"समस्या"(कविता)

आज समाज में फैली समस्याओं को निरुपित करती मेरी यह रचना


पति  अपने  अहम  पर  अड़ा है, पत्नि अपने अहम पर अड़ी हैं

अपने तक सीमित रह गये मां-बाप,बच्चों  की किसको पड़ी हैं

वह चाहती है भाभी सेवा  करें सास ससुर की पर मैं ना करूं

बस यही समस्या तो सबके  घर में  मुह उठाएं खड़ी हैं

क्या महत्वहीन हो जाएगा इंसान का चरित्र इस दौर में

प्यार किसी ओर से, शादी किसी ओर से,आंख किसी और से लड़ी हैं

नारी स्वतंत्रता, नारी उत्थान, नारी समानता की बहुत बातें होती हैं

पर  सच तो यह हैं आज भी  नारी  कई बंदिशों में झकड़ी हैं

भुलाकर सारे एहसान वह डाल गया पिता को वृद्धाआश्रम 

वाह क्या जमाना आया  पुत्र के पांवो  में पिता की पगड़ी पड़ी है

अब तक स्टोव गैस से बहुएं जली है,सास एक ना जली 

इक्कीसवीं सदी के इस जमाने में भी सास बहू से तगड़ी है

माटी के पुतले  को माटी में मिलना है फिर यह गरुर कैसा है

दुनिया जीतने निकला था सिकंदर,सांसे उसकी भी उखड़ी है

किसी ने ठीक कहा है इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते हैं

कुछ तो  हुआ है तुझे, तेरे  इश्क की हवा यूं ही नहीं उड़ी है

तुम कहां उलझ रहे हो अभी तक इन छोटे-मोटे चक्कर में

तुम्हें पता  ही नहीं, अब  तुम्हारे  कद से तुम्हारी परछाई बड़ी है

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