा की भी महफिल । धरा  ख्वाहिशें और  पहरा , मृगतृष्णा में है दिल । हसीना ,बूरका और घड़ा , नदी -समंदर से सटा साहिल । पानी -पानी -चीखें और सिरफिरा - क्या ठुका गया कील ? प्यासी मछलियां देखते डरा , किंतु मांझी था कुटिल । बगुला कहाँ था अंधा - बहरा , पहुंचा था अपने मंजिल ! जहरीली हवा में मरा , जो बना  था काबिल । मौतों का फैला ककहरा , फिर छाया भी तब्दील । गर्दिशें कोलाहलें ,निःशब्दता कतरा , नयना भी न झील । सावधानी भी बरतें जरा , हरियाली है अब बोझिल । बेपानी कुत्तों को लहरा , मकड़जालों में  सांपें कातिल !! छिपकली , बिल्ली और उस्तरा - चूहें की राहें मुश्किल । कानूनविदों को पता नखरा , मेढकें तौलना भी जटिल । गुलाब़ तो न इतरा , नियति न तो फाजिल़ । Written by विजय शंकर प्रसाद

"बेखौफ कोरोना"(कविता)

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 बेखौफ है कोरोना  खुले आम जा रहा है।  इनसान मर रहा है, भगवान डर रहा है।  हमने तो अपने खातिर  खुदा गाड भी बनाये।  ऐसी विपत्ति देखो  न कोई काम आ रहा है।  अंधाधुंध पेड काटे  होली जला रहा है।  आक्सीजन के खातिर  फिर तडफडा रहा है।  पर्वत काट करके  सडकें बना रहा है।  नदियों की रेत मन भर  खोदे ही जा रहा है।  पर्यावरण असंतुलन  जी भर बढा रहा है।  कुदरत का सूक्ष्म सा कण  क्या कहर ढा रहा है।  कई प्रजातियाँ विलुप्त हो गई मानव भी टकरा रहा है।  प्रकृति के प्रकोप से  खौफ खा रहा है। Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"समस्या"(कविता)

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आज समाज में फैली समस्याओं को निरुपित करती मेरी यह रचना पति  अपने  अहम  पर  अड़ा है, पत्नि अपने अहम पर अड़ी हैं अपने तक सीमित रह गये मां-बाप,बच्चों  की किसको पड़ी हैं वह चाहती है भाभी सेवा  करें सास ससुर की पर मैं ना करूं बस यही समस्या तो सबके  घर में  मुह उठाएं खड़ी हैं क्या महत्वहीन हो जाएगा इंसान का चरित्र इस दौर में प्यार किसी ओर से, शादी किसी ओर से,आंख किसी और से लड़ी हैं नारी स्वतंत्रता, नारी उत्थान, नारी समानता की बहुत बातें होती हैं पर  सच तो यह हैं आज भी  नारी  कई बंदिशों में झकड़ी हैं भुलाकर सारे एहसान वह डाल गया पिता को वृद्धाआश्रम  वाह क्या जमाना आया  पुत्र के पांवो  में पिता की पगड़ी पड़ी है अब तक स्टोव गैस से बहुएं जली है,सास एक ना जली  इक्कीसवीं सदी के इस जमाने में भी सास बहू से तगड़ी है माटी के पुतले  को माटी में मिलना है फिर यह गरुर कैसा है दुनिया जीतने निकला था सिकंदर,सांसे उसकी भी उखड़ी है किसी ने ठीक कहा है इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते हैं कुछ तो  हुआ है तुझे, तेरे  इश्क की हवा यूं ही नहीं उड़ी है तुम कहां उलझ रहे हो अभी तक इन छोटे-मोटे चक्कर में तुम्हें पता  ही नह

"कैसा ये रोग है"(कविता)

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चारों तरफ है सन्नाटा सड़के  सुमसान।    पूरे विश्वमे फैला कैसा रोग है भगवान। जानवर   सब   बेपरवाह  घूम  रहें  है।    और मानव बेबस होकर घर मे कैद है,  करनी से सभी से दूरी क्या  करें कैसी,    है। ये मजबूरी, हाथों  छुए बिना काम।  चनलाना है। हाथ जोड़  कर दूर से ही,    हमें  इस  समय सब  काम  लिपटा है। किसी को छूना  पड़  सकता  है भारी।    चल रहीं क्योंकि कोरोनाकी महामारी। अजीब सी   बीमारी  आई   जिसकी।     दवा  सिर्फ दूरी है।  हमें  खुद  से  भी, बचना है।  दूसरों  को  भी  बचना  है।    इस बीमारी  से, हमें पीछा  छुडवाना। है। इस बीमारी से घरों, में कैद है जो।    ज़िन्दगी उन्हें मिलकर हंमे बचना  है।  इस जंग को हमें मिलकर जितना  है। Written by  नीक राजपूत

"मजाक"(कविता)

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मजाक अगर  आपके साथ कोई करे। तो बुरा  अगर आप  किसी  के  साथ।  करे  तो  अच्छा।  इसीलिए आप  को। सहन करनें की शक्ति हो। तभी आप। दूसरों  के साथ  मजाक उड़ाये या तो। मज़ाक करें। मज़ाक हद से  ज़ियादा।  हो जाये तो  भारी भी पड़  सकता है।  आपको।  हर  दूसरा  व्यक्ति आपको।  मजाक में सब कुछ  सटीक  भाव से।  कह देता है। जो दरसल  जो आपको। बताना तो चाहता है लेकिन कह नहीँ। सकता। इसीलिए  मज़ाक करो तो ये। ख्याल  रखना  ज़रुरी है। आप  कहि। अंजाने में उनकें जज्बातो  से तो नही। खेल रहें हो  ना  आप  क्योंकि इससे। रिश्तों   में   दूरियां   बढ़   जाती    है। Written by  नीक राजपूत

"आलोचना"(कविता)

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क्या कहूँ मैं अपना ,क्या कहूँ प्रियतमा पराया ? रातों में देखा सपना -झिलमिलाते सितारों की छाया । पानी की क्या गणना ,क्या न है बौराया ? चंदा की अधूरी तमन्ना ,क्या महफिल में सताया ? नदी , मछली और ओलहना ,बेपानी दुनिया की माया । अम्बर लहू से सना ,ये कैसी है काया ? तुलसी लहरें झेला अंगना ,बंदिशों में क्या लहराया ? कहीं आलोचना और समालोचना ,क्या-क्या हमें-तुम्हें भी समझाया ? जुगनू का क्या सोना ,जगने पे क्या भाया ? राजा न्यायी तो जगना ,जनता चाहती है छत्रछाया । बातों से न छलना ,हमनें कहाँ दोषी ठहराया ? राजनीति क्यूँ  करें नयना ,सोचों ! क्या है पाया ? करें स़च़ का सामना ,अंधेरा है क्यूं गहराया ? माली का क्या आईना ,सिफारिशें क्या है आया ? फूलों को था खिलना ,भौरों को क्या भरमाया ? आंसुओं से क्या सींचना ,आग कहाँ -कहाँ लगाया ? लम्हों का जारी गुजरना ,जिंदगी का क्या किराया ? हवा की बदनामी जितना ,उतना तो न बहकाया । चेतावनी पहले  भी सरकना ,फिर आदमी क्यूं छटपटाया ? लाशों का जमघटें पनपना ,तौब़ा किससे किसमें समाया ? तमाचा तमाशा पे जड़ना , परिंदा - बहेलिया तक क्या जायां ? सूरज हो जा चौकन्ना , अर्जी कवि हैं बढ

"बगुला"(कविता)

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कहनेवाले के हवाले ख्वाहिशें ,सुननेवाले पे क्यूं आगबबूला ? टूटे-फूटे हैं क्यूं शीशें ,बंधन क्यूं पड़ा ढीला ? नदी और मछलियां सिफारिशें ,उपभोगी है बना बगुला । वेदनाओं की शुरू बारिशें ,जिंदगी तो है बुलबुला । मौतों का भय तपिशें ,दरबाजा था अब खुला । सन्नाटे के सभी हिस्से ,धरा पे है जलजला । संचिका में भी टीसें ,राही आखिर कहां चला ? प्रियतमा हो किसके भरोसे ,मुंहतक्की और मुंहजोरी बला ? पर्दे के पीछे साजिशें ,महफिल में न तबला । चाटुकारिता की क्यूं दबिशें ,इश्क का कहां सिलसिला ? अरमानों पे भी बंदिशें ,नहले पे क्या दहला ? महलों से झोपड़ी पीसें ,रेता है क्यूं गला ? भूखी -प्यासी तितलियां –बेआबरू परवरिशें ,कांटा मनचली और  मनचला । मदिरा तो निचोड़ा नुमाइशें ,हमें तो न बहला - फुसला । कहूं क्या आखिरी किस्सें ,दिल क्यूं है बावला ? माया  और छाया फरमाइशें काया का कैसे भला ? प्रकृति की कैसी आशीषें ,काला क्यूं लगा उजला ? घुंघटों तले रंगें किसे ,झूठी मुस्कानें क्या सबला ?  घुंघरुओं की क्या फीसे ,चंदा सितारें होते अबला ! पत्थरें क्या हैं घिसें , सब्जबागें दिखाना भी कला !! तौब़ा, हताशा और हादशें , पहाड़ियां तक जहर क

"भारत की शान"(कविता)

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हाथों में तलवार है दिल में देश के प्रति प्यार है लड़ जाने को भी तैयार है ना जान की परवाह है सीने पै खा के गोली मुंह पर भारत माता का नाम है हम ही वीर जवान हैं आंखों में ना है आंसू ना है पैर लड़खड़ाते इसलिए तो बॉर्डर पर  तैनात खड़े हो जाते ना है जान की डर  ना अंधेरों से घबराते माथे पर डर का सीकन तक ना आने देते हैं देश के प्रति वफादार रहने का प्रतिज्ञा दे जाते है मां के आशु तक नहीं पोंछ पाते है जब आगे चलते हैं तो पीछे मुड़ के नहीं देख पाते है अपनों के प्रति दयावान हो जाते हैं इसीलिए कभी नहीं घबराते हैं इसी लिए देश के प्रति  हमेशा लड़ जाते हैं अपनों के प्रति परवाह भारत माता की शान बनना चाहते है इसीलिए तो हम वीर जवान कहलाते हैं Written by  लेखिका नेहा जायसवाल

"समय फिर आएगा"(कविता)

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 खतरों  के  पार  जाना  होगा एक नया सूरज उगाना होगा श्मशानो में जगह बची नहीं मुर्दों का कहां ठिकाना होगा जिंदगी  मौत  से हारी  नहीं  यह  विश्वास  जगाना  होगा काट  दिए  जंगल  के जंगल नया   जंगल  उगाना   होगा उठ, बैठ, खड़ा हो फिर लड़ जीवन   फिर  चलाना  होगा अब  दो  गज दूरी  है जरूरी हर वक्त मास्क  लगाना होगा हाथ  धोना, वेक्सीन  लगाना घरों तक  सीमित रहना होगा अच्छा  समय  फिर  आएगा लोगों को यह समझाना होगा Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट )

"सहयोग"(कविता)

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 सहयोग है  एक, खूबसूरत  तौफा। अगर आपकों किसी का सहयोग। कीसीकी मद्दद  चाहये  तो  सामनें, से आपको। मदद करनी भी होगी। बिना  किसी  स्वार्थ, के  तभी  तो।  आपकों  सहियोग  मिलता  रहेगा। लोगों से सहयोग, एक ऐसी  खुशि, है जो जितनी  आप बांटे  गे सभी।  में वापिस आपकों दुगनी  मिलेंगी। अगर हाथों में हमारे, एक  ऊँगली, कम हो तो हम,  किसी  काम को। ठीक  सटीक तरीके  से  कर नही।  सकतें   लेकिन  हाथों,  में   पाँचों।  उंगलिया। हो।  तो  एक  जूथ एक, ताक़त, बन जाती हैं। आप अकेले, कुछ नहीं  कर सकतें  अगर  आप, को। कुछ  बदलना  है,  कुछ   कर, दिखाने का  हौसला  रखते,  है तो। आपको  किसी   के  सहियोग  की, जरूरत पडेगी  ही सहियोग है जो। सफलता की  पहली  सीढ़ी  भी है। Written by  नीक राजपूत

"रणभेरी"(कविता)

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गूँज उठी रणभेरी काशी कब से खड़ी पुकार रही पत्रकार निज कर में कलम पकड़ो गंगा की आवाज़ हुई स्वच्छ रहो और रहने दो आओ तुम भी स्वच्छता अभियान से जुड़ो न करो देरी गूँज उठी रणभेरी घाटवॉक के फक्कड़ प्रेमी तानाबाना की गाना कबीर तुलसी रैदास के दोहें सुनने आना जी आना घाट पर आना --- माँ गंगा दे रही है टेरी गूँज उठी रणभेरी बच्चे बूढ़े जवान सस्वर गुनगुना रहे हैं गान उर में उठ रही उमंगें नदी में छिड़ गई तरंगी-तान नौका विहार कर रही है आत्मा मेरी गूँज उठी रणभेरी सड़कों पर है चहलपहल रेतों पर है आशा की आकृति आकाश में उठ रहा है धुआँ हाथों में हैं प्रसाद प्रेमचंद केदारनाथ की कृति आज अख़बारों में लग गयी हैं ख़बरों की ढेरी गूँज उठी रणभेरी पढ़ो प्रेम से ढ़ाई आखर सुनो धैर्य से चिड़ियों का चहचहाहट देखो नदी में डूबा सूरज रात्रि के आगमन की आहट पहचान रही है नाविक तेरी पतवार हिलोरें हेरी गूँज उठी रणभेरी धीरे धीरे जिंदगी की नाव पहुँच रही है किनारे देख रहे हैं चाँद-तारे तीरे-तीरे मणिकर्णिका से आया मन देता मंगल-फेरी गूँज उठी रणभेरी Written by  गोलेन्द्र पटेल

"मजदूर क्यों मजबूर"(कविता)

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वह आता सबका बोझा ढोता  ईंटा पत्थर लोहा लाता।  मिट्टी से वह महल बनाता।  न डी ए बोनस पेंशन पाता।  कल कारखाने देश की गाड़ी  का पहिया वही चलाता है।  देखो पैदल आता है।  खेत में गेहूँ धान उगाता  लाद के मण्डी में दे जाता।  घी बनाता दूध बनाता  लाकर हम सबको दे जाता।  सोचो वो क्या खाता है।  देखो पैदल आता है।  उसकी दुनिया उजड रही है।  देश की हालत बिगड़ रही है।  बच्चा भूख से रोता है।  खाली पेट ही सोता है। Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"कोई अपना अकेला चला जा रहा है"(कविता)

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बुजुर्ग साइकिल में  लास लेकर जा रहा है।  कोरोना मौत बनकर  आ रहा है।  जीवन भर साथ देने का  वादा किया था जो,  जीवन साथी उसे ही  निभा रहा है।  जीर्ण शरीर दुर्बल  हाथों में बल नहीं,  लगा पा रहा है।  बीच राह में बिछड  जाने का गम शीने में  दबा जा रहा है।  कोरोना का भय  इस कदर व्याप्त है।  कि कोई नहीं  हाथ लगा रहा है।  जीने मरने की कसम  खाई थी साथ में।  कोई अपना अकेला  चला जा रहा है। Written by  सुरेश कुमार 'राजा'

"तकलीफ़"(कविता)

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 जीवन रफ्तार से चलता है तो  कोई किसी के लिए नहीं पलटता है हादसाऐं  सड़क पर होती है और  जीवन दम तोड़ देती हैं।  कोई फंसना नहीं चाहता और पीड़ित को नहीं उठाता है कराहती जीवन पुकारती है उन्हें  जो देख चली जाती हैं  कैसे हृदय पत्थर होता है ? जब कोई इतनी तकलीफ़ में होता है हादसाऐं एक के साथ होती हैं पर जीवन राख अपनों की होती है यदि एक तकलीफ सुन ली जाती है तो ही जीवन ज्योत पुनः जाग्रत हो पाती है कल का भविष्य कोई नहीं जानता है आज वो है वहां तो शायद कल हम भी फिर भी क्यों, कोई भी देखकर भी नहीं पलटता है। Written by  प्रिया प्रसाद