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"बाल आश्वासन"(कविता)

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तेरी सारी तक़लीफ़ों को दूर करूंगा माँ,मैं तनिक बड़ा हो जाऊँ रहा सलामत ये तन और ये जीवन तो नियति को भी झुकने पर मजबूर करूंगा माँ,मैं तनिक बड़ा हो जाऊँ क़िस्मत में क्या लिक्खा है ये ज्ञात नहीं पर घबराने की भी कोई बात नहीं भिड़ जाऊंगा दरियाओं तूफ़ानों से होंगे काले दिन और काली रात नहीं हर आफ़त को बेशक़ चकनाचूर करूंगा माँ,मैं तनिक बड़ा हो जाऊँ मेरा देख हौसला जब घबराएंगे दुर्दिन भागेंगे अच्छे दिन आएंगे यक़ीन रख कर अम्मा दे आशीष मुझे हम सब मिलकर नया सवेरा लाएंगे वचन निभाने की कोशिश भरपूर करूंगा माँ,मैं तनिक बड़ा हो जाऊँ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"राघव पीट किवाड़ रह्या (हरियाणवी गीत)"

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कोरोना बदमास घणा, यो गल़ी गल़ी म्हँ हांड़ रह्या करै किसे नै रंड़ुआ बैरी,बणा किसे नै रांड़ रह्या हम सोच्चैं थे कम होवैगा, यो पकड़ै रफ्तार घणी छोट्टे-बड़े सभी की दुसमन,बोई फसल उजाड़ रह्या घणी अकड़ म्हँ घूम्या करते,ऐंठे-ऐंठे डोल्लें थे अच्छे-अच्छे धुरंधरां की,सारी सेक्खी झाड़ रह्या मस्त कमाई करते थे हम,ठीकठाक थी दिनचर्या उमड़घुमड़ कै आवै डाक्की,सारे खेल बिगाड़ रह्या तोप तमंचे जैट मिसाइल, इक दूजे का मुँह ताक्कैं मिली कोए ना काट आजलग,अर यो झंड़े गाड़ रह्या मैड़िसन पै करैं भरोस्सा,आयुर्वेद नै दुत्कारैं वैद्य देख कै नाक सिकोड़ैं,सरजन साँस उखाड़ रह्या आज बणैगी- कल बण जावै दवा,बीतगे कितने दिन एड़ी ठा ठा देख रह्ये,कोरोना चाल़े पाड़ रह्या काल़ी मिरच शहद अदरक नींबू का रस नेती गागल इननै थम अजमा कै देक्खो,राघव पीट किवाड़ रह्या Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"वाचाल ग़ज़ल"

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दिल में हमारे आज भी अरमान पल रहा है सच मानिये कि दिल को ये दिल ही छल रहा है रंगे-निशात झेला बारे-अलम उठाकर ना जाने किस बिना पर ये साँस चल रहा है जुड़ता है टूट टूट कर लेकिन संभल रहा है वो पूछते हैं अक्सर क्या हाल है तुम्हारा कैसे उन्हें बताएँ कि वक़्त टल रहा है बुझती हुई शमा पे परवाना जल रहा है मस्ती में दे रहा था जो चाँदनी अभी तक वो देखिये उफ़ुक पर अब चाँद ढल रहा है हारा थका मुसाफिर ज्यों हाथ मल रहा है पाला है हमने दिल को पहलू में कैसे कैसे उनसे मिली नज़र क्या उनको मचल रहा है जैसे कि बस उन्हीं का इसपे दखल रहा है अहसान मुफलिसी का ये दिन दिखाए यारो हर शख़्स दूर ही से रस्ता बदल रहा है जतला रहा है ऐसा जैसे टहल रहा है घर तो जलाया उनका बेख़ौफ़ दरिंदों ने फ़िर क्यों धुआँ हमारे घर से निकल रहा है काहे हमारे जिस्म में सीसा पिघल रहा है Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बेढ़ंगी"(ग़ज़ल)

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क्या बतलाऊँ हाल दोस्तो जीना हुआ मुहाल दोस्तो रोज़ी रोटी के चक्कर में दिनचर्या भूचाल दोस्तो अहर्निशी अब माप रहा हूँ धरती नभ पाताल दोस्तो ठाठ देखकर जनसेवक के मन में उठे सवाल दोस्तो कल तक जो था भूखा नंगा किस विधि मालामाल दोस्तो औरों की टोपी उछाल कर करता बहुत धमाल दोस्तो अपने सिर शहतीर न देखे मेरी अँखियन बाल दोस्तो पड़ोसियों के घर में क्या है वो करता पड़ताल दोस्तो अपने घर की ढाँप रहा है हर बेढ़ंगी चाल दोस्तो धरने पर बैठे सहकर्मी पीट रहे करताल दोस्तो डब्बा पहुँचा प्रधान के घर ख़त्म हुई हड़ताल दोस्तो छोटा सा घोटाला कर के घर बैठी दो साल दोस्तो अधिकारी घर रुका रात तो सुबह हुई बहाल दोस्तो Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"सराब (मृगमरीचिका) रखता हूँ" (ग़ज़ल)

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कई चेहरे जनाब रखता हूँ हर एक पे नक़ाब रखता हूँ सवालों के जवाब तो हैं पर गुल्लकों में जवाब रखता हूँ किसिम किसिम की हैं रातें मेरी बीसियों माहताब रखता हूँ बूढ़े माता-पिता के हिस्से की हर दवा का हिसाब रखता हूँ बीवी-बच्चों के नाम से बेशक़ बैंकों की किताब रखता हूँ घर में आ जाए जब कभी साली उसके खातिर गुलाब रखता हूँ भाई भाभी कभी आ जाएँ इधर पेशे-ख़िदमत  सराब  रखता हूँ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"होली कैसे खेलूँ"(कविता)

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मेरा मनवा बड़ा उदास, होली कैसे खेलूँ भैया, नीरव ललित माल्या मेहुल नित्य करें अय्याशी, किन्तु अन्न उगाने वाले लटक रहे है फांसी, खाँसी रोक रही उल्लास, होली कैसे खेलूँ भैया।  हम अपने-अपने घर-आँगन खेल रहे है होली, उधर प्रहरी सीमाओं पर झेल रहे है गोली, बोली इक विधवा की सास, होली कैसे खेलूँ भैया।  घोर गरीबी लगा रही है गाँव-खेत के फेरे, रूखे-सूखे सारे चेहरे चिंताओं ने घेरे, मेरे औंधे पड़े हुलास, होली कैसे खेलूँ भैया।  आशंका सी जाने कैसी पनप रही है जन-जन में, आक्रोश, संकोच और है उद्वेलन तन-मन में, वन में फुले नहीं पलास, होली कैसे खेलूँ भैया।  हाथ दराँती खेत जा रही बालक लिये बगल मा, पशुओं का चारा लाएगी दुबली-पतली सलमा, बलमा खेल रहा है ताश, होली कैसे खेलूँ भैया।  Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"इसलिये"

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दर्दे-दिल दर्दे-जिगर का किस तरीक़े हो बयां क्या हसीं खाया है धोखा तू कहाँ और मैं कहाँ तूने तख़्ती पर लिखी खुरची इबारत इस तरह मेरे दिल पे आज भी क़ायम खरौंचों के निशां मैं तो मैं ही हूँ मगर वो और भी दिलदार होगा इसलिये तेरे वो सारे ख़त तुझे लौटा रहा हूँ मुझसे ज्यादा कोई तुझको और करता प्यार होगा लिख लिया करती थी मेरा नाम अपने हाथ पर और इशारा आँख से करती कि मैं देखूँ उधर फ़िर अचानक क्या हुआ ये सोच कर हैरान हूँ क्या मिला तुझको मेरे जख़्मों के टांके काट कर ये मरीज़े-इश्क़ कितना और यूँ लाचार होगा इसलिये तेरे वो सारे ख़त तुझे लौटा रहा हूँ मुझसे ज्यादा कोई तुझको और करता प्यार होगा Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मैं पल पल"(गीत)

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फूल नहीं, हूँ खार लिये मैं दिल में तपता प्यार लिये मैं काया की सुंदर नैया औ' यौवन की पतवार लिये मैं साँसों के तारों से अपना मृत्युजाल बुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । कैसा मूरख भरमाया मैं जाने कहाँ चला आया मैं धूप यहाँ झुलसे देती है अगणित पेड़ों की छाया में भट्ठी के तपते बालू में मक्की सा भुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । जब सारा मंजर बदल गया और अस्थि पिंजर बदल गया तो मित्रों का व्यवहार उलट हाथों में खंजर बदल गया  पुष्पों की अभिलाषा लेकर कांटे ही चुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । गीदड़ बना रहे हैं सरहद पर्वत भूल रहे अपना कद कांटेदार झाड़ियों में क्यों छाया ढूंढ़ रहा है बरगद भारत की नियति-नीति पर सर अपना धुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"हरियाणवी गीत"

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म्हारे छोरे कै नजर लगी, किसी दुसट पडोसन की तडकै। के बैरण नै जुलम करे ये, घर आल़ी का जी धडकै। घणा अँधेरा घुप्प छा गया,कालबली के रास रचै। अनहोणी नै टाल़ रामजी,आँख मेरी बाईं फडकै। सनन सनन सी पौन चलै है, घूँघूँघूँघूँ पेड करैं। घटाटोप छाए सैं बादल़,अम्बर म्हं बिजल़ी कडकै। हुया करै था भाईचारा, लदे जमाने दूर कितै। किसा टेम आ गया, मरैं सैं आपस ही म्हं लड लड कै। अनपढ थे तो मान करैं थे,पढ लिख कै नै ऊत हुये। बापू सही राह की कहता, बेट्टा अम्मा पै भडकै। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बाक़ी"(कविता)

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अभी-अभी तो आकर बैठा सारी रात गुजरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी मन के घाट नहाने वाले थोड़े से बड़भागी देखे तन के तीर तैरने वाले अधिकांश अनुरागी देखे सच्चे मोती लाने खातिर गहरे झील उतरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी बहुत बड़ी भागीदारी की ख़ुद अपनी बरबादी में अबतक रहे नाचते बेशक़ बेगानों की शादी में जब चेते तो देर हो गई अब नाख़ून कुतरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी पहली फागुन की रुत आई नाची देवर संग भौजैया अगड़ पड़ौसी लगे झूमने ताक धिनाधिन ताता थैया गुस्से में भर सासू बोली तेरे पंख कतरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"पतझर"(गीत)

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ज्यों ही वसंत का अंत हुआ तब ही आरम्भ हुआ पतझर निर्वस्त्र से वृंत खड़े सूने जा दूर गिरे पत्ते झड़कर तब नव कलिकाएँ मुदित हुईं नव सृजन का कारण बनकर भर गईं शाखाएँ पत्तों से फूलों ने कहा खुलके हँसकर आरम्भ करें हम नवजीवन उन भँवरों को आमंत्रित कर रसपान करें वे झूम-झूम दें शुभ संदेश परागण कर लहलहा उठा शहतूत हरे पत्ते व मीठे फल पाकर अमवा के बिरवे चहक उठे बौरइयाँ आईं जामुन पर जब लगन धरी युवती निकली सखि संग मगन परिणय पथ पर तो मेहंदी लगे सुकुमार पाँव में एकाएक चुभा कंकर मेरे हृदय में शूल हुआ उसकी पीड़ा का अनुभव कर क्या लगा आपको भी ऐसा कह भी दीजे रोकर-हँसकर कन्या सोल्लास विदा करके हर्षित-उल्लसित नयन भरकर चन्दो भाभी ने जौ बोए गंगा में जय जय शिव शंकर लहरातीं फसलें खेतों में नभ में घनघोर घटा उठकर कृषकाय कृषक को कँपा रहीं चहुँ ओर बिजलियाँ तड़तड़ कर मैं दुबका हुआ अटारी में रहा इन्द्रदेव से विनती कर  हे स्वर्गलोक के मठाधीश भय दूर करें रक्षक बनकर Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मनहरण घनाक्षरी"(कवित्त)

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कैसा ये अजीब रोग,कैसे मतिमारे लोग। पौष्टिक आहार भोग,ढूंढ़ रहे गैया में। मुस्कुरा के मंद-मंद,गढ़ रहे व्यर्थ छंद। खोज रहे मकरंद, ग़ैर की लुगैया में। रहा नहीं दया-धर्म, बेच खाई हया-शर्म। डूबने के हेतु कर्म,पोखरी-तलैया में। आफ़तों से खेल रहे, मुसीबतें झेल रहे। ख़ुद को धकेल रहे, शनि जी की ढैया में। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"पाँच मुक्तक"

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 एक ही परिवार के जब सर अलग होते गये। अपनी-अपनी डफलियाँ, मंजर अलग होते गये। आँधियाँ चलने लगीं फ़िर द्वेष-वैमनस्य की- फासले बढ़ने लगे जब घर अलग होते गये। बोझ सीने पे वही अभी तक धरा क्यों है। जख़्म वो आज तक इतना हरा-हरा क्यों है। मिरे चेहरे पे यक़ीनन कुछ तो ऐसा है- आईना देख कर वरना डरा-डरा क्यों है। महकते इक फूल सा खिलने भी आया कीजिये। दूसरों के घाव को सिलने भी आया कीजिये। एक दिन इक बड़ा सा ताना दिया भगवान ने- मांगने आते हो बस,मिलने भी आया कीजिये। सोने का पानी चढ़वा कर पीतल चिढ़ा रहा गहनों को। अब्दुल्ला का टेढ़ा आँगन ठेंगा दिखा रहा सहनों को। थोथा चना बाजता ज्यादा, सही कहावत सिद्ध हो रही- रानू मंड़ल राग सिखाए लता और आशा बहनों को। भागते-भागते साँझ कब हो गई। बेटी-बेटे तो हैं, बाँझ कब हो गई। आया पतझड़ के जैसा बुढ़ापा तो फ़िर- मृदु मुरली की धुन झाँझ कब हो गई। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"मय के प्याले चार"(ग़ज़ल)

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इन जुल्फ़ों को यार झटक कर मैं भी देखूँ सूली पे इस बार लटक कर मैं भी देखूँ देखूँ कैसा होता है कांटों का चुभना कांटों में इक बार अटक कर मैं भी देखूँ बेशक़ काफ़िर नहीं मगर तू यक़ीन कर सर तेरे दरबार पटक कर मैं भी देखूँ जीना मरना दो ही तो झंझट दुनिया में ज़िन्दगी के द्वार फटक कर मैं भी देखूँ अंधे हाथ बटेर लग गई मैं पछताऊँ दरवज्जा कुछ बार खटक कर मैं भी देखूँ नहीं झूम कर नाचा अबतक किसी साज़ पे थोड़ा सा इस बार मटक कर मैं भी देखूँ नशा इश्क़ का कैसा होता ये भी जानूँ मय के प्याले चार गटक कर मैं भी देखूँ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"फागुन की मस्त बयार संग"

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कलियों ने घूंघट पट खोले तो भँवरे गाएँ गुन गुन गुन तीतर पंड़ुक बुलबुल तोते सब लगे सुनाने मीठी धुन मेरा मनवा भी झूम उठा जब नाच उठे वन में मतंग तन को सहलाती मंद मंद फागुन की मस्त बयार संग पीले सरसों के खेत हुए जंगल में फूले हैं पलास हैं बूंद ओस की जमी हुईं आनंदित पुलकित हरी घास जब दूर टटिहरी बोल उठी तो ध्यान हमारा हुआ भंग तन को सहलाती मंद मंद फागुन की मस्त बयार संग एकांत यहाँ पीपल नीचे है भोर सुहानी शांत घड़ी कुछ देर बैठ यदि ईश्वर से चेतन मन की जुड़ जाए कड़ी मैं हरि भजन में लीन रहूँ चन्दन से लिपटें ज्यों भुजंग तन को सहलाती मंद मंद फागुन की मस्त बयार संग Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"इन्द्रधनुष पर"(ग़ज़ल)

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  किसी बहाने जब देखो,छज्जे पे आना जाना छोड़ो आता देख मुझे, खिड़की में आकर बाल बनाना छोड़ो क्या नाता है तुमसे मेरा, क्यों अपनापन जता रहे हो हँस हँस कर यूँ बार बार,नैनों से तीर चलाना छोड़ो मैं नसीब का मारा, मुझको पाकर होगा क्या हासिल अपने दिल के बालू पे,बरसाती फसल उगाना छोड़ो आहें भरना-होंठ काटना-आँखें मलना, सब बेकार घुट घुट कर यूँ अपना दिल, और मेरा जिगर जलाना छोड़ो ख़्वाब-तसव्वुर-तड़प-सिसकियों, की उलझन से बाहर आओ इन्द्रधनुष पर लिखना अपना-मेरा नाम,मिटाना छोड़ो Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"झंझावात"(कविता)

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तन में मन में झंझावात है जीवन में झंझावात जो इससे मुक्ति दिलवाए उस अरपन में झंझावात ईश भजन में झंझावात तड़प लगन में झंझावात तर्क बड़े अनुभव हैं बौने भोलेपन में झंझावात गोवर्धन में झंझावात राधावन में झंझावात बजी बाँसुरी जब कान्हा की तो नर्तन में झंझावात प्रेम अगन में झंझावात शूल चुभन में झंझावात वर्षों के उपरांत हो रहे मधुर मिलन में झंझावात था ठिठुरन में झंझावात जेठ तपन में झंझावात बरसहिं जलद भूमि नियराए अब सावन में झंझावात था बचपन में झंझावात फ़िर यौवन में झंझावात गोरे गोरे गालों पे तिल अल्हड़पन में झंझावात खोज दुल्हन में झंझावात पति वरन में झंझावात जब दहेज़ की भेंट चढ़ी तो घर आँगन में झंझावात Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"हज़ारों को करोड़ कर साहब"(ग़जल)

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फटी चादर को ओढ़ कर साहब ग़म की बाहें मरोड़ कर साहब आइये नेक काम ये कर लें दिल के टुकड़ों को जोड़ कर साहब मैंने मौजों से लिया है पंगा अपनी कश्ती को छोड़ कर साहब आशियाने बचाए हैं अक्सर रुख़ हवाओं का मोड़ कर साहब वजूद उसका क्या मिटाओगे शाख़े-बरगद को तोड़ कर साहब लहू इससे टपकता तो नहीं दिखाओ दामन निचोड़ कर साहब बड़प्पन क्या दिखा रहे हैं आप नाक-भौं  को सिकोड़ कर साहब कीजिये इक मिसाल ये क़ायम घड़ा नफ़रत का फोड़ कर साहब भला क्या साथ लेके जाओगे हज़ारों को करोड़ कर साहब Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"अधूरापन"

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वर्षों का विश्वास तोड़कर, चलता बना जमूरा मन। अबतक मुझको साल रहा है, मेरा यही अधूरापन। धड़कन तार-तार हो जाती,सपना दिन में तारे सा। साँस गुटरगूँ करता रहता, अपना बिना सहारे सा। बनी ज़िन्दगी ढोल नगाड़ा, बाजे ख़ूब तँबूरा मन। अबतक मुझको साल रहा है,मेरा यही अधूरापन। आओ और उड़ाओ खिल्ली, बेढ़ंगे जरजर तन की। चिन्दी-चिन्दी छीन झपट लो,मेरे एकाकी पन की। ओखलिया में कूट कूट कर,बना लिया है चूरा मन। अबतक मुझको साल रहा है, मेरा यही अधूरापन। जाने कैसी बेचैनी है, क्यों भयभीत सदा रहता। शंका-आशंका में डूबा,कुछ कहता फ़िर चुप रहता। ऊपर-ऊपर से रसगुल्ला, भीतर बड़ा धतूरा मन। अबतक मुझको साल रहा है, मेरा यही अधूरापन। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"यारो, मनमाफिक लेता हूँ"(ग़ज़ल)

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  कभी-कभी कुछ लिख लेता हूँ दिल के हाथों बिक लेता हूँ करना हो जब उल्लू सीधा कड़ी धूप में सिक लेता हूँ मुँह में अली बगल में चाकू रख ईमां पर टिक लेता हूँ कभी तिलक तो कभी जनेऊ धर्म में रुचि अधिक लेता हूँ जब-जब प्यारी सूरत देखूँ नाम बदल आशिक़ लेता हूँ हया शर्म को बेचबाच कर धन दौलत से छिक लेता हूँ अपने हित के सभी फैसले यारो,मनमाफिक लेता हूँ Written by विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'