"जीवन के बदलते रंग"(लेख)

 जीवन के बदलते रंग

आज विज्ञान बहुत ऊंचाई की तरफ बढ़ता चला जा रहा है और मानवता पाताल में  धसती चली जा रही है। सब कहते हैं हम बहुत उन्नति कर रहे हैं पर क्या हम वास्तव में उन्नति कर रहे हैं ।यह चिंतन का विषय है ।प्रकृति के नियम नियमों के विपरीत जाकर हमने उन्नति नहीं की ,अवनति की है ।भगवान की बनाई इस धरती पर प्रभु ने सारी सृष्टि को बहुत ही नियम वध तरीके से स्थापित किया है पर हमने विज्ञान के नाम पर उत्पात मचा मचा कर सृष्टि को तहस-नहस कर खुद को आधुनिकता के  अंधेरे कुएं में धकेल दिया है।  

पहले सूर्योदय की पहली किरण के साथ सुबह होती थी ।आसमान में फैली लाली के साथ सूर्य की पहली किरण धरती पर पड़ती थी । सब जाग उठते थे और वह सुहानी सी सुबह और उसकी सुहानी सी धूप,तमाम विटामिनों से भरपूर होती थी ।सुबह की शीतल हवा तन मन की तमाम परेशानियों को अपने साथ उड़ा ले जाती थी । छितिज पर फैली लालिमा में गजब की ताजगी होती है  ।चिड़ियों की चहचहाहट, पेड़ के पत्तों की सरसराहट, फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुगंधित ओर संगीत मय  बनाती है । इनमें हमारे शरीर के रोम रोम को निरोग करने की असीम शक्ति है। दिन भर के मेहनत के बाद जब  सूरज रथ पर सवार होकर अपने घर लौटता था और राहगीर अपने अपने काम से निपट कर अपने अपने घरों को लौट आते थे ।छः सात  बजे तक रात्रि का भोजन कर सभी महफ़िल जमा कर बैठ जाया करते थे ।  कभी-कभी डफली बजा कर गीत गुनगुना कर शमां बांध देते थे तो कभी  आपस में बातचीत करके शांत भाव से सो जाते ।

प्रकीर्ति आज भी स,,, र ,,,ग ,,म ,,से ओत प्रोत है पर हम कहीँ खो से गये है ।पहले के समय  हमारी जरूरतें बहुत सीमित थी और अपनों से गहरा प्रेम  था । हम एक दूसरों के लिए मर मिटने को तैयार  रहते थे पर आज के इस नए दौर में हमने अपनी जरूरतों को बहुत ज्यादा बढ़ा लिया है हमारी इक्छाओं ने तो सारी सीमाएँ तोड़ दी है और    हमारा यही लोभ  ही सारे फसाद की जड़ है ।हम अपनी जरूरतों को पूरा करने की लालच में अपने लिए तमाम सुविधाओं को जुटाने की आस में न जाने क्या कुछ कर गुजरते हैं ।इसका एहसास भी हमें नहीं है।

जीवन में नई तकनीक का वैज्ञानिक कारण देखकर हम खुशी से पागल हो गए और इस  अन्धी दौड़ में हम सब शामिल हो गए और आज उसकी दौड़ थमने का नाम ही नहीं ले रही है। हमारी जरूरतें दिन दूनी रात चुगुनी बढ़ती जा रही है । आज पूरी की पूरी दुनिया ही बदल गई है हमने यह सब पूरी दुनिया को बेहतर बनाने की मंशा से किया था पर इस पर इस अंधी दौड़ में शामिल हो हमने जीवन को और से और बदतर बना दिया है ।अब यहॉ सुबह सुबह नहीं है, न ही शाम शाम  है ,औऱ न रात रात है ।अब लोगों के पास ना आसमान की सुंदरता देखने का वक्त है ना धरती की खूबसूरती देख़ने का ,ना रिश्तो में कोई गर्माहट है,न कोई अपनापन । देर रात सोना, सुबह देर से उठने की आदत से हमने यूं ही जीवन के सबसे खूबसूरत पल को  खो दिया है। आज आकाश की विशालता दिखाई नहीं पड़ती है।ऊंची ऊंची बिल्डिंगों के बीच से झांकता नन्ना सा आकाश ,धरती पर इंच दर इंच कब्जा करती उँची ऊँची अट्टालिकlए , रास्ते ,शहर सभी फैलते चले जा रहे हैं और धरती सिकुड़ती जा रही है । कभी-कभी तो ऐसा  महसूस होता है कि हमने  जितना पाया है ,उससे कहीं ज्यादा हमने खोया है ।हमने अपने रिश्तो की गरिमा को दी है। हमने प्रेम खो दिया है। अपनापन खो दिया है।अपना सामंजस्य खो दिया है। दूसरों के प्रति अपना फर्ज हम भूल बैठे हैं। पहले लोग आस-पड़ोस में मिलते जुलते थे अपना दुख दर्द बांटा करते थे ,सब एक दूसरे के दुख सुख में खड़े होते थे।पहले बड़े बुजुर्ग कहते थे तुम्हारे बैंक में कितना पैसा है कोई नही जानता ,न इससे किसी को कोई मतलब है ।तुम्हारे दुख सुख में कितने लोग इक्कठे होते है वही तुम्हारी असली अमीरी है ।आज  सारी सुख सुविधा  पाने के लालच ने हमे अबल दर्जे का स्वार्थी बना दिया है। 

घरके सभी  सदस्यों के बीच भी दूरियां बढ़ती चली जा रही है ।सबों की जिंदगी अपनी खुशी ,अपनी चाहत, अपनी पसंद के इर्द गिर्द सिमट कर रह गयी है ।सब अपने अपने कमरों में ईडियटबॉक्स के पास बैठे दिखाई देते हैं। किसी को किसी की जरूरत नहीं है ।मोबाइल ने,व्हाट्सएप ने  टिवीटर ने भले ही पूरी दुनिया को जोड़ दिया है पर अनजाने में ही सही उसने अपनों को अपनों से तोड़ दिया है ।पास बैठे मां-बाप कराह रहे होते हैं पर हमारे पास इतना भी समय नहीं है हम उनकी तरफ ध्यान दें क्योंकि हमारा पूरा ध्यान इंटरनेट सेवा को समर्पित है ।हम मोबाइल पर चैटिंग में ,फेसबुक पर ,ट्विटर पर, व्हाट्सएप पर, हाइक पर ,इतने व्यस्त होते हैं कि उनकी कराहट भी हम तक नहीं पहुंच पाती है ।आज हमारे सारे शौख टीवी, मोबाइल लैपटॉप द्वारा पूरी हो जाती है पर कभी आपने गौर किया है इन सब चीजों के बीच हम क्या खो रहे हैं "बड़ों का सम्मान ,उनकी सेवा, उनका आशीर्वाद ,व्यवहारिकता मिठास ,दूसरों की सहायता करने का जज्बा, यह सारे शब्द  जो संस्कार के लिस्ट में आते हैं  और हमें असीम खुशियों से भर देते हैं ,इन सब चीजों से  हम परे होते जा रहे हैं  ।कभी आपने सोचा है उम्र की ढलान पर हम इस कदर अकेले हो जाएंगे कि हमारे पास दो पल बैठने का भी किसी के पास वक्त नहीं होगा। बच्चों की अपनी अपनी दुनिया  होगी ,उनके पास कभी वक्त ही नहीं होगा कि वह हमारी चिंता कर सकें ,हमारी केयर करें ,हमारे साथ कुछ पल बिताए ,यह सब सोचकर ही जीवन  कितना बेजान सा लगने  लगता है जीवन ।हम सब इंसानी रोबोट बनते चले जा रहे हैं। 

आज के इस व्यस्त दौर में मां-बाप के पास वक्त ही नहीं है कि वह बच्चों को लोरियां सुनाएं, उनको अच्छी अच्छी कहानियां सुनाएं ,एक अच्छी और मजबूत परवरिश दे सके ।घर में होती तकरार, घर में होता एक दूसरों पर दोषारोपण ,मारपीट ने बच्चों के जज्बातों की कोमलता को नष्ट कर दिया है ,फिर सब कहते हैं मेरा बच्चा बिल्कुल बात नहीं मानता है ,बहुत शैतान है ,बहुत उदंड है ,कभी भी आपने सोचने की कोशिश की है ऐसा क्यों हो रहा है ? धयान दीजिये आज आपके बच्चे की परवरिश आपकी नौकरानी के द्वारा हो रही है ।आज हम अपने जेवर नौकरानी की आंखों से छुपाकर लॉकर में रखते हैं क्योंकि वह हमारी संपत्ति है। जिसे खो जाने का डर हमें बना रहता है और जिसके चोरी होने से हमें बहुत दुख होगा तो फिर हम अपने अनमोल रतन अपने बच्चों को नौकरानी के भरोसे छोड़कर कैसे अपने दायित्व से मुक्त हो जाते हैं। हम अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभा नहीं पारहे हैं इसीलिए अपने बच्चे की हर जिद  पूरी कर ,हम अपने बच्चे का खयाल रखते है इस अहसास को तुष्ट करते है। उन्हें खिलौने किताब कलर पेंसिल गईल साइकिल आदि देकर हम अपने माता-पिता होने का कर्ज चुकाते हैं और हमारा यही व्यवहार उन्हें जिद्दी बनाता जा रहा है। कभी आपने बच्चों की मनोवैज्ञानिकता को समझने की कोशिश कीजिये ।जिंदगी में बहुत कुछ पाने की इस अंधी दौड़ में शामिल  आपका नन्हा बालक अपनी मासूमियत तक को खोता जा रहा  है ।उसके मुंह से निकले अपशब्द भी जो सुनकर आप कभी-कभी हैरान हो जाते हैं ।वह भी आपके द्वारा ही डाले गए हैं ।वह किसी डिक्शनरी के साथ पैदा नहीं हुआ था ।पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे बड़ों का आदर ,छोटो का लाड ,एक दूसरे के दुख सुख में शामिल होना ,मिल बांट कर खाना, यह सब संस्कार देखते देखते ही बच्चा स्वत ही सीख जाता था पर आज एकल परिवार का  बच्चा टीवी के बाहियात सीरियल ,नौकरानी के द्वारा दी गई परवरिश से बर्बाद हो रहा है ।बच्चे को सही गलत समझना नोकरानी का दाइत्व नही है ।उसे दिन भर बच्चे को संभालना है।उसके उसे पैसे मिलते है बस ।यहां उसका दिल या आत्मा का बच्चे से कोई जुड़ाव नही है । दिन भर के काम से निपट कर रात को जब मां बाप ऑफिस से  लौटते हैं तो इस कदर थके होते हैं कि बच्चे से कुछ पूछने ,उनके साथ खेलने ,उनके साथ समय बिताने की बात तो दूर है  ।बस चंद सवाल होमवर्क कर लिया, खाना खा लिया आदि नपे तुले प्रश्न पूछ लेते है और यदि  बच्चे ने किसी चीज की जिद्द पकड़ ली तो उनके पास इतना समय नही है कि वो बच्चे को प्यार से मनाए ,सही क्या है गलत क्या है बताएं । अपनी जान छुड़ाने के लिए वो चीजें दिलवा कर उसका मुंह बंद कर दिया जाता है। दिनभर नौकरानी ने उसे क्या क्या खिलाया, कैसे खिलाया और क्या क्या सिखाया ,कैसे रखा इन सब से उनका कोई सरोकार नहीं होता और फिर कहते हैं आजकल के बच्चे बहुत बिगड़ रहे हैं। उनमें मर्यादा नहीं है ,संस्कार नहीं है ,अरे मर्यादा और संस्कार पेड़ पर नही उगते,वो बच्चों में डालना पड़ता है। "रोपा पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय "

मेरी गुजारिश है यह भागमभाग वाली  जिंदगी में अब जरा ठहर जाइए कुछ पल  के लिए और शांति से अपने जीवन का मूल्यांकन कीजिए ।आपकी असली मूल संपत्ति आपके बच्चे हैं और ब्याज उन में डाले गए संस्कार जो किस्त दर क़िस्त  प्रेम ,स्नेह,सम्मान,भरोसा,की शक्ल में आप पर बरसते रहेंगे ।आधुनिकता के दौर में उस की चमक दमक में खो  कर  अपने घर में अंधेरा मत कीजिए ।4 गाड़ियों की किस्त चुकाने की बजाय चार पल अपने परिवार के साथ गुजारिए। पल तो कुत्ते बिल्ली के बच्चे भी जाते हैं पर पलने और पालने में फर्क होता है ।हम इंसान हैं और इंसानियत की सही शिक्षा हमें अपने बच्चों को देनी चाहिए तभी हम सच्चे रूप में मां-बाप कहलाने योग्य होंगे और बच्चों का  निखरा व्यक्तित्व आपकी अच्छी परवरिश का मूल्यांकन करेगा। साथ ही आपको वह संतोष, वह सुकून , उस एहसास के पल से गुजरने में सहायक होगा कि आपने एक सही जीवन जिया है और अपने बच्चे को एक अच्छा जागरूक इंसान बनाने में सफल हुए है।यही आपकी असली जीत होगी।।।।।।।

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