"बाजीगर"(कविता)

बैठी हूँ आसमाँ तले सामने लहरों के बाजार है,

उन्मादित लहरों के दिखते अच्छे नही आसार हैं।


उफनाती लहरों से कह दो राह मेरी छोड़ दे,

बैठी हूँ चट्टान बन कर रुख अपना मोड़ ले ।


ज्वार भाटा से निकली प्रचंड अग्नि का सैलाब हूँ,

हैवानियत को जलाकर खाक करने वाली आग हूँ।


बार बार  पटकी  गयी  हूँ  अर्श  से  मैं  फर्श  पर,

बार बार  टूटी  हूँ  टूट  कर  बिखरी  हूँ  मैं।


खो दिया  है  सब  कुछ  जिसने  इस  जमाने मे ,

कभी  न  दम  लगाना  तुम   उन्हें  आजमाने में ।


गिर जो  गए  जमीं  पर  उन्हें  कमजोर न समझना,

ऊंची  उड़ान  की  ये  तैयारी  होगी  उनकी।


गिर कर  उठने  वालों  की दिशा  होती कुछ और है,

खो कर  पाने  वालों  का नशा  होता कुछ  और है।


गिर कर उठने  की  जिसमे  है  हिम्मते  जिगर,

वही  है इस  जहाँ  का  दरियादिल  बाजीगर।

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